इस्लाम के सिद्धांत
कुरान के अनुसार प्रत्येक मुसलमान के पांच कर्त्तव्य हैं- कलमा, नमाज, जकात, रमजान तथा हज।
(1.) कलमा: कलमा अरबी भाषा के ‘कलम’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- शब्द। कलमा का अर्थ होता है- ‘अल्लाह का वाक्य’ अर्थात् जो कुछ अल्लाह की ओर से लिखकर आया है, कलमा है- ‘ला इलाह इल्लिलाह मुहम्मदुर्रसूलिल्लाह।’
(2.) नमाज: नमाज का अर्थ खिदमत या बंदगी करना है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है- नम तथा आज। ‘नम’ का अर्थ होता है ठण्डा करने वाली या मिटाने वाली और ‘आज’ का अर्थ होता है वासनाएँ अथवा बुरी इच्छाएँ। इस प्रकार नमाज उस प्रार्थना को कहते हैं जिससे मनुष्य की बुरी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं।
नमाज दिन में पाँच बार पढ़ी जाती है- प्रातःकाल, दोपहर, तीसरे पहर, संध्या समय तथा रात्रि में। शादी, गमी, यात्रा, लड़ाई, बेकारी आदि समस्त परिस्थितियों में नमाज पढ़ी जा सकती है। नमाज किसी भी परिस्थिति में मुआफ नहीं हो सकती किंतु नाबालिक बच्चों और पागलों पर नमाज फर्ज नहीं है। शुक्रवार को समस्त मुसलमान मस्जिद में इकट्ठे होकर नमाज पढ़ते हैं। नमाज से पहले ‘वुजू’ करना (हाथ, पांव, मुंह आदि धोना) अनिवार्य है।
(3.) जकात: जकात का शाब्दिक अर्थ होता है- ज्यादा होना या बढ़ना परन्तु इसका व्यावहारिक अर्थ होता है भीख या दान देना। चूंकि भीख या दान देने से धन बढ़ता है इसलिए जो धन दान दिया जाता है उसे जकात कहते हैं। प्रत्येक मुसलमान को अपनी आय का चालीसवाँ हिस्सा खुदा की राह में, अर्थात् दान में दे देना चाहिए।
(4.) रोजा: चाँद का नौवाँ महीना ‘रमजान’ होता है जो अरबी भाषा के रमज शब्द से बना है। इसका अर्थ है शरीर के किसी अंग को जलाना। चूंकि इस महीने में रोजा या व्रत रखकर शरीर को जलाया जाता है इसलिए इसका नाम रमजान रखा गया है।
रोजा में सूर्य निकलने के बाद और सूर्यास्त के पहले खाया-पिया नहीं जाता। रोजा रखने से बरकत (वृद्धि) होती है और कमाई बढ़ती है। रोजा के लिए रमजान का महीना इसलिए चुना गया क्योंकि इसी महीने में कुरान उतरा था। रोगी एवं यात्री के लिए रमजान के महीने में रोजा रखना अनिवार्य नहीं है। वे बाद में उतने ही दिन रोजा रख सकते हैं।
(5.) हज: हज का शाब्दिक अर्थ है इरादा परन्तु इसका व्यावहारिक अर्थ है- मक्का में जाकर बन्दगी करना। प्रत्येक मुसलमान का यह धार्मिक कर्त्तव्य है कि वह अपने जीवन में कम से कम एक बार मक्का जाकर बन्दगी करे। जिल्हज (बकरीद माह) की नौवीं तारीख को ‘अरफात’ (एक स्थान का नाम) के मैदान में उपस्थित होना भी अनिवार्य है।
अल्लाह
अल्लाह शब्द अरबी के ‘अलह’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- पाक या पवित्र, जिसकी पूजा करनी चाहिए। अल्लाह के सिवाय किसी और की पूजा नहीं की जानी चाहिए। इस्लाम बहुदेववाद के साथ-साथ मूर्ति-पूजा और प्रकृति पूजा का भी विरोध है। वह ईसाइयों द्वारा प्रतिपादित ईश्वर-त्रय (पिता, पुत्र एवं पवित्र आत्मा) के सिद्धांत का भी विरोधी है।
वह ईसा को पैगम्बर तो मानता है किंतु ईश्वर का पुत्र नहीं, क्योंकि ईश्वर में पुत्र उत्पन्न करने वाले गुणों को जोड़ना उसे मनुष्य की श्रेणी में ले जाना है। कुरान में बार-बार कहा गया है- ‘यदि ईश्वर को सन्तानोत्पादक कहोगे तो आकाश फट जाएगा और धरती उलट जाएगी।’ कुरान की मान्यता है कि अल्लाह अर्श (आकाश) पर रहता है और वहाँ उसका सिंहासन भी है। वह निराकार, असीम शक्ति का स्वामी तथा प्रेम और दया का सागर है। वह लोगों को क्षमा करता है।
फरिश्ता
इस्लाम में देवों को ‘मलक’ तथा देवदूतों को ‘फरिश्ता’ कहते हैं। फरिश्ते वे पवित्र आत्माएँ हैं, जो अल्लाह तथा मनुष्य में सामीप्य स्थापित करती हैं। अल्लाह के पास से पैगाम लेकर जो फरिश्ता हजरत मुहम्मद के पास उतरा था, उसका नाम जिबराइल था। हजरत मुहम्मद जिबराइल को चर्म-चक्षु से नहीं, अपनी आध्यात्मिक दृष्टि से देखते थे।
शैतान एवं जिन्न
शैतान भी देवताओं की तरह मलक-योनी का है किन्तु कुरान शैतान में विश्वास रखने की मनाही करता है। कुरान के अनुसार नीच वासनाएं मनुष्य के पतन का मार्ग प्रशस्त करती हैं। ‘जिन्न’ नीच वासनाओं को उभारने का काम करते हैं। कुरान में ‘इबलीस’ नामक जिन्न का उल्लेख है जो मनुष्यों को गुमराह करने की कोशिश करता है। अतः उससे बचना चाहिए।
कमायत
अरबी के कयम शब्द से ‘कयामत’ बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है- खड़ा होना तथा व्यावहारिक अर्थ है- दुनिया का मिट जाना। कुरान के अनुसार पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म पहला और आखिरी जन्म है। इस जीवन के समाप्त हो जाने पर, मनुष्य की देह कब्र में दफनाई जाती है। तब भी उसकी आत्मा एक भिन्न प्रकार के कब्र में जीवित पड़ी रहती है और इसी आत्मा को कयामत के दिन उठकर अल्लाह के समक्ष जाना पड़ता है।
कुरान में कयामत का वर्णन इस प्रकार से किया गया है- ‘जब कयामत आएगी, चांद में रोशनी नहीं रहेगी, सूरज और चांद सटकर एक हो जाएंगे और मनुष्य यह नहीं समझ सकेगा कि वह किधर जाए और ईश्वर को छोड़़कर अन्यत्र उसकी कोई भी शरण नहीं होगी ……. जब तारे गुम हो जाएंगे, आकाश टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा, पहाड़ों की धूल उड़ जाएगी और नबी अपने निर्धारित क्षण पर पहुँचेंगे ……. न्याय का दिन जरूर आएगा, जब सुर (तुरही) की आवाज उठेगी,
जब तुम सब उठकर झुण्ड के झुण्ड आगे बढ़ोगे और स्वर्ग के दरवाजे खुल जाएंगे ……. कयामत के दिन समस्त आत्माएं अल्लाह के समक्ष खड़ी होंगी और मुहम्मद उनके प्रवक्ता होंगे। तब, प्रत्येक रूह के पुण्य और पाप का लेखा-जोखा लिया जाएगा। पुण्य और पाप को तौलने का काम जिबराइल करेंगे। जिसका पुण्य परिणाम में अधिक होगा, वह जन्नत (स्वर्ग) में जाएगा। जिनके पाप अधिक होंगे, वे दोज़ख (नर्क) में पड़ेंगे।’
जन्नत और दोज़ख
कुरान के अनुसार जन्नत (स्वर्ग) सातवें अर्श (आकाश) पर स्थित है। उसमें एक रमणीय उद्यान है जहाँ झरने और फव्वारे हैं। दूध और शहद की नदियां बहती हैं। वृक्षों के तने स्वर्ण के हैं और उनमें स्वादिष्ट फल लगते हैं। स्वर्ग में ‘हूर-यूल-आयून’ जाति की सत्तर युवतियां हैं जिनकी आंखें काली और बड़ी हैं। पुण्यात्माओं की सेवा करने के लिए ‘गिलमा’ जाति के सुन्दर लड़के रहते हैं। इसके विपरीत दोज़ख की कल्पना अत्यंत भयानक तथा विकराल रूप में की गई है। कुरान के अनुसार जन्नत के सुख केवल पुरुषों के लिए हैं, स्त्रियों के लिए नहीं।
कर्मफलवाद में विश्वास
इस्लाम भी कर्मफल के सिद्धांत में विश्वास करता है। कुरान के अनुसार अच्छे और बुरे कर्मों का परिणाम अवश्य मिलेगा। जिसने भी कण-मात्र सुकर्म किया है, वह भी अपनी आंखों से देखेगा। कयामत के बाद स्वर्ग और नर्क का निर्णय इसी जन्म में किए गए कर्मों के फलानुसार ही होता है। कुरान कहता है- ‘अगर तुम ज्ञान से देखते तो तुम यहीं नर्क को भी देख सकते थे।’ कुरान के अनुसार मनुष्य जीवन का लक्ष्य ‘लिका-अल्लाह’ (ईश्वर मिलन) है। यह मिलन सम्भवतः सुकर्मों से ही सम्भव हो सकता है।
नैतिक सिद्धान्त
इस्लाम के नैतिक सिद्धान्त उसका मानवीय स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। प्रत्येक मुसलमान से न्यायप्रिय होने, भलाई का बदला भलाई से और बुराई का बदला बुराई से चुकाने, उदारता दिखाने, गरीबों की मदद करने की अपेक्षा की जाती है। इस्लाम में वैवाहिक सम्बन्धों पर पितृसत्तात्मक जीवन पद्धति की छाप है। अल्लाह ने स्त्री को पुरुष के लिए बनाया है। उसे पुरुष से दबकर रहना चाहिए।
साथ ही कुरान में स्त्रियों के मानवीय अधिकारों को भी मान्यता दी गई है। पति द्वारा पत्नी से अनावश्यक क्रूर व्यवहार किए जाने की भी निन्दा की गई है। स्त्रियों को स्त्री-धन रखने का अधिकार और दयाधिकार प्राप्त हैं। कुरान के अनुसार अल्लाह के सामने समस्त मुसलमान बराबर हैं। अमीरी और गरीबी प्राकृतिक चीजें हैं जिन्हें स्वयं अल्लाह ने बनाया है। गरीबों के निर्वाह के लिए इस्लाम में जकात दिए जाने की व्यवस्था है।
कुरान मनुष्य की निजी सम्पत्ति का समर्थन करता है। व्यापारिक मुनाफे को उचित मानता है जबकि सूदखोरी की निन्दा की गई है- ‘बेचने (व्यापारी) को तो अल्लाह ने हलाल (जाइज) किया है और सूद (ब्याज) को हराम (नाजाइज)।’ कर्जदार को बन्धुआ बनाने का निषेध है।
मुसलमानों पर यहूदी परम्पराओं का प्रभाव
यहूदी धर्म, इस्लाम से पुराना है। यहूदियों की कुछ परम्पराएं मुसलमानों ने भी अपना लीं। यहूदियों की तरह मुसलमानों में भी लड़कों का अनिवार्यतः खतना किया जाता है। अन्तर यह है कि मुसलमान, लड़के का खतना सामान्यतः सात से दस वर्ष की आयु में करते हैं जबकि यहूदी, जन्म के कुछ समय बाद। सूअर का मांस न खाना भी मुसलमानों ने यहूदियों से अपनाया है। दोनों ही धर्मों में ईश्वर, मनुष्यों एवं पशुओं की मूर्ति या चित्र बनाना एवं मूर्ति-पूजा करना वर्जित है। दोनों धर्मों में शराब पीना वर्जित है।
शिया सम्प्रदाय
इस्लाम के अनुयाई दो सम्प्रदायों में विभक्त हैं- शिया और सुन्नी। ‘शिया’ का शाब्दिक अर्थ होता है ‘गिरोह’ परन्तु व्यापक अर्थ में शिया उस सम्प्रदाय को कहते हैं जो हजरत मुहम्मद के दामाद ‘हजरत अली’ को हजरत मुहम्मद का वास्तविक उत्तराधिकारी मानता है, पहले तीन खलीफाओं को नहीं। शिया सम्प्रदाय का झण्डा काला होता है। शिया अनुश्रुतियों के अनुसार हज़रत अली और उनके दो पुत्र-हसन और इमाम हुसैन, दीन की खातिर शहीद हुए थे। उनकी शहादत की याद में शिया हर वर्ष मुहर्रम की दसवीं तारीख को ताजिये निकालते हैं।
सुन्नी सम्प्रदाय
‘सुन्ना’ को मानने वाले तथा अबूबक्र से खलीफाओं की गणना करने वाले ‘सुन्नी’ कहलाए। ‘सुन्नी’ शब्द अरबी के ‘सुनत’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ होता है- मुहम्मद के कामों की नकल करना। व्यावहारिक रूप में सुन्नी उस सम्प्रदाय को कहते है, जो प्रथम तीन खलीफाओं को ही हजरत मुहम्मद का वास्तविक उत्तराधिकारी मानता है, हजरत मुहम्मद के दामाद अली को नहीं। सुन्नी सम्प्रदाय का झण्डा सफेद होता है।