भारत के देशी राज्य – राजाओं के मन में कांग्रेस की ओर से आशंका
जिस समय भारत को स्वतंत्रता मिली, उस समय भारत में 11 ब्रिटिश प्रांत एवं 565 देशी राज्य थे। भारत के देशी राज्य हजारों सालों से अस्तित्व में थे जबकि ब्रिटिश प्रांतों का निर्माण ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के दौरान किया गया था।
जब भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 घोषित हुआ तो उसकी धारा 8 में प्रावधान किया गया कि देशी राज्यों पर से 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता समाप्त हो जाएगी तथा यह पुनः देशी राज्यों को हस्तांतरित कर दी जाएगी। बहुत से राजाओं ने अंग्रेजों द्वारा दी जा रही इस सुविधा का लाभ उठाने का मन बनाया। इस सुविधा के आधार पर देशी राज्य अपनी इच्छानुसार भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी भी देश में सम्मिलित होने अथवा पृथक अस्तित्व बनाये रखने के लिये स्वतंत्र थे।
मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग के आंदोलन के माध्यम से बनने वाले भावी पाकिस्तान में पूरे पंजाब और पूरे बंगाल की मांग की थी किंतु भारत-पाकिस्तान की वास्तविक सीमाओं का खुलासा पाकिस्तान बनने से पहले तक नहीं किया गया। इन कारणों से भारतीय राजाओं के मन में यह भ्रम बना रहा कि पूरा पंजाब पाकिस्तान में जाएगा।
इस कारण जैसलमेर, बीकानेर, अलवर, जोधपुर आदि बहुत सी रियासतों को लगता था कि देश का विभाजन होने के बाद उनका राज्य भारत एवं पाकिस्तान दोनों की सीमाओं के बीच में स्थित होगा इसलिए वे अपनी मर्जी से भारत या पाकिस्तान में से किसी को भी चुनने की स्थिति में होंगे। चूंकि कांग्रेस शुरु से ही राजाओं को धमका रही थी कि रियासतों पर से परमोच्चता का अधिकार ब्रिटिश क्राउन से समाप्त होकर संघीय सरकार को मिल जाएगा इसलिए राजा लोग कांग्रेस-शासित भारत में मिलने से डरने लगे।
29 जनवरी 1947 को बंबई के ताजमहल होटल में नरेंद्र मण्डल की बैठक हुई जिसमें 60 राजा और 100 राज्यों के मंत्री उपस्थित थे। बैठक में नरेन्द्र मण्डल के चांसलर भोपाल नवाब ने कहा- ‘हमें कहा जा रहा है कि या तो हम हट जायें या फिर हाशिये पर जियें। हमारे लिये इन धमकियों के आगे घुटने टेक देना अशोभनीय होगा।’
नवाब ने वे आधारभूत सिद्धांत भी गिनाये जिन पर राज्य समझौता करने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने मांग की कि कैबीनेट मिशन योजना का पूर्ण अनुसरण किया जाये। त्रावणकोर के दीवान सर सी. पी. रामास्वामी ने संविधान सभा पर आरोप लगाया कि वह राज्यों में सरकार का प्रारूप निश्चित करने की चेष्टा कर रही है। सम्मेलन में पारित एक प्रस्ताव के माध्यम से राजाओं ने इच्छा प्रकट की कि कैबीनेट मिशन योजना के तहत प्रस्तावित भारत संघ में संविधान के निर्माण के लिये शासकगण अपना हर संभव सहयोग देने को तैयार हैं।
अलवर नरेश ने 3 अप्रेल 1947 को बम्बई में आयोजित नरेंद्र-मंडल की बैठक में कहा कि- ‘देशी राज्यों के अधिपतियों को हिंदी संघ राज्य में नहीं मिलना चाहिये’ किंतु 10 अप्रेल 1947 को बड़ौदा, पटियाला, बीकानेर, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर तथा रीवां ने संविधान सभा में सम्मिलित होने की घोषणा की। अब भी बहुत से राजा संविधान सभा से बाहर थे। इसलिए 18 अप्रेल 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजा परिषद के आठवें अधिवेशन में राजाओं को चेतावनी दी कि जो राजा इस समय संविधान सभा में सम्मिलित नहीं होंगे उन्हें देश का शत्रु समझा जायेगा और उन्हें इसके दुष्परिणाम भोगने होंगे।
लियाकत अली ने राजाओं का आह्वान किया कि वे नेहरू की धमकियों में न आयें। नेहरू, गांधी प्यारेलाल आदि कांग्रेसी नेताओं द्वारा देशी राज्यों के प्रति प्रयुक्त की जा रही कठोर भाषा से बहुत से राजा कांग्रेस से नाराज एवं भयभीत थे। इसलिए वे पाकिस्तान में मिलने या स्वतंत्र रहने या देशी राज्यों का अलग समूह बनाकर उसमें मिलने पर विचार कर रहे थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में अधिकांश राज्य, हिंदू राज्य थे। हैदराबाद, भोपाल, जूनागढ़ एवं टोंक राज्यों के शासक तो मुसलमान थे किंतु वहाँ की बहुसंख्यक जनता हिन्दू थी। जबकि काश्मीर का राजा हिन्दू था किंतु उसकी बहुसंख्यक प्रजा मुसलमान थी। इस प्रकार जातीय आधार पर भारत के राज्य और उनकी जनता ब्रिटिश-भारत के हिंदू बहुल क्षेत्र से जुड़े हुए थे।
आजादी के समय भारत में 566 देशी रियासतें थीं जिनमें से 12 रियासतें- बहावलपुर, खैरपुर, कलात, लास बेला, मकरान, खरान, अम्ब (तनावल), चित्राल, हुंजा, धीर, नगर तथा स्वात, पाकिस्तानी क्षेत्रों से घिरी हुई थीं। इसलिये उन्हें पाकिस्तान में सम्मिलित किया जाना था। शेष 554 रियासतें भारत में रह जानी थीं।
मुस्लिम शासकों द्वारा शासित जूनागढ़ (सौराष्ट्र), हैदराबाद (दक्षिण भारत) एवं भोपाल (मध्य भारत) तथा हिन्दू शासक द्वारा शासित किंतु मुस्लिम बहुल राज्य काश्मीर भारत में मिलने को तैयार नहीं हुए। कुछ हिन्दू राज्य भी भारत एवं पाकिस्तान से स्वतंत्र रहने का स्वप्न देखने लगे।
पाकिस्तानी क्षेत्र में स्थित कलात नामक रियासत ने पाकिस्तान में मिलने से मना कर दिया। जिन्ना उस समय तो चुप लगा गया किंतु मार्च 1948 में पाकिस्तानी सेना ने कलात पर आक्रमण करके उसे बलपूर्वक पाकिस्तान में मिला लिया।
छोटे राज्यों के पास भारत संघ में मिल जाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था किंतु बड़े एवं सक्षम राज्यों की स्थिति अलग थी। त्रावणकोर, हैदराबाद, जम्मू एवं काश्मीर, मैसूर, इन्दौर, भोपाल, नवानगर यहाँ तक कि बिलासपुर की बौनी रियासत ने भी पूर्णतः स्वतंत्र रहने का स्वप्न देखा। भोपाल नवाब नरेन्द्र मण्डल के चांसलर पद का दुरुपयोग करते हुए केन्द्र में एक मजबूत संघ का निर्माण नहीं होने देना चाहते थे।
ऐसी परिस्थति में बीकानेर नरेश सादूलसिंह राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर देश के राजाओं का नेतृत्व करने के लिये आगे आये और उन्होंने नवाब द्वारा रचे गये चक्रव्यूह को भेद डाला। 10 अप्रेल 1947 को बड़ौदा, पटियाला, बीकानेर, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर तथा रीवां जैसे महत्वपूर्ण राज्यों ने संविधान सभा में सम्मिलित होने की घोषणा करके नवाब के मंसूबों को पूरी तरह नष्ट कर दिया।
शासकगण चाहते थे कि परमोच्चता की समाप्ति तुरंत हो ताकि वे अपने अधिकारों के लिये अधिक मजबूती से मोल भाव कर सकें किंतु ब्रिटिश सरकार का मानना था कि ब्रिटिश-भारत के लिये सम्प्रभुता की समाप्ति तथा रियासती-भारत के लिये परमोच्चता की समाप्ति की अलग-अलग तिथियां नहीं हो सकतीं। राजपूताना के राज्यों ने आजादी के द्वार पर खड़े देश के इतिहास के रुख को सदा-सदा के लिये सही दिशा में मोड़ दिया। राजपूताना के राजाओं ने इस समय इस बात का विशेष ध्यान रखा कि उन पर भारत की संवैधानिक प्रगति का शत्रु होने का आरोप न लगे।
5 जून 1947 को भोपाल तथा त्रावणकोर ने स्वतंत्र रहने के निर्णय की घोषणा की। हैदराबाद को भी यही उचित जान पड़ा। काश्मीर, इन्दौर, जोधपुर, धौलपुर, भरतपुर तथा कुछ अन्य राज्यों के समूह के द्वारा भी ऐसी ही घोषणा किये जाने की संभावना थी। इस प्रकार कुछ देशी रियासतों के शासकों की महत्वाकांक्षायें देश की अखण्डता के लिये खतरा बन गयीं। मद्रास के तत्कालीन गवर्नर तथा बाद में स्वतंत्र भारत में ब्रिटेन के प्रथम हाईकमिश्नर सर आर्चिबाल्ड नेई को रजवाड़ों के साथ किसी प्रकार की संधि होने में संदेह था।
माउंटबेटन ने सरदार पटेल से कहा- ‘यदि राजाओं से उनकी पदवियां न छीनी जायें, महल उन्हीं के पास बने रहें, उन्हें गिरफ्तारी से मुक्त रखा जाये, प्रिवीपर्स की सुविधा जारी रहे तथा अंग्रेजों द्वारा दिये गये किसी भी सम्मान को स्वीकारने से न रोका जाये तो वायसराय राजाओं को इस बात पर राजी कर लेंगे कि वे अपने राज्यों को भारतीय संघ में विलीन करें और स्वतंत्र होने का विचार त्याग दें।’
पटेल ने माउंटबेटन के सामने शर्त रखी कि- ‘वे माउंटबेटन की शर्त को स्वीकार कर लेंगे यदि माउंटबेटन सारे रजवाड़ों को भारत की झोली में डाल दें।’
तेजबहादुर सप्रू का कहना था- ‘मुझे उन राज्यों पर, चाहे वह छोटे हों अथवा बड़े, आश्चर्य होता है कि वे इतने मूर्ख हैं कि वे समझते हैं कि वे इस तरह से स्वतंत्र हो जायेंगे और फिर अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेंगे।’
दुर्दिन के मसीहाओं ने भविष्यवाणी की थी कि- ‘हिंदुस्तान की आजादी की नाव रजवाड़ों की चट्टान से टकरायेगी।’
इस प्रकार जिस समय भारत को स्वतंत्रता मिली, उस समय कांगेस के समक्ष दो बड़ी समस्याएं थीं- मुसलमानों द्वारा किए जा रहे नरसंहार पर कैसे नियंत्रण पाया जाएगा तथा भारत के देशी राज्य किस प्रकार भारत में मिलाए जाएंगे!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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