खलीफाओं का उत्कर्ष
‘खलीफा’ अरबी के ‘खलफ’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है- ‘लायक बेटा’ अर्थात् योग्य पुत्र परन्तु खलीफा का अर्थ है जाँ-नशीन या उत्तराधिकारी। हजरत मुहम्मद की मृत्यु के उपरान्त जो उनके उत्तराधिकारी हुए, वे खलीफा कहलाए। प्रारम्भ में खलीफा का चुनाव, हजरत मुहम्मद के अनुयाइयों की सहमति से होता था परन्तु बाद में यह पद आनुवंशिक हो गया।
हजरत मुहम्मद की मृत्यु के बाद हजरत मुहम्मद के ससुर अबूबकर प्रथम खलीफा चुने गए जो कुटम्ब में सर्वाधिक बूढ़े थे। अबूबकर के प्रयासों से मेसोपोटमिया तथा सीरिया में इस्लाम का प्रचार हुआ। अबूबकर के मर जाने पर 634 ई.में उमर को निर्विरोध खलीफा चुना गया। उमर ने इस्लाम के प्रचार में जितनी सफलता प्राप्त की उतनी सम्भवतः अन्य किसी खलीफा ने नहीं की।
उसने इस्लाम के अनुयाइयों की एक विशाल तथा योग्य सेना संगठित की और साम्राज्य विस्तार तथा इस्लाम प्रचार का कार्य साथ-साथ आरम्भ किया। जिन देशों पर उसकी सेना विजय प्राप्त करती थी वहाँ के लोगों को मुसलमान बना लेती थी और इस्लाम का प्रचार आरम्भ हो जाता था। इस प्रकार थोड़े ही समय में फारस, मिस्र आदि देशों में इस्लाम का प्रचार हो गया।
उमर के बाद उसमान खलीफा हुआ परन्तु थोड़े ही दिन बाद उसकी विलास-प्रियता के कारण उसकी हत्या कर दी गई और उसके स्थान पर हजरत मुहम्मद के दामाद अली को खलीफा चुना गया। कुछ लोगों ने उसका विरोध किया। इस प्रकार गृह-युद्ध आरम्भ हो गया और इस्लाम के प्रचार में भी शिथिलता आ गई। अन्त में अली का वध कर दिया गया।
अली के बाद उसका पुत्र हसन खलीफा चुना गया परन्तु उसमें इस पद को ग्रहण करने की योग्यता नहीं थी। इसलिए उसने इस पद को त्याग दिया। अब सीरिया का गवर्नर मुआविया, जो खलीफा उमर के वंश से था, खलीफा चुन लिया गया।
हसन ने मुआविया के पक्ष में खलीफा का पद इस शर्त पर त्यागा था कि खलीफा का पद निर्वाचित होगा, आनुवांशिक नहीं, परन्तु खलीफा हो जाने पर मुआविया के मन में कुभाव उत्पन्न हो गया और वह अपने वंश की जड़ जमाने में लग गया। उसने मदीना से हटकर दमिश्क को खलीफा की राजधानी बना दिया। चूंकि वह उमर के वंश का था, इसलिए दश्मिक के खलीफा उमैयद कहलाए।
मुआविया लगभग बीस वर्ष तक खलीफा के पद पर रहा। इस बीच में उसने अपने वंश की स्थिति अत्यन्त सुद्धढ़ बना ली। अली के पुत्र हसन के साथ उसने जो वादा किया था, उसे तोड़ दिया और अपने पुत्र यजीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इससे बड़ा अंसतोष फैला। इस अंसतोष का नेतृत्व अली के पुत्र तथा हसन के भाई इमाम हुसैन ने ग्रहण किया।
उसने अपने थोड़े से साथियों के साथ फरात नदी के पश्चिमी किनारे के मैदान में उमैयद खलीफा की विशाल सेना का बड़ी वीरता तथा साहस के साथ सामना किया। इमाम हुसैन अपने साथियों के साथ मुहर्रम महीने की दसवीं तारीख को तलवार के घाट उतार दिया गया। जिस मैदान में इमाम हुसैन ने प्राण त्यागे, वह कर्बला कहलाता है। कर्बला दो शब्दों से मिलकर बना है- कर्ब तथा बला। कर्ब का अर्थ होता है मुसीबत और बला का अर्थ होता है दुःख।
चूंकि इस मैदान में हजरत मुहम्मद की कन्या के पुत्र का वध किया गया था, इसलिए इस मुसीबत और दुःख की घटना के कारण इस स्थान का नाम कर्बला पड़ गया। मुहर्रम मुसलमानों के वर्ष का पहला महीना है। चूंकि इस महीने की दसवीं तारीख को इमाम हुसैन की हत्या की गई थी, इसलिए यह शोक और रंज का महीना माना जाता है। मुसलमान लोग मुहर्रम के दिन शोक का त्यौहार मनाते हैं।
इमाम हुसैन के बाद अब्दुल अब्बास नामक व्यक्ति ने इस लड़ाई को जारी रखा। अन्त में वह सफल हुआ और उसने उमैयद वंश के एक-एक व्यक्ति का वध कर दिया। अब्बास के वंशज अब्बासी कहलाए। इन लोगों ने बगदाद को अपनी राजधानी बनाया। बगदाद के खलीफाओं में हारूँ रशीद का नाम बहुत विख्यात है, जो अपनी न्याय-प्रियता के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था।
अन्त में तुर्कों ने बगदाद के खलीफाओं का अन्त कर दिया। खलीफाओं ने मिस्र में जाकर शरण ली। खलीफा अब इतिहास के नेपथ्य में चले गए थे किंतु खलीफाओं ने ही इस्लाम का दूर-दूर तक प्रचार किया था और इन्हीं लोगों ने भारत में भी इसका प्रचार किया था।
इस्लाम का राजनीतिक स्वरूप
इस्लाम आरम्भ से ही राजनीति तथा सैनिक संगठन से सम्बद्ध रहा। हजरत मुहम्मद के जीवन काल में ही इस्लाम को सैनिक तथा राजनीतिक स्वरूप प्राप्त हो गया था। जब ई.622 में पैगम्बर मुहम्मद मक्का से मदीना गए तब वहाँ पर उन्होंने अपने अनुयाइयों की एक सेना संगठित की और मक्का पर आक्रमण कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने सैन्य-बल से मक्का तथा अन्य क्षेत्रों में सफलता प्राप्त की।
मुहम्मद न केवल इस्लाम के प्रधान स्वीकार कर लिए गए वरन् वे राजनीति के भी प्रधान बन गए और उनके निर्णय सर्वमान्य हो गए। इस प्रकार मुहम्मद के जीवन काल में इस्लाम तथा राज्य के अध्यक्ष का पद एक ही व्यक्ति में संयुक्त हो गया। पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु के उपरान्त जब खलीफाओं का उत्कर्ष हुआ, तब भी इस्लाम तथा राजनीति में अटूट सम्बन्ध बना रहा क्योंकि खलीफा भी न केवल इस्लाम के अपितु राज्य के भी प्रधान होते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि राज्य का शासन कुरान के अनुसार होने लगा।
इससे राज्य में मुल्ला-मौलवियों का प्रभाव बढ़ा। राज्य ने धार्मिक असहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया जिसके फलस्वरूप अन्य धर्म वालों के साथ अन्याय तथा अत्याचार किया जाने लगा। खलीफा उमर ने अपने शासन काल में इस्लाम के अनुयाइयों को सैनिक संगठन में परिवर्तित कर दिया। इसका परिणम यह हुआ कि जहाँ कहीं खलीफा की सेनाएं विजय के लिए गईं, वहाँ पर इस्लाम का बल-पूर्वक प्रचार किया गया। यह प्रचार शान्ति पूर्वक सन्तों द्वारा नहीं वरन् राजनीतिज्ञों और सैनिकों द्वारा बलात् तलवार के बल पर किया गया। परिणाम यह हुआ कि जहाँ कहीं इस्लाम का प्रचार हुआ वहाँ की धरा रक्त-रंजित हो गई।
जेहाद
इस्लामी सेनापति अपने शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए ‘जेहाद’ अर्थात् धर्म-युद्ध का नारा लगाते थे। इस्लाम का एक निर्देश इस्लाम की खातिर पवित्र युद्ध (जिहाद) से सम्बन्ध रखता है। कुरान में इस निर्देश को सूत्रबद्ध किया गया है- ‘वर्ष में आठ माह बहुदेववादियों और विधर्मियों से लड़ना, उनका संहार करना और उनकी जमीन-जायदाद को छीन लेना चाहिए।’
बाद में मुस्लिम उलेमाओं ने जिहाद से सम्बन्धित निर्देशों की अलग-अलग ढंग से व्याख्या की। बहुदेवपूजकों के बारे में कुरान का रवैया बहुत सख्त है। उसमें कहा गया है- ‘हे ईमानवालों! अपने आस-पास के काफिरों से लड़े जाओ और चाहिए कि वह तुमसे अपनी बाबत सख्ती महसूस करें, और जानें कि अल्लाह उन लोगों का साथी है जो अल्लाह से डरते हैं।’
यद्यपि कुरान ‘किताबवालों’ अर्थात् यहूदियों और ईसाईयों के प्रति थोड़ी उदार है। फिर भी कुरान में उन ‘किताबवालों’ के साथ लड़ने का आदेश है कि यदि वे अल्लाह को नहीं मानते और इस्लाम के आगे नहीं झुकते। क्लेन नामक विद्वान ने जिहाद का अर्थ ‘संघर्ष’ किया है और इस संघर्ष के उसने तीन क्षेत्र माने हैं- (1) दृश्य शत्रु के विरुद्ध संघर्ष (2) अदृश्य शत्रु के विरुद्ध संघर्ष और (3) इन्द्रियों के विरुद्ध संघर्ष।
‘रिलीजन ऑफ इस्लाम’ के लेखक मुहम्मद अली का मत है कि- ‘इस शब्द का अर्थ इस्लाम के प्रचार के लिए युद्ध करना नहीं है, इसका अर्थ परिश्रम, उद्योग या सामान्य संघर्ष ही है। हदीस में हज करना भी जिहाद माना गया है।
नबी ने कहा है- सबसे अच्छा जिहाद हज में माना है किंतु व्यवहार में, आगे चलकर काजियों ने जिहाद का अर्थ युद्ध कर दिया। उन्होंने समस्त विश्व को दो भागों में बांट दिया- (1.) दारूल-इस्लाम (जिस भाग पर मुसलमानों की हुकूमत थी, उसे शान्ति का देश कहा गया, और (2.) दारूल-हरब (युद्ध स्थल) जिस भाग पर गैर-मुसलमानों की हुकूमत थी। उन्होंने मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को उत्तेजित किया कि ऐसे देशों को जीत कर इस्लाम का झण्डा गाड़ना जाहिदों का परम कर्त्तव्य है।’
इन भावनाओं के कारण जेहाद प्रायः भयंकर रूप धारण कर लेता था जिससे दानवता ताण्डव करने लगती थी और मजहब के नाम पर घनघोर अमानवीय कार्य किए जाते थे। शताब्दियाँ व्यतीत हो जाने पर भी इस्लाम की कट्टरता का स्वरूप अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। इस कारण इस्लाम जिस भी देश में गया, उस देश के समक्ष साम्प्रदायिकता की समस्या की नई चुनौतियां खड़ी हो गईं।