मार्च 1528 में बाबर के आदेश से उसके सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में स्थित श्रीराम जन्मभूमि मंदिर को तोड़कर उसके स्थान पर एक ढांचा बनवाया तथा उसके बाहर फरिश्तों के उतरने का स्थान शब्दों से युक्त दो शिलालेख लगवाए जिनमें अपना और अपने बादशाह बाबर के नाम का उल्लेख किया।
18 सितम्बर 1528 को बाबर का पुत्र मिर्जा अस्करी मुल्तान से आकर बाबर की सेवा में उपस्थित हुआ। उसे बाबर ने ही बुलाया था। उन्हीं दिनों बाबर को सूचना मिली कि सिकंदर लोदी के पुत्र महमूद खाँ लोदी ने पुनः 10 हजार सैनिकों की एक सेना एकत्रित कर ली है और उसने बिहार पर अधिकार कर लिया है। बाबर ने 20 दिसम्बर 1528 को मिर्जा अस्करी तथा कुछ अमीरों को महमूद खाँ लोदी का दमन करने के लिए भेजा।
महमूद खाँ लोदी ने मिर्जा अस्करी की सेना को पराजित कर दिया। इस पर 20 जनवरी 1529 को बाबर स्वयं भी बिहार के लिए रवाना हो गया। उधर महमूद खाँ लोदी भी अपनी सेना के साथ गंगा नदी के किनारे-किनारे चुनार की ओर बढ़ा। 31 मार्च 1529 को बाबर चुनार पहुँच गया। बहुत से अफगान डरकर बाबर की शरण में आ गये और बहुत से अफगान बंगाल की ओर भाग गये। बाबर निरंतर आगे बढ़ता हुआ गंगा तथा कर्मनाशा नदी के संगम पर पहुँच गया।
बाबर ने अफगानों से अन्तिम संघर्ष करने का निश्चय किया। एक मई 1529 को बाबर ने गंगा नदी को पार कर लिया। तीन दिन बाद बाबर की सेना ने घाघरा नदी को पार करने का प्रयत्न किया किंतु अफगानों ने बाबर की सेना को रोकने का भरसक प्रयास किया। घाघरा नदी तिब्बत से निकलकर नेपाल होती हुई भारत में प्रवेश करती है तथा उत्तर प्रदेश एवं बिहार में प्रवाहित होती हुई बलिया एवं छपरा के बीच गंगाजी में मिल जाती है।
5 मई 1529 को घाघरा के तट पर अफगानों तथा मुगलों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध को भारत के इतिहास में घाघरा का युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध में बाबर ने अफगान सेना को चित कर दिया। बहुत से अफगान अमीर भयभीत होकर मैदान से भाग खड़े हुए। वस्तुतः इब्राहीम लोदी की मृत्यु के बाद अफगान अमीर अपने क्षेत्रों पर फिर से अधिकार करने के लिए बड़े-बड़े मंसूबे बांधते थे और बाबर के विरुद्ध सैनिक अभियान भी आरम्भ करते थे किंतु उनके पास बाबर की तोपों, तुफंगों, फिरंगियों और जर्जबानों का तोड़ नहीं था। इसलिए वे बाबर से एक भी युद्ध नहीं जीत पाए।
इन अफगानियों को अपने ही किए की सजा मिल रही थी। इनमें से किसी ने भी पानीपत के मैदान में अपने बादशाह इब्राहीम लोदी का साथ नहीं दिया था जिसके कारण एक विदेशी बादशाह को दिल्ली सल्तनत पर अधिकार करने का सहजता से ही अवसर प्राप्त हो गया था। अब पछताने से कुछ होने वाला नहीं था, बाबर रूपी चिड़िया दिल्ली सल्तनत रूपी दाना चुग चुकी थी।
बाबर ने महमूद खाँ लोदी को परास्त करने के बाद बंगाल के शासक नसरतशाह को संधि करने के लिये विवश किया। नसरतशाह ने बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा भविष्य में विद्रोह नहीं करने का वचन दिया। यह बाबर की भारत में चौथी तथा अन्तिम विजय थी
अब तक बाबर ने पानीपत के मैदान में इब्राहीम लोदी को, खानवा के मैदान में महाराणा सांगा को, चंदेरी के युद्ध में मेदिनी राय को तथा घाघरा के तट पर महमूद खाँ लोदी को परास्त करके सिंधु नदी से लेकर गंगा और सोन नदी के संगम तक स्थित विशाल भूभाग को अपने अधीन कर लिया था। पंजाब से लेकर दिल्ली, मेवात, आगरा, अवध, कन्नौज, बिहार और बंगाल के सम्पन्न क्षेत्र अब बाबर के चरणों में लोटते थे।
सिंधु, रावी, चिनाब, झेलम, सतलुज और व्यास के तटों पर स्थित धान के कटोरे, गंगा-यमुना के मैदानों में पेरे जाने वाले गन्नों के कोल्हू, कपास और नील के खेत, यमुना-तट की गायें, उनके स्तनों से बहने वाली दूध की अमल-धवल धाराएं, सरयू से लेकर सोन, घाघरा से लेकर कर्मनाशा और जूट पैदा करने वाली बंगाल की वसुंधरा, सब कुछ उस निर्धन बाबर के अधिकार में चले गए थे जो एक दिन दिखकाट की बुढ़िया के घर की लकड़ियां चीरकर पेट भरने को विवश हुआ था।
पाठकों को स्मरण होगा कि समरकंद से निकाले जाने के बाद बाबर जूतों की जगह पशुओं का चमड़ा पैरों पर लपेटता था और बदन पर ऊनी कम्बल से बना लबादा पहनता था। उसकी सेना के पास हथियारों के नाम पर मोटी-मोटी लकड़ियां थीं। अब बाबर की पगड़ी में दुनिया का सबसे कीमती हीरा जगमगाता था जिसे वह कोहिनूर कहता था। दिल्ली और आगरा के भव्य महल और किले बाबर के रहने के मकान बनकर रह गए थे। ग्वालियर, कालिंजर और चंदेरी के दुर्गम किले बाबर के समक्ष शीश झुकाए बैठे थे।
जिस बाबर को कभी काबुल, कांधार और गजनी जैसे निर्धन और अनुपजाऊ प्रदेशों पर संतोष करना पड़ता था, अब वही बाबर दिल्ली, आगरा, बदायूं, चंदेरी और कन्नौज जैसे अनगिनत समृद्ध नगरों का स्वामी था।
बाबर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि सांगा के बाद उसका पुत्र रत्नसिंह चित्तौड़ का स्वामी हो गया था और सांगा का दूसरा पुत्र विक्रमाजीत अपनी माता पद्मावती (कर्मवती) के साथ रणथंभौर के किले में रहता था। जब सांगा जीवित था तब उसने माण्डू के सुल्तान महमूद खिलजी को परास्त करके उससे रत्नजटित सोने की पेटी एवं रत्ननजटित सोने का मुकुट प्राप्त किया था। इस समय वे दोनों वस्तुएं विक्रमाजीत की माता पद्मावती के पास थीं। राणा रत्नसिंह इन दोनों चीजों की मांग कर रहा था किंतु विक्रमाजीत ये दोनों वस्तुएं अपने सौतेले बड़े भाई रत्नसिंह को देने को तैयार नहीं था।
बाबर ने लिखा है कि 29 सितम्बर 1528 को विक्रमाजीत ने अपने एक सम्बन्धी अशोक को मेरे पास भेजकर कहलवाया कि विक्रमाजीत बाबर की अधीनता स्वीकार करने को तथा महमूद के रत्नजटित कमरपेटी एवं मुकुट बाबर को देने को तैयार है यदि विक्रमाजीत को 70 लाख रुपए की जीविकावृत्ति दी जाए।
इस पर बाबर ने विक्रमाजीत से कहलवाया कि यदि विक्रमाजीत रणथंभौर का किला बाबर को समर्पित कर दे तो विक्रमाजीत को उसकी इच्छानुसार परगने दिए जाएंगे। इस पर विक्रमाजीत ने प्रस्ताव भिजवाया कि वह रणथंभौर के स्थान पर बयाना का किला दे सकता है। बाबर ने इस सम्बन्ध में आगे और कुछ नहीं लिखा है। संभवतः यह वार्त्ता आगे नहीं बढ़ पाई।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता