मीराबाई
मध्य-कालीन भक्तों में मीराबाई का नाम अग्रणी है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मीरा का जन्म वि.सं. 1573 (ई.1516) में माना है जबकि गौरीशंकर हीराचंद ओझा, हरविलास शारदा तथा गोपीनाथ शर्मा आदि इतिहासकारों ने मीराबाई का जन्म वि.सं. 1555 (ई.1498) में माना है। मीरा मेड़ता के राठौड़ शासक राव दूदा के पुत्र रतनसिंह की पुत्री थी।
जब मीरा दो साल की थीं, उनकी माता का निधन हो गया। मीरा का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ। विवाह के सात वर्ष बाद ही भोजराज एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। कुछ दिन बाद मीरा के श्वसुर महाराणा सांगा और पिता रतनसिंह भी खानवा के युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुए। कुछ समय बाद जोधपुर के राजा मालदेव ने मीरां के चाचा वीरमदेव से उनका मेड़ता राज्य छीन लिया।
बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति की थीं और श्रीकृष्ण को अपना पति मानती थीं। अब वह सांसारिक सुखों से विरक्त होकर साधु-संतों के साथ भगवान का भजन करने लगीं। महाराणा सांगा के बाद उनके पुत्र रतनसिंह और विक्रमादित्य क्रमशः मेवाड़ के महाराणा हुए किंतु उन दोनों को मीरा का साधुओं के साथ भजन गाना एवं नृत्य करना अच्छा नहीं लगा।
उन्होंने मीरा को रोकने का प्रयास किया किंतु मीरा चितौड़ छोड़़कर वृन्दावन चली गई। वहाँ से कुछ दिन वह द्वारिका चली गई और वहीं उसका शरीर पूरा हुआ।
मीराबाई ने चित्तौड़ के राजसी वैभव त्यागकर वैराग्य धारण किया तथा चमार जाति में जन्मे संत रैदास को अपना गुरु बनाया। वे जाति-पांति तथा ऊँच नीच में विश्वास नहीं करती थीं। उन्होंने ईश्वर के सगुण-साकार स्वरूप की भक्ति की। वे उच्चकोटि की कवयित्री थीं।
जन-साधारण में उनके भजन आज भी बड़े प्रेम एवं चाव से गाए जाते हैं। मीराबाई से प्रेरणा पाकर देश की करोड़ों नारियों ने श्रीकृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाया जिससे हिन्दू परिवारों का वातावरण श्रीकृष्ण मय हो गया। राजपूताने के अनेक राजाओं ने भी श्रीकृष्ण भक्ति एवं ब्रज भाषा की कविता का प्रचार किया।
मीरा की आध्यात्मिक यात्रा के तीन सोपान हैं। पहले सोपान में मीरा कृष्ण के लिए लालायित हैं और अत्यंत व्यग्र होकर गाती हैं- ‘मैं विरहणी बैठी जागूँ, जग सोवे री आली।’ कृष्ण-विरह सी पीड़ित होकर वे गाती हैं- ‘दरस बिन दूखण लागे नैण।’ कृष्ण भक्ति के दूसरे सोपान में मीरा श्रीकृष्ण को प्राप्त कर लेती हैं और वह कहती हैं- ‘पायोजी मैंने राम रतन धन पायो।’
भक्ति के तीसरे और अन्तिम सोपान में मीरा को आत्मबोध हो जाता है और वे परमात्मा से एकाकार हो जाती हैं। यही सायुज्य भक्ति का चरम बिंदु है। इस सोपान में पहुँचकर मीरा कहती हैं- ‘म्हारे तो गिरधर गोपाल दूजो न कोई।’
मीरा के काव्य में सांसारिक बन्धनों को त्यागकर ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव मिलता है। मीरा कृष्ण को ही परमात्मा और अविनाशी मानती थी। उनकी भक्ति आडम्बर रहित है। मीरा किसी सम्प्रदाय विशेष से बँधी हुई नहीं थीं और उनके मन्दिर के द्वार सबके लिए खुले हुए थे। मीरा ने बहुत से पदों की रचना की जो फुटकर रूप में प्राप्त होते हैं। महादेवी वर्मा के अनुसार मीरा के पद विश्व के भक्ति साहित्य के अनमोल रत्न हैं। मीरा ने ‘राग गोविन्द’ नामक ग्रन्थ भी लिखा था किंतु यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है।
दादू दयाल
भक्ति आन्दोलन के संतों में दादू दयाल का नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है। उनका जन्म अहमदाबाद में हुआ तथा उनका अधिकांश जीवन राजस्थान में व्यतीत हुआ। कबीर एवं नानक की भाँति दादू ने भी अन्धविश्वास, मूर्ति-पूजा, जाति-पाँति, तीर्थयात्रा, व्रत-उपवास आदि का विरोध किया और जनता को सीधा और सच्चा जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया।
दादू एक अच्छे कवि थे। उन्होंने भजनों के माध्यम से विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य प्रेम एवं भाईचारे की भावना बढ़ाने पर जोर दिया। उनका पन्थ दादू-पन्थ के नाम से विख्यात हुआ। उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्यों- गरीबदास और माधोदास ने उनके उपदेशों को फैलाने का अथक प्रयास किया।
गोस्वामी तुलसीदास
रामानंद की शिष्य मण्डली के प्रमुख सदस्य नरहरि आनंद के शिष्य तुलसीदास, अकबर के समकालीन संत हुए। उनका जन्म ई.1532 के लगभग हुआ। उन्होंने रामचरित मानस, गीतावली, कवितावली, विनय पत्रिका, एवं हनुमान बाहुक आदि ग्रंथों की रचना की।
उन्होंने भारत की जनता को धनुर्धारी दशरथ-नदंन श्रीराम की भक्ति करने की प्रेरणा दी जो धरती, ब्राह्मण, गाय तथा देवताओं की रक्षा के लिए मनुष्य का शरीर धारण करते हैं- ‘गो द्विज धेनु देव हितकारी, कृपासिंधु मानुष तनुधारी।’ तथा जो जनता को सुखी करने वाले, वैदिक धर्म की रक्षा करने वाले एवं दुष्टों का विनाश करने वाले हैं- ‘जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।’
तुलसी ने जनसामान्य को भगवान में विश्वास रखने की प्रेरणा देते हुए कहा- हे परमात्मा, आप ही मेरे स्वामी, गुरु, पिता और माता हैं, आपके चरण-कमलों को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ- ‘मोरे तुम प्रभु गुर पितु माता, जाऊँ कहाँ तजि पद जल जाता।’
तुलसीदास ने जनसामान्य को सद्ग्रंथों का पठन करने का आह्वान किया तथा विभिन्न गुरुओं द्वारा फैलाए जाने वाले पंथों और मार्गों को निंदनीय बताया ताकि हिन्दू-धर्म को एकता के सूत्र में पिरोए रखा जा सके तथा धर्म-भीरु प्रजा को दुष्ट व्यक्तियों द्वारा धर्म के नाम पर उत्पन्न की जा रही भूल-भुलैयाओं में भटकने से रोका जा सके।
तुलसी ने पाखण्डी गुरुओं को चेतावनी देते हुए कहा- ‘हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई।’ अर्थात् जो गुरु, शिष्य के शोक को नहीं हरता अपितु उसका धन हड़पता है, वह घनघोर नर्क में पड़ता है। उन्होंने राजाओं को भी अपनी अच्छी प्रजा अर्थात् सज्जनों के पालन का निर्देशन करते हुए कहा- ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुःखारी, सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।’
उन्होंने ‘कोउ नृप होहु हमें का हानि’ की मानसिकता को दास-दासियों की मानसिकता बताया। तुलसी की रामचरित मानस घर-घर पहुँच गई। करोड़ों लोगों को इसकी चौपाइयां कण्ठस्थ हो गईं तथा घर-घर पाठ होने लगे। रामचरित मानस के श्रीराम पर विश्वास हो जाने से सैंकड़ों वर्षों से दबे-कुचले कोटि-कोटि जनसमुदाय के मन में नवीन साहस का संचार हुआ। लोग ईश्वरीय सत्ता में विश्वास रखनकर अपने धर्म पर अडिग बने रहे।
तुलसीदास द्वारा विभिन्न सम्प्रदायों में समन्वय के प्रयास: दिल्ली सल्तनत (13वीं-16वीं शताब्दी ईस्वी) एवं मुगलों के शासन काल (16वीं-18वीं शताब्दी ईस्वी) में हिन्दू-धर्म के शैव, शाक्त एवं वैष्णव सम्प्रदायों के बीच कटुता का वातावरण था। यहाँ तक कि सगुणोपासकों एवं निर्गुणोपासकों के बीच भी कटुता व्याप्त थी। सभी सम्प्रदायों के मतावलम्बी अपने-अपने मत को श्रेष्ठ बताकर दूसरे के मत को बिल्कुल ही नकारते थे।
गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस के माध्यम से इस कटुता को समाप्त करने का सफल प्रयास किया। इस ग्रंथ में तुलसी ने शैवों के आराध्य देव शिव तथा विष्णु के अवतार राम को एक दूसरे का स्वामी, सखा और सेवक घोषित किया।
राम भक्त तुलसी ने ‘सेवक स्वामि सखा सिय-पिय के, हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के’ कहकर शंकर की स्तुति की। इतना ही नहीं तुलसी ने अपने स्वामी राम के मुख से- ‘औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउं कर जोरि, संकर भजन बिना नर भगति न पावई मोर’ कहलवाकर राम-भक्तों को शिव की पूजा करने का मार्ग दिखाया एवं राम-पत्नी सीता के मुख से शिव-पत्नी गौरी की स्तुति करवाकर शाक्तों एवं वैष्णवों को निकट लाने में सफलता प्राप्त की- ‘जय जय गिरिबर राज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।’
तुलसी ने ‘सगुनहि अगुनहि नहीं कछु भेदा, गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा’ कहकर सगुणोपासकों एवं निर्गुणोपासकों के बीच की खाई को पाटने का प्रयास किया। तुलसी ने भक्तिमार्गियों एवं ज्ञानमार्गियों के बीच की दूरी समाप्त करते हुए कहा- ‘भगतहि ज्ञानही नहीं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा।’
तुलसीदास ब्राह्मणों की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे किंतु उनके राम जन-जन के राम थे जिन्होंने शबर जाति की स्त्री के घर बेर खाए, गृध्र जाति के जटायु का उद्धार किया, निषादराज को अपना मित्र बनाया तथा केवट एवं अहिल्या का उद्धार किया। तुलसी के राम ने ताड़का-वध, शूर्पनखा की नासिका कर्तन तथा सिंहका का वध करके यह स्पष्ट संदेश दिया कि स्त्री यदि अच्छे गुणों से युक्त हो तभी वह पूज्य है, दुष्ट स्त्री उसी प्रकार वध के योग्य है जिस प्रकार बुरा पुरुष।
तुलसी के प्रयासों को बाद में आने वाले अन्य संतों ने भी बल दिया जिसके परिणाम स्वरूप शैव, शाक्त एवं वैष्णव सम्प्रदायों तथा इन सम्प्रदायों के भीतर उपस्थित विभिन्न विचारधाराओं के अनुयाइयों के बीच की दूरियां कम हुई और हिन्दू-धर्म, विदेशी धरती से आने वाले धर्मों के समक्ष साहस पूर्वक खड़ा हो गया। ई.1623 (वि.सं.1680) में तुलसी का देहान्त हो गया।
संत तुकाराम
संत तुकाराम का जन्म ई.1608 में महाराष्ट्र के देहू गांव में हुआ। वे अपने समय के महान् संत और कवि थे तथा तत्कालीन भारत में चले रहे भक्ति आंदोलन के प्रमुख स्तंभ थे। उन्हें ‘तुकोबा’ भी कहा जाता है। उनके जन्म आदि के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। तुकाराम को चैतन्य नामक साधु ने ‘राम कृष्ण हरि’ मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया। संत तुकाराम ने 17 वर्ष तक जन-साधारण को उपदेश दिए।
अपने जीवन के उत्तरार्ध में उनके द्वारा गाए गए तथा उनके शिष्यों द्वारा लिपिबद्ध किए गए लगभग 4000 ‘अभंग’ आज भी उपलब्ध हैं। तुकाराम ने अपनी साधक अवस्था में संत ज्ञानेश्वर और नामदेव के ग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया। इन तीनों संत कवियों के साहित्य में एक ही आध्यात्म सूत्र पिरोया हुआ है। स्वभाव से स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में कठोरता दिखलाई पड़ती है, उसके पीछे उनका प्रमुख उद्देश्य समाज से दुष्टों का निर्दलन कर धर्म का संरक्षण करना था।
उन्होंने सदैव सत्य का ही अवलंबन किया और किसी की प्रसन्नता एवं अप्रसन्नता की ओर ध्यान न देते हुए धर्म-संरक्षण के साथ-साथ पाखंड-खंडन का कार्य किया। उन्होंने अनुभव-शून्य पोथी-पंडित, दुराचारी-धर्मगुरु इत्यादि समाज-कंटकों की अत्यंत तीव्र आलोचना की है। उनके उपदेशों का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति हेतु मानव का प्रयत्न होना चाहिए।
अन्य भक्ति सम्प्रदाय
भक्ति सम्प्रदायों की इस परम्परा में विष्णु गोस्वामी का रुद्र सम्प्रदाय, हितहरिवंश का राधावल्लभी सम्प्रदाय तथा हरिदासी सम्प्रदाय महत्वपूर्ण हैं।
भक्ति आन्दोलन का प्रभाव
भक्ति-आन्दोलन का भारतीयों के धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव इतना गहरा था कि जहाँ साधारण जनता मुस्लिम आक्रांताओं के विरुद्ध धर्म को अपनी ढाल बनाकर खड़ी हो गई, वहीं भारत के हिन्दू राजाओं ने भी शत्रुओं के हाथों से अपनी प्रजा की रक्षा करने के काम को ईश्वरीय आदेश की तरह शिरोधार्य किया-
(1.) हिन्दू जाति में साहस का संसार
हिन्दू जनता मुस्लिम शासन द्वारा किये जा रहे दमन के कारण नैराश्य की नदी में डूब रही थी। भगवद्गीता से प्रसूत ईश्-भक्ति का अवलम्बन प्राप्त हो जाने से उसमें मुसलमानों के अत्याचारों को सहन करने की शक्ति उत्पन्न हो गई।
(2.) मुसलमानों के अत्याचारों में कमी
भक्ति-मार्गी सन्तों के उपदेशों का मुसलमानों पर भी प्रभाव पड़ा। इन सन्तों ने ईश्वर के एक होने का उपदेश दिया और बताया कि एक ईश्वर तक पहुँचने के लिये विभिन्न धर्म विभिन्न मार्ग की तरह हैं। इससे मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर किये जा रहे अत्याचारों में कमी हुई।
(3.) बाह्याडम्बरों में कमी
भक्तिमार्गी सन्तों ने धर्म में बाह्याडम्बरों की घोर निन्दा की और जीवन को सरल तथा आचरण को शुद्ध बनाने का उपदेश दिया।
(4.) मूर्ति-पूजा का खंडन
कबीर, नामदेव तथा नानक आदि संत निर्गुण-निराकार ईश्वर की पूजा में विश्वास रखते थे। उन्होंने मूर्ति-पूजा का खंडन किया।
(5.) उदार भावों का संचार
भक्ति-मार्गी सन्तों के उपदेशों के फलस्वरूप हिन्दुओं तथा मुसलमानों में उदारता का संचार हुआ और वे एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता प्रदर्शित करने लगे।
(6.) धर्मों की मौलिक एकता का प्रदर्शन
भक्तिमार्गी सन्तों तथा सूफी प्रचारकों ने एकेश्वरवाद, ईश्वर प्रेम एवं भक्ति पर जोर देकर दोनों धर्मो की मौलिक एकता प्रदर्शित की। इसका हिन्दू तथा मुसलमान, दोनों पर प्रभाव पड़ा और वे एक दूसरे को समझने का प्रयत्न करने लगे।
(7.) जातीय एवं व्यक्तिगत गौरव की उत्पति
भक्ति मार्गी सन्तों द्वारा विष्णु एवं उसके अवतारों के भक्त-वत्सल होने तथा अत्याचारी का दमन करने के लिये अवतार लेने का संदेश बड़ी मजबूती से जनमसामान्य तक पहुँचाया गया। इससे हिन्दुओं में जातीय एवं व्यक्तिगत गौरव उत्पन्न हुआ। वे निर्बल की रक्षा करना ईश्वरीय गुण मानने लगे और स्वयं को भी इस कार्य के लिये प्रस्तुत करने लगे। उन्होंने गौ, स्त्री तथा शरणागत की रक्षा को ईश कृपा प्राप्त करने का माध्यम माना।
(8.) प्रान्तीय भाषाओं का विकास
भक्ति मार्गी सन्तों ने अपने उपदेश जन-सामान्य तक पहुँचाने के लिये लोक भाषाओं को अपनाया। फलतः प्रान्तीय भाषाओं तथा हिन्दी भाषा की प्रगति को बड़ा बल मिला और विविध प्रकार के साहित्य की उन्नति हुई।
(9.) दलित समझी जाने वाली जातियों को नवजीवन
सन्तों के उपदेशों से भारत की दलित समझी जाने वाली जातियों में नवीन उत्साह तथा नवीन आशा जागृत हुई। भक्ति, प्रपत्ति और शरणागति के मार्ग का अवलम्बन करके हर वर्ग एवं हर जाति का मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता था। इस आन्दोलन ने भारतीय समाज में उच्च एवं निम्न जातियों के बीच बढ़ती हुई खाई को कम किया तथा हिन्दू समाज में नवीन आशा का संचार किया।
(10.) राष्ट्रीय भावना की जागृति
भक्ति आन्दोलन का राजनीतिक प्रभाव भी बहुत बड़ा पड़ा। इसी आन्दोलन के परिणामस्वरूप पंजाब तथा महाराष्ट्र में मुगल काल में राष्ट्रीय आन्दोलन आरम्भ हुए। इस आन्दोलन को पंजाब में गुरु गोविन्दसिंह ने और महाराष्ट्र में शिवाजी ने चलाया था। यह प्रभाव ब्रिटिश शासन काल में भी चलता रहा।