भोपाल नवाब हमीदुल्ला खाँ का षड़यंत्र
भोपाल नवाब हमीदुल्ला खाँ छिपे तौर पर मुस्लिम परस्त, पाकिस्तान परस्त तथा कांग्रेस विरोधी के रूप में काम कर रहा था किंतु जब देश का विभाजन होना निश्चित हो गया तो तीसरे मोर्चे के नेता भोपाल नवाब ने अपनी मुट्ठी खोल दी और प्रत्यक्षतः विभाजनकारी मुस्लिम लीग के समर्थन में चला गया तथा जिन्ना का निकट सलाहकार बन गया। वह जिन्ना की उस योजना में सम्मिलित हो गया जिसके तहत राजाओं को अधिक से अधिक संख्या में या तो पाकिस्तान में मिलने के लिये प्रोत्साहित करना था या फिर उनसे यह घोषणा करवानी थी कि वे अपने राज्य को स्वतंत्र रखेंगे।
रियासती मंत्रालय के सचिव ए. एस. पई ने पटेल को एक नोटशीट भिजवायी कि भोपाल नवाब, जिन्ना के दलाल की तरह काम कर रहा है। भोेपाल नवाब शासक मंडल के चांसलर के महत्वपपूर्ण पद पर था, उसने नए वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन से कहा कि वह कांग्रेस से नफतरत करता है और कांग्रेस शासित भारत से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होगा। भारत के विभाजन के निश्चय से उसकी विध्वंसकारी गतिविधियां तेज हो गईं। उसने जोधपुर, इन्दौर और उदयपुर के शासकों को अपने साथ मिलाने की कोशिश की ताकि वह अपनी रियासत के लिए भौगोलिक निकटता पा सके और उसे पाकिस्तान के हवाले कर सके।
नवाब चाहता था कि भोपाल से लेकर कराची तक के मार्ग में आने वाले राज्यों का एक समूह बने जो पाकिस्तान में मिल जाये। इसलिये उन्होंने जिन्ना की सहमति से एक योजना बनायी कि बड़ौदा, इंदौर, भोपाल, उदयपुर, जोधपुर और जैसलमेर राज्य पाकिस्तान का अंग बन जायें। इस योजना में सबसे बड़ी बाधा उदयपुर और बड़ौदा की ओर से उपस्थित हो सकती थी। महाराजा जोधपुर ने उक्त रियासतों से सहमति प्राप्त करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। इस प्रकार भारत के टुकड़े-टुकड़े करने का एक मानचित्र तैयार हो गया।
धौलपुर के राजराणा षड़यंत्र में सम्मिलित
भोपाल रियासत के नवाब हमीदुल्ला खाँ ने धौलपुर के महाराजराणा उदयभानसिंह को हिन्दू रियासतों को पाकिस्तान में मिलाने की योजना में सम्मिलित कर लिया। उदयभानसिंह जाटों की प्रमुख रियासत के बहुपठित, बुद्धिमान एवं कुशल राजा माने जाते थे किंतु वे किसी भी कीमत पर धौलपुर को भारत संघ में मिलाने को तैयार नहीं थे।
इसलिए वे जिन्ना के चक्कर में आ गए। जिन्ना के संकेत पर नवाब तथा महाराजराणा ने जोधपुर, जैसलमेर, उदयपुर तथा जयपुर आदि रियासतों के राजाओं से बात की तथा उन्हें जिन्ना से मिलने के लिये आमंत्रित किया। नवाब का साथ देने वाले हिंदू राजाओं में अलवर महाराजा भी थे।
अलवर राज्य में पाकिस्तान में सम्मिलित होने का प्रचार
भोपाल नवाब का साथ करने वाले हिंदू राजाओं में अलवर महाराजा भी थे, यह बात बम्बई के उनके भाषण से स्पष्ट हो गई थी। अर्थात् एक तरफ से अलवर राज्य में लीग की राजनीति का प्रचार हो रहा था और दूसरी तरफ राज्य के राजपूत सरदारों, जमींदारों द्वारा प्रचार किया जा रहा था कि अलवर राज्य को न हिन्दी संघराज्य में मिलना चाहिए और न पाकिस्तान में। राज्य को अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखना चाहिए।
उसमें भी कतिपय विशिष्ट स्वार्थ-सम्बद्ध लोगों ने महाराज के मन में इस बात को जमा दिया था कि हिन्दी संघ राज्य में तो अलवर को कदापि शामिल नहीं होना चाहिए। इन सब चक्करों के कारण अलवर राज्य हिन्दी संघराज्य में शामिल होन के सम्बन्ध में निराश हो गया था।
खरे ने लिखा है कि यदि पूरे पंजाब को पाकिस्तान में शामिल करने की मुस्लिम लीग की मांग मान ली जाती तो अलवर राज्य की सीमा पाकिस्तान से मिल जाती किंतु पंजाब का विभाजन होने और पूर्वी पंजाब के भारत में रह जाने से यह संभावना समाप्त हो गई। अलवर नरेश फिर भी अपनी जिद पर पूर्ववत् दृढ़ रहा। 16-17 अप्रेल 1947 को ग्वालियर में अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजापरिषद् का सम्मेलन हुआ ।
इस सम्मेलन में महाराज अलवर ने नेहरू द्वारा देशी राज्यों को सम्बोधित करके कही गई कठोर घोषणाओं का उल्लेख करते हुए कहा-
‘जो लोग हमारा निःपात करने पर आज ही तुले हुए हैं, उन लोगों से हम क्यों सहयोग करें। कांग्रेस के इन नेताओं से हमें भय है। वे हमें नष्ट कर देंगे। इसके विपरीत मुस्लिम लीग वाले हमें निश्चित आश्वासन दे रहे हैं कि देशी राज्यों की स्वतंत्रता अबाधित रहेगी। इसलिए हम उन्हें ही क्यों न मिलें? इस विषय में धर्म का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। यद्यपि हम कट्टर हिन्दू हैं तथापि पाकिस्तान में मिलने से हमारे हिन्दुत्व पर क्या आंच आने वाली है?’
अलवर महाराजा अपने भाषणों में भले ही कुछ भी कहता रहा हो किंतु राज्य के प्रधानमंत्री द्वारा सरदार पटेल के साथ हुई बैठक के बाद 1 जुलाई 1947 को राज्य के मंत्रिमण्डल ने हिन्दी संघराज्य में शामिल होने का निर्णय लिया तथा उसी दिन तार एवं पत्र द्वारा हिन्दुस्थान सरकार को सूचित किया गया कि हिन्दी संघराज्य की संविधान समिति में अलवर राज्य के शामिल होने की प्रकट घोषणा की गई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता