Thursday, November 21, 2024
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अध्याय-32 – भारत का मध्य-कालीन भक्ति आंदोलन (स)

चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु, महाप्रभु वल्लभाचार्य के समकालीन थे। चैतन्य का जन्म ई.1486 में कलकत्ता से 75 मील उत्तर में स्थित नवद्वीप अथवा नादिया ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उस समय मुसलमानों के आतंक से भयभीत वैष्णव-भक्त बंगाल से भागकर नवद्वीप में शरण ले रहे थे। इस कारण नवद्वीप में वैष्णव-भक्ति की धारा अबाध गति से बह रही थी।

चैतन्य ने संस्कृत, व्याकरण और काव्य का अध्ययन करने के बाद भागवत पुराण तथा अन पुराणों का अध्ययन किया। उनके बड़े बड़े भाई विष्णुरूप ने बहुत कम आयु में ही सन्यास ले लिया था, इसलिए उनकी माता ने बाल्यकाल में ही चैतन्य का विवाह कर दिया। जब चैतन्य 11 वर्ष के हुए तो उनके पिता का देहान्त हो गया। पिता के पिण्डदान और श्राद्ध के लिए ई.1505 में चैतन्य को गया जाना पड़ा।

वहाँ उनकी भेंट ईश्वरपुरी नामक सन्यासी से हुई। चैतन्य उनके शिष्य हो गए। इसके बाद चैतन्य गृहस्थ जीवन से विरक्त होकर कृष्ण-भक्ति में लीन रहने लगे। चैतन्य ने वेदों और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया किंतु उनसे चैतन्य की जिज्ञासा शान्त हुई तो उन्होंने भक्ति तथा प्रेम के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग अपनाया। 24 वर्ष की आयु में वे केश्व भारती से दीक्षा लेकर सन्यासी हो गए। सन्यास लेने के बाद आठ वर्ष तक चैतन्य ने देश का भ्रमण किया।

वे सर्वप्रथम नीलांचल गए और इसके बाद दक्षिण भारत के श्रीरंग क्षेत्र एवं सेतुबंध आदि स्थानों पर रहे। उन्होंने देश के कोने-कोने में जाकर हरिनाम की महत्ता का प्रचार किया। ई.1515 में विजयादशमी के दिन चैतन्य ने अपनी विशाल शिष्य मण्डली के साथ वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। ये वन के रास्ते ही वृंदावन को चले।

कहा जाता है कि चैतन्य के हरिनाम उच्चारण से वशीभूत होकर वन्यपशु भी नाचने लगते थे। शेर, बाघ और हाथी आदि भी इनके आगे प्रेमभाव से नृत्य करते चलते थे। कार्तिक पूर्णिमा को चैतन्य अपने शिष्यों सहित वृंदावन पहुँचे। वृंदावन में आज भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन गौरांग-आगमनोत्सव मनाया जाता है।

वृंदावन में महाप्रभु ने इमली-तला और अक्रूर-घाट पर निवास किया तथा जन साधारण के समक्ष प्राचीन श्रीधाम वृंदावन की महत्ता प्रतिपादित कर लोगों की सुप्त भक्ति-भावनाओं को जागृत किया। वृंदावन से महाप्रभु प्रयाग गए। वहाँ कुछ काल तक निवास करने के पश्चात् महाप्रभु ने काशी, हरिद्वार, शृंगेरी (कर्नाटक), कामकोटि पीठ (तमिलनाडु), द्वारिका, मथुरा आदि तीर्थों में भगवद्नाम संकीर्तन किया। 

उनका मानना था कि ईश्वर कई रूप धारण करता है परन्तु उनमें सबसे मोहक और आकर्षक रूप श्रीकृष्ण का है। वे कृष्ण को ईश्वर का अवतार न मान कर ईश्वर मानते थे। उनके विचार से सबसे ऊँची भक्ति और प्रेम का घनिष्ठ स्वरूप पति-पत्नी के सम्बन्ध में होता है जिसमें किसी प्रकार का व्यापार नहीं होता और न उस प्रेम की कोई सीमा नहीं होती। इसलिए राधा और कृष्ण की कल्पना की गई है।

कृष्ण परम-ब्रह्म हैं और उनके भक्त राधा स्वरूप हैं। इसलिए भक्त का कृष्ण के प्रेम में विह्वल होना स्वाभाविक है। चैतन्य आत्मविभोर होकर अपना अस्तित्त्व भूल जाते थे और कृष्ण में लीन हो जाते थे।

चैतन्य ने भगवान की भक्ति के लिए संगीत और नृत्य का सहारा लिया जो संकीर्तन कहलाता था। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य बजाकर, नृत्य करते हुए उच्च स्वर में हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया- ‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे।’

उनकी संकीर्तन पद्धति मथुरा-वृन्दावन से लेकर पूर्वी-बंगाल तक व्यापक रूप से लोकप्रिय हो गई। इसमें भक्तजन समूह में संकीर्तन करते थे। चैतन्य और उनके अनुयाई सार्वजनिक मार्गों पर भजन-कीर्तन करते हुए नाचते-गाते थे और अर्द्ध-मूर्च्छित स्थिति में पहुँच जाते थे। स्वयं चैतन्य भी भक्ति के आवेश में मूर्च्छित और समाधिस्थ हो जाते थे।

चैतन्य ने लोगों को कृष्ण-भक्ति का मन्त्र दिया। कृष्ण-भक्ति एवं कीर्तन का प्रचार उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था। उनके निर्मल चरित्र एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार से असंख्य लोग उनके अनुयाई बन गए।

चैतन्य का धर्म रस्मों और आडम्बरों से मुक्त था। उन्होंने परमात्मा में पूर्ण आस्था रखने का उपदेश दिया। उनकी उपासना का स्वरूप प्रेम, भक्ति, कीर्तन और नृत्य था। प्रेमावेश में ही भक्त परमात्मा से साक्षात्कार का अनुभव करता है। चैतन्य का कहना था कि यदि कोई जीव कृष्ण पर श्रद्धा रखता है, अपने गुरु की सेवा करता है तो वह मायाजाल से मुक्त होकर कृष्ण के चरणों को प्राप्त करता है। चैतन्य ने ज्ञान के स्थान पर प्रेम और भक्ति को प्रधानता दी।

उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों से पृथक् रहने का उपदेश दिया। वे मूर्ति-पूजा और धर्मग्रन्थों के विरोधी नहीं थे परन्तु उन्हें कर्मकाण्ड तथा आडम्बरों से घृणा थी। चैतन्य के अनुसार समस्त लोग समान रूप से ईश्वर की भक्ति कर सकते हैं। भक्ति मार्ग में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं होता, समस्त भक्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणाश्रित होने के अधिकारी हैं।

चैतन्य और उनके अनुयाइयों ने मुसलमानों एवं निम्न जातियों के लोगों को भी कृष्ण-भक्ति का उपदेश दिया। चैतन्य के प्रभाव से शूद्रों को भी भक्ति का अधिकार मिल गया। चैतन्य ने अपने ‘शिक्षाष्टक’ में कृष्ण-भक्ति के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनके अनुसार भक्ति का प्रथम और प्रमुख साधन ‘हरिनाम संकीर्तन’ है।

चैतन्य महाप्रभु बंगाल के सबसे बड़े धर्म-सुधारक थे। उनके विचार में केवल कर्म से कुछ नहीं होता। मोक्ष प्राप्ति के लिए हरि-भक्ति तथा उनका गुण-गान करना आवश्यक है। प्रेम तथा लीला इस सम्प्रदाय की विशेषताएँ हैं। चैतन्य सम्प्रदाय, निम्बार्काचार्य की भांति भेदाभेद के सिद्धान्त को मानते थे अर्थात् जीवात्मा एक दूसरे से भिन्न तथा अभिन्न दोनों है। केवल भक्ति के बल से ही मानव की आत्मा श्रीकृष्ण तक पहुँच सकती है। मनुष्य की आत्मा ही राधा है। उसे श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन रहना चाहिए। दास, मित्र, पत्नी तथा पुत्र के रूप में श्रीकृष्ण से प्रेम करना मानव जीवन का प्रधान लक्ष्य है।

चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष जगन्नाथ पुरी में व्यतीत किए। वे जीवन के अन्तिम बारह वर्ष में कृष्ण-विरह में व्याकुल रहा करते थे और हर समय उनके नेत्रों से आँसू बहा करते थे। उनके भक्त उन्हें कृष्ण की प्रेम-लीलाएँ सुना-सुना कर सान्त्वना दिया करते थे। ई.1533 में 47 वर्ष की अल्पायु में रथयात्रा के दिन चैतन्य भक्ति के उन्माद में समुद्र में घुस गए तथा उनका शरीर पूरा हो गया।

बंगाल, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर प्रदेश की प्रजा पर चैतन्य महाप्रभु की संकीर्तन भक्ति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी मृत्यु के पश्चात् वृन्दावन के गोस्वामियों ने चैतन्य के सिद्धान्तों और संकीर्तन-पद्धति को व्यवस्थित रूप प्रदान किया तथा चैतन्य-सम्पद्राय की स्थापना की। इस सम्प्रदाय को गौड़ीय सम्प्रदाय भी कहा जाता है। वृन्दावन के गोस्वामी, चैतन्य को अपना प्रभु मानते थे परन्तु नादिया ग्राम के अनुयाई उन्हें कृष्ण का अवतार मानने लगे और गौरांग महाप्रभु के रूप में स्वयं चैतन्य की पूजा होने लगी।

कबीर

रामानन्द के शिष्यों में कबीर का नाम अग्रण्य है। उनका जन्म ई.1398 में काशी में एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से हुआ। माता द्वारा लोकलाज के कारण त्याग दिये जाने से कबीर नीरू नामक मुसलमान जुलाहे के घर में पलकर बड़े हुए। उनकी पत्नी का नाम लोई था। उससे उन्हें एक पुत्र कमाल और पुत्री कमाली हुई।

कबीर ने विधिवत् शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। बड़े होने पर वे रामानन्द के शिष्य बन गए। कबीर ने घर-गृहस्थी में रहते हुए भी मोक्ष का मार्ग सुझाया। उन्हें हिन्दू-मुस्लिम दोनों के धर्मग्रन्थों का ज्ञान था। कबीर बहुत बड़े धर्म-सुधारक थे। वे अद्वैतवादी थे तथा निर्गुण-निराकार ब्रह्म के उपासक थे। वे जाति-पाँति, छुआछूत, ऊँच-नीच आदि भेदभाव नहीं मानते थे।

वे मूर्ति-पूजा और बाह्याडम्बर के आलोचक थे। उनके शिष्यों में हिन्दू तथा मुसमलान दोनों ही बड़ी संख्या में थे। इसलिए उन्होंने हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों को पाखण्ड तथा आडम्बर छोड़कर ईश्वर की सच्ची भक्ति करने का उपदेश दिया तथा उनकी बुराइयों की खुलकर आलोचना की-

जो तू तुरक-तुरकणी जाया, भीतर खतना क्यों न कराया!

जो तू बामन-बमनी जाया, आन बाट व्है क्यों नहीं आया।

कबीर ने कुसंग, झूठ एवं कपट का विरोध किया। उनके अनुसार जिस प्रकार लोहा पानी में डूब जाता है उसी प्रकार कुसंग के कारण मनुष्य भी भवसागर में डूब जाएगा। कबीर का मानना था कि मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु ‘काम’ है और ‘स्त्री’ काम को बढ़ाती है। इसलिए उन्होंने स्त्री को ‘कामणि काली नागणी’ अर्थात् जादू करने वाली काली सर्पिणी कहा।

कबीर ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों के अर्थहीन आडम्बरों और रस्मों का खण्डन किया। वे हिन्दुओं के छाप-तिलक एवं मूर्ति-पूजा के विरोधी थे तथा उन्होंने मुसलमानों की नमाज, रमजान के उपवास, मकबरों और कब्रों की पूजा आदि की भी आलोचना की उन्होंने मुसलमानों से कहा कि यदि तुम्हारे हृदय में भक्ति-भावना का उदय नहीं होता तो हजयात्रा से कोई लाभ नहीं है। कबीर ने एकेश्वरवाद एवं प्रेममयी भक्ति पर जोर दिया।

कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से प्रसिद्ध है। बीजक के तीन भाग है- (1.) रमैनी, (2.) सबद, और (3.) साखी। कबीर की भाषा सधुक्कड़ी अथवा खिचड़ी कहलाती है जिसमें खड़ी बोली, अवधी, ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी, इत्यादि अनेक भाषाओं का मिश्रण है। उनकी भाषा साहित्यिक न होने पर भी प्रभावशाली है। कबीर ने ईश्वर के निर्गुण-निराकार रूप की पूजा की। उनका राम दशरथ-पुत्र राम न होकर अजन्मा, सर्वव्यापी एवं घट-घट वासी राम था। उनका राम समस्त गुणों से परे था। वे कहते हैं-

कोई ध्यावे निराकार को, काई ध्यावे आकारा।

वह तो इन छोड़न तै न्यारा, जाने जानन हारा।

ई.1518 में कबीर का निधन हुआ। इस प्रकार उनकी आयु 120 वर्ष मानी जाती है। समाज की निम्न समझी जाने वाली जातियों पर कबीर के उपदेशों का बड़ा प्रभाव पड़ा। उनके अनुयाई कबीर-पंथी कहलाए। आगे चलकर उनके शिष्यों ने उन्हें भगवान का अवतार मान लिया। 

भक्त रैदास

भक्त रैदास का जन्म काशी के एक चमार परिवार में हुआ। वे रामानन्द के बारह प्रमुख शिष्यों में से थे। वे विवाहित थे तथा जूते बनाकर अपनी जीविका चलाते थे। रैदास तीर्थयात्रा, जाति-भेद, उपवास आदि के विरोधी थे। हिन्दू तथा मुसलमानों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं मानते थे। वे निर्गुण भक्ति में विश्वास रखते थे। उनमें ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना स्पष्ट झलकती है।

श्री हरि चरणों का अनन्य आश्रय ही उनकी साधना का प्राण है। उनके प्रभाव के कारण निम्न जातियों के लोगों में भगवद्-भक्ति में आस्था उत्पन्न हुई। रैदास के शिष्यों ने ‘रैदासी सम्प्रदाय’ प्रारम्भ किया। मेवाड़ राजपरिवार की रानी मीरांबाई उन्हें अपना गुरु मानती थी।

गुरु नानक

पंजाब के सन्तों में गुरु नानक का नाम अग्रणी है। उनका जन्म ई.1469 में लाहैर से 50 किलोमीटर दूर तलवण्डी गांव के खत्री परिवार में हुआ। उनके पिता कालू ग्राम के पटवारी थे। नानक विवाहित थे तथा उनके दो पुत्र भी हुए किंतु बाद में साधु-संतों की संगत में रहने लगे। वे निर्गुण-निराकार ईश्वर की पूजा करते थे।

नानक एकेश्वरवादी थे और ऊँच-नीच, हिन्दू-मुस्लिम तथा जाति-पाँति के भेद को नहीं मानते थे। वे मूर्ति-पूजा तथा तीर्थ-यात्रा के भी घोर विरोधी थे। सिक्ख धर्म के अनुसार मनुष्य को सरल तथा त्यागमय जीवन व्यतीत करना चाहिए। नानक का कहना था कि संसार में रहकर तथा सुन्दर गृहस्थ का जीवन व्यतीत करके भी मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। नानक पर सूफी मत का अधिक प्रभाव था तथा वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे और उनके झगड़ों को बेइमानों का काम बताते थे-

बन्दे इक्क खुदाय के, हिन्दू मुसलमान।

दावा राम रसूल का,  लड़दे बेईमान।।

नानक ने अपने हिन्दू शिष्यों से कहा कि- ‘मैंने चारों वेद पढ़े, अड़सठ तीर्थों पर स्नान किया, वनों और जंगलों में निवास किया और सातों ऊपरी एवं निचली दुनियाओं का ध्यान किया और इस नतीजे पर पहुँचा कि मनुष्य चार कर्मों द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकता है- भगवान से भय, उचित कर्म, ईश्वर तथा उसकी दया में विश्वास और एक गुरु में विश्वास जो उचित मार्गदर्शन कर सके।’

नानक ने अपने मुसलमान शिष्यों से कहा- ‘दया को अपनी मस्जिद मानो, भलाई एवं निष्कपटता को नमाज की दरी मानो, जो कुछ भी उचित एवं न्याय-संगत है, वही तुम्हारी कुरान है। नम्रता को अपनी सुन्नत मानो, शिष्टाचार को रोजा मानो। इससे तुम मुसलमान बन जाओगे।’

उन्होंने पाँचों नमाजों की व्याख्या करते हुए कहा- ‘पहली नमाज सच्चाई, दूसरी इन्साफ, तीसरी दया, चौथी नेक-नियति और पाँचवीं नमाज अल्लाह की बंदगी है।’

नानक ने विभिन्न स्थानों का भ्रमण करके अपनी शिक्षाओं का प्रसार किया। नानक के शिष्यों ने सिक्ख धर्म की स्थापना की। वे सिक्ख धर्म के पहले गुरु माने जाते हैं। उनकी शिक्षाएँ आदि ग्रन्थ में पाई जाती हैं जो आगे चलकर गुरु ग्रंथ साहब कहलाया।

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