ब्रजभूमि के मंदिरों पर कहर ढाने के बाद औरंगजेब राजपूताने के मंदिरों पर कहर ढा चुका था और अब वह दक्षिण भारत पर कहर ढाने के लिए तैयार था। उस काल में दक्षिण भारत के गगनचम्बी मंदिर औरंगजेब के लिए किसी कुफ्र से कम नहीं थे। वह कुफ्र की इन निशानियों को हमेशा-हमेशा के लिए मिटा देना चाहता था।
औरंगजेब की सेना ने 2 अगस्त 1680 को मालवा का सुप्रसिद्ध सोमेश्वर मंदिर नष्ट कर दिया। 28 मार्च 1681 को असद अली खाँ ने आम्बेर के निकट गोनेर के लक्ष्मी-जगदीश मंदिर को नष्ट कर दिया। गोनेर को उस काल में राजपूताने का वृंदावन कहा जाता था। यहाँ मध्यकालीन 11 मंदिर थे, जिन्हें औरंगजेब की सेनाओं ने क्षति पहुंचाई।
जब औरंगजेब द्वारा मंदिरों एवं मूर्तियों को नष्ट करने का काम आरम्भ किया गया तो दक्षिण में नियुक्त अनेक राजपूत राजाओं ने देव-प्रतिमाओं को बचाने के प्रयास आरम्भ कर दिए।
जब औरंगजेब ने ब्रजभूमि के मंदिरों पर कहर ढाया था तब वहां की बहुत सी प्रसिद्ध देवप्रतिमाएं राजपूत राजाओं के राज्यों में लाई गईं। अब औरंगजेब दक्षिण भारत पर कहर ढाने को उत्युक था इसलिए राजपूत राजाओं ने दक्षिण के मंदिरों की मूर्तियां की रक्षा के लिए तैयार कर ली।
इनमें बीकानेर नरेश अनूपसिंह तथा आम्बेर नरेश मिर्जाराजा जयसिंह के नाम सबसे ऊपर हैं। महाराजा अनूपसिंह ने अष्टधातु की बहुत सी मूर्तियों की रक्षा की तथा उन्हें दक्षिण से निकालकर अपने राज्य में स्थित बीकानेर दुर्ग में भिजवा दिया।
इन मूर्तियों के लिए बीकानेर में तेतीस करोड़ देवी-देवताओं का मंदिर बनाया गया। ई.1689 में दक्षिण के मोर्चे पर ही महाराजा अनूपसिंह का निधन हुआ। महाराजा द्वारा नष्ट होने से बचाई गई मूर्तियां आज भी बीकानेर में देखी जा सकती हैं।
ई.1693 में औरंगजेब ने गुजरात के वडनगर में स्थित हितेश्वर मंदिर को तोड़ने के आदेश दिए। उसके आदेशों से उत्तर प्रदेश में स्थित सोरों के सीता-राम मंदिर को भग्न किया गया। मंदिर के पुजारियों की मंदिर में ही हत्या की गई तथा गोंडा में देवी-पाटन के नाम पर स्थित देव-वन को नष्ट किया गया।
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आम्बेर नरेश मिर्जाराजा जयसिंह ने देश के कई नगरों में निजी सम्पत्तियां खरीदकर जयसिंहपुरा नामक स्थलों का निर्माण करवाया तथा उन्हें अपनी निजी सम्पत्ति बताकर ब्राह्मणों, साधुओं एवं बैरागियों को रहने के लिए दे दिया। ये लोग जयसिंहपुरा में रहकर अपने निजी मंदिर बनाते थे और उनमें देव-विग्रहों की स्थापना करके उनकी पूजा किया करते थे।
जब दिल्ली के एक जयसिंहपुरा में इस प्रकार की पूजा होने की सूचना मिली तो मुगल सेनाओं ने जयसिंहपुरा को घेर कर वहाँ के बैरागियों को पकड़ लिया। मुगल सेना ने 13 देव-मूर्तियां जब्त करके दिल्ली के सूबेदार के पास भेज दीं। जयसिंहपुरा के सामने हिन्दुओं की भारी भीड़ इकट्ठी हो गई। इस भीड़ ने बैरागियों को तो छुड़वा लिया किंतु देव-मूर्तियों को नहीं छुड़वाया जा सका।
ई.1698 में हमीदुद्दीन खाँ को बीजापुर भेजा गया। उसने बीजापुर के मंदिरों को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दीं। बादशाह उसके काम से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने हमीदुद्दीन खाँ को गुसलखाने का दारोगा बना दिया ताकि वह प्रतिदिन हमीदुद्दीन खाँ को देख सके और उसकी प्रशंसा कर सके।
औरंगजेब के शासनकाल में उसके उन आदेशों की अक्षरशः पालना की गई जिनके अनुसार हिन्दू न तो अपने पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कर सकते थे और न नए मंदिर बना सकते थे।
पूरे देश के प्रसिद्ध तीर्थों एवं मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को तुड़वाकर दिल्ली तथा आगरा में मस्जिदों की सीढ़ियों तथा मार्गों में डलवाया गया जिससे वे नमाज पढ़ने वालें के पैरों से ठुकराई जाएं। उसके शासन में देश भर के हजारों देवमंदिरों को मस्जिदों में बदल दिया गया। यहाँ तक कि छोटे-छोटे चबूतरों तथा पेड़ों के नीचे रखी देव-मूर्तियों एवं पत्थरों को भी तोड़ दिया गया।
इस समय तक औरंगजेब बहुत बूढ़ा हो गया था। फिर भी मंदिरों को तोड़ने की उसकी प्रवृत्ति ज्यों की त्यों बनी रही। 1 जनवरी 1705 को उसने मुहम्मद खलील और बेलदारों के दारोगा खिदमत राय को आदेश दिया कि महाराष्ट्र में पंढरपुर के बिठोबा मंदिर को तोड़ डाला जाए तथा कसाइयों को बुलाकर वहाँ गाएं कटवाई जाएं। यह मंदिर बहुत पुराना और प्रतिष्ठित था एवं इसका उल्लेख स्कंद पुराण में प्रमुख तीर्थ के रूप में किया गया था।
जैसे ही हिन्दुओं को औरंगजेब के इस भयावह आदेश की जानकारी मिली, उन्होंने विठोबा तथा रुक्मणि की प्रतिमाओं को मंदिर से हटाकर जंगलों में छिपा दिया। मुगल सैनिकों ने मंदिर में गायों को लाकर उनकी हत्या की तथा मंदिर को ढहा दिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद हिन्दुओं ने इस मंदिर को पुनः बनाया जिसमें वही प्राचीन प्रतिमाएं पुनः स्थापित की गईं।
औरंगजेब हिन्दू मंदिरों से कितनी घृणा करता था इसका अनुमान औरंगजेब द्वारा रूहिल्ला खाँ को लिखे गए एक पत्र से भली-भांति होता है जिसमें उसने लिखा कि-
‘महाराष्ट्र के बुतखाने पत्थर एवं लोहे के बने हुए होते हैं जिन्हें हमारी सेनाएं, मेरे उस रास्ते से होकर निकलने से पहले, पूरी तरह नहीं तोड़ पाती हैं इस कारण वे मुझे दिखाई देते हैं। इसलिए जब मैं वहाँ से होकर निकल जाऊँ तब मंदिर के ध्वंसावशेषों को और अधिक बेलदार लगाकर उन्हें फुर्सत से पूरी तरह तोड़ा जाए। इस कार्य में ऐसे दारोगा को लगाया जाए जो पूरी तरह से कट्टर हो और वह बुतखानों को तोड़ने के बाद उनकी नींवें भी उखाड़ फैंके।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता