Thursday, November 14, 2024
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अध्याय – 20 – इस्लाम का जन्म एवं प्रसार (द)

इस्लामी साम्राज्य का प्रसार

हज़रत मुहम्मद के जीवन काल में अरब के अधिकांश भू-भाग पर इस्लाम का वर्चस्व हो गया। उनकी मृत्यु के बाद खलीफाओं के नेतृत्व में इस्लामी राज्य का तेजी से प्रसार हुआ। अरबवासियों ने संगठित होकर इस्लाम के प्रसार के साथ-साथ राजनीतिक विजय का अभियान शुरू किया। शीघ्र ही उन्होंने भूमध्यसागरीय देशों- सीरिया, फिलीस्तीन, दमिश्क, साइप्रस, क्रीट, मिस्र आदि देशों पर अधिकार कर लिया।

इसके बाद फारस को इस्लाम की अधीनता में लाया गया। फिर उत्तरी अफ्रीका के नव-मुस्लिमों और अरबों ने स्पेन में प्रवेश किया। स्पेन तथा पुर्तगाल जीतने के बाद इस्लामी सेनाओं ने फ्रांस में प्रवेश किया परन्तु ई.732 में फ्रांसिसियों ने चार्ल्स मार्टेल के नेतृत्व में ‘तुर्स के युद्ध’ में इस्लामी सेना को परास्त कर उसे पुनः स्पेन में धकेल दिया जहाँ ई.1492 तक उनका शासन रहा।

इसके बाद उन्हें स्पेन से भी हटाना पड़ा। अरबों ने पूर्वी रोमन साम्राज्य की राजधानी कुस्तुन्तुनिया पर भीषण आक्रमण किए। 15वीं सदी में ओटोमन तुर्कों ने कुस्तुन्तुनिया को जीतकर इस कार्य को पूरा किया। उधर फारस को जीतने के बाद अरबों ने बुखारा और समरकन्द पर अधिकार किया। मध्य एशिया पर उन्होंने पूर्ण प्रभुत्व स्थापित किया।

इसके बाद ई.712 में उन्होंने भारत के सिन्ध प्रदेश पर अधिकार किया। ई.750 में उन्होंने बगदाद को अपनी राजधानी बनाया। इस समय तक अरबवासियों का इस्लामी राज्य स्पेन से उत्तरी अफ्रीका होते हुए भारत में सिन्ध और चीन की सीमा तक स्थापित हो चुका था।

इस्लाम के शीघ्र प्रसार के कारण

अरब के एक छोटे नगर में उत्पन्न इस्लाम विश्व की सबसे बड़ी शक्तियों में से एक बन गया। इस्लाम के तीव्र प्रसार के कई कारण थे-

(1.) इस्लाम की कट्टरता ने इस्लाम के तीव्र प्रसार में सहायता की। हजरत मुहम्मद ने मदीना पहुँचकर अपने अनुयाइयों को सैनिकों के रूप में संगठित किया तथा उन्हें आदेश दिया कि कुरान में अविश्वास रखने वाले को बलात् मुसलमान बना लिया जाए और यदि वे इस्लाम को स्वीकार न करें तो उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाए। पैगम्बर के आदेश का पालन किया गया तथा सबसे पहला आक्रमण मक्का पर किया गया।

मक्का विजय के बाद हर जगह यही उदाहरण दोहराया गया। रामधारीसिंह ‘दिनकर’ ने लिखा है- ‘जहाँ-जहाँ इस्लाम के उपासक गए, उन्होंने विरोधी सम्प्रदाय के सामने तीन रास्ते रखे- या तो कुरान हाथ में लो और इस्लाम कबूल करो या जजिया दो और अधीनता स्वीकार करो। यदि दोनों में से कोई बात पसन्द न हो तो तुम्हारे गले पर गिरने के लिए हमारी तलवार प्रस्तुत है।

ये बड़े ही कारगर उपाय रहे होंगे किन्तु यह समझ में नहीं आता कि सिर्फ इन्हीं उपायों से इस्लाम इतनी जल्दी कैसे फैल गया।‘ इस्लाम के लिए युद्ध करने वाले मुसलमानों को कुरान का आश्वासन था कि उनके पाप क्षमा कर दिए जाएंगे और उन्हें स्वर्ग में खूब आनन्द मिलेगा।

(2.) अरब की तात्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति इस्लाम की सफलता का बड़ा कारण था। उस समय सारा अरब अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीतियों और दुराचार का केन्द्र बना हुआ था। अरबों में निर्धनता व्याप्त थी जिसके कारण उनमें लालच भी बहुत अधिक था और धन प्राप्त करने का हर उपाय अच्छा समझा जाता था।

जुआ, शराबखोरी, और वेश्यागमन भंयकर रूप से प्रचलित थे। विवाह जैसी पवित्र संस्था का महत्त्व भी जाता रहा और समाज में यौन-सम्बन्धों की कोई नैतिक व्यवस्था नहीं रह गयी थी। समस्त अरब लोग बहुदेववादी और घोर मूर्तिपूजक थे। ऐसी स्थिति में हजरत मुहम्मद द्वारा चलाया गया- अन्धविश्वासों से रहित, आडम्बरहीन, सरल, बोधगम्य तथा एक निराकार ईश्वर की उपासना वाला इस्लाम शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया।

(3.) इस्लाम में सामाजिक एवं धार्मिक समानता की विचारधारा भी इस्लाम की सफलता का बड़ा कारण था। इस्लाम में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है तथा प्रत्येक व्यक्ति के सामाजिक एवं धार्मिक अधिकार एक समान हैं। समस्त मुसलमानों को एक अल्लाह का बन्दा समझा गया है। इसलिए इस्लाम के अनुयाई परस्पर बन्धु हैं तथा उनमें ऊँच-नीच की भावना नहीं है।

इस समानता के सिद्धान्त के कारण इस्लाम की लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ी। जिस भी समाज में निम्न स्तर के लोग उच्च स्तर के लोगों के धार्मिक या सामाजिक अत्याचार से पीड़ित थे, उन्होंने समाज में सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए इस्लाम स्वीकार कर लिया। इस कारण इस्लाम का प्रसार तेजी से हुआ।

(4.) जिस समय इस्लाम के अनुयाई इस्लाम के प्रसार में लगे हुए थे, उस समय रोमन साम्राज्य खोखला हो चुका था और वहाँ विलासिता चरम पर थी। ईरानी साम्राज्य भी विलासिता के दलदल में डूबा हुआ था। राज्य के अधिकारी और धर्माधिकारी जनता का भयानक शोषण करते थे। इन शोषित राज्यों की जनता ने इस्लामी सेनाओं को अपनी मुक्तिदाता समझा।

इतिहासकार मानवेन्द्र राय ने लिखा है- ‘अरब आक्रमणकारी वीर जहाँ भी गए, जनता ने उन्हें अपना रक्षक और मुक्तिदाता मानकर उनका स्वागत किया क्योंकि कहीं तो जनता लोभी शासकों के भ्रष्टाचार के नीचे पिस रही थी तो कहीं ईरानी तानाशाहों के जुल्मों से त्रस्त थी और कहीं ईसाइयत का अन्धविश्वास उन्हें जकड़े हुए था।’

(5.) अरबों की तात्कालिक आर्थिक स्थिति ने भी इस्लाम की सफलता में योगदान दिया। छठी शताब्दी में अरब में कारवाँ व्यापार का ह्रास हो रहा था जिससे आर्थिक सन्तुलन भंग हो गया। कारवाँओं से होने वाली आमदनी बन्द हो जाने पर खानाबदोश अरब, खेती करने लगे। इससे जमीन की माँग बढ़ रही थी और पड़ौसी राज्यों की उपजाऊ भूमि को हस्तगत करना सबसे आसान तरीका था।

जिस क्षेत्र को भी वे हस्तगत करते थे, वहाँ के लोगों से कर वसूल करते थे। लाखों गैर-मुसलमानों ने इस्लाम को इसलिए स्वीकार कर लिया ताकि उन्हें कर नहीं चुकाना पड़े। इस्लाम स्वीकार करके वे इस्लामी राज्य में नौकरियाँ प्राप्त करने के पात्र बन जाते थे। यदि वे दास अथवा अर्द्धदास होते तो धर्म-परिवर्तन से दासता से मुक्त कर दिए जाते थे। इस प्रकार विजित क्षेत्रों की निर्धन जनता ने इस्लाम सहर्ष स्वीकार कर लिया।

(6.) इस्लाम के प्रारम्भिक नेताओं के महान् व्यक्तित्त्व तथा आदर्श पूर्ण जीवन ने इस्लाम की लोकप्रियता में बड़ा योगदान दिया। अबूबक्र, उमर उस्मान और अली, तीनों ही नबी के चुने हुए साथी थे और उन्होंने भी मुहम्मद की ही तरह अभाव और दरिद्रता में जीवन व्यतीत किया था। उनके न तो महल या अंगरक्षक थे और न समसामयिक बादशाहों जैसे ठाट-बाट थे। प्रत्येक मुसलमान सीधे ही उन तक पहुँच सकता था।

उन्होंने सादगी, सच्चरित्रता, वीरता और वैराग्य का ऐसा सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया कि इस्लाम का आचार पक्ष बहुत ऊँचा उठ गया। सैनिक अभियान हो अथवा तीर्थ यात्रा, ये खलीफा लोग सर्वत्र न्याय प्रदान करते चलते थे। उन्होंने अरबों में प्रचलित कुरीतियों को दूर किया और राज्य के कर्मचारियों को निर्दयी और जुल्मी होने से रोका। कुछ खलीफा दक्ष सेनापति तथा कुशल सैन्य संचालक भी थे। इन्हीं कारणों से इस्लाम का शीघ्र प्रसार सम्भव हो सका।

(7.) प्रत्येक मुसलमान वैधानिक रूप से चार पत्नियाँ रख सकता है। इस बहु-विवाह का परिणाम यह निकला कि मुसलमान जहाँ भी गए, उन्होंने गैर-स्त्रियों से विवाह कर लिए। भारत में आकर भी मुसलमानों ने हिन्दू स्त्रियों से विवाह किए। हिन्दू स्त्रियों से मुस्लिम बच्चे पैदा हुए जिनके कारण देश में इस्लाम का तेजी से प्रसार हुआ। हिन्दू स्त्रियों से उत्पन्न मुसलमान, भारत में इस्लाम के प्रसार के लिए अधिक कट्टर सिद्ध हुए।

(8.) भारत में तुर्कों के आने के समय यहाँ की राजनीतिक दशा अत्यन्त ही शोचनीय थी। देश में केन्द्रीय सत्ता एवं राजनीतिक एकता का अभाव था। छोटे-बड़े राज्यों के राजा आपसी संघर्ष में अपनी शक्ति क्षीण कर रहे थे। इस समय हिन्दू समाज भी पतनोन्मुख था और उसे उत्साह से भरी हुई सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा। सामान्य जनता में राजवंशों के उत्थान एवं पतन के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी। हिन्दू समाज की जाति-व्यवस्था ने जनसामान्य को विभक्त कर रखा था।

निम्न कही जाने वाली जातियों का जीवन बहुत ही दयनीय था। निम्न जाति के अधिकांश लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। इसके विपरीत इस्लाम ने मुसलमानों को एकता के सूत्र में बाँधा तथा काफिरों के विरुद्ध लड़े जाने वाले युद्धों को जिहाद का जामा पहना दिया। मुस्लिम सुल्तानों ने कुरान के आधार पर शासन किया और इस्लाम का प्रसार किया। के. एस. लाल ने लिखा है- ‘भारत में सुल्तानों ने अपनी धार्मिक नीति से हिन्दुओं की संख्या एक-तिहाई कर दी।’

ईस्लाम का भारत में प्रवेश और प्रसार

मुस्लिम अरब व्यापारियों ने सातवीं शताब्दी से ही भारत के दक्षिण-पश्चिमी समुद्र तटीय राज्यों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे। कुछ अरब व्यापारी दक्षिण भारत के मलाबार तथा अन्य स्थानांे पर स्थायी रूप से बस गए थे। दक्षिण भारत में अरब व्यापारियों ने व्यापार करने के साथ-साथ इस्लाम का प्रचार भी किया। इस कारण दक्षिण भारत के कुछ लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया।

आठवीं सदी के आरम्भ में अरबों ने सिन्ध को जीत लिया किंतु इस जीत से इस्लाम सिन्ध में अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर सका। इस्लाम का नेतृत्व पहले, ईरानियों और उसके बाद तुर्कों के पास चला गया। इस्लाम के प्रचार के लिए तुर्क कई शाखाओं में बँट गए। समानी वंश के तुर्कों ने पूर्व की ओर बढ़कर ई.874 से 999 के बीच खुरासान, आक्सस नदी पार के देश तथा अफगानिस्तान के विशाल भू-भाग पर अधिकार कर लिया। दसवीं शताब्दी ईस्वी में समानी वंश के शासक ‘अहमद’ का गुलाम ‘अलप्तगीन’ गजनी का स्वतंत्र शासक बना। उसका वंश ‘गजनवी वंश’ कहलाया।

ई.977 में अलप्तगीन के गुलाम एवं दामाद सुबुक्तगीन ने गजनी राज्य की सीमाओं को हिन्दूशाही राज्य ‘लमगान’ तक पहुँचा दिया। ई.986 में उसने पंजाब के हिन्दूशाही राज्य लमगान पर आक्रमण किया। लमगान के शासक जयपाल ने उससे सन्धि कर ली किन्तु कुछ समय बाद जयपाल ने सन्धि की अवहेलना शुरू कर दी।

अतः ई.991 में सुबुक्तगीन ने पुनः हिन्दूशाही राज्य पर आक्रमण करके लमगान तक का प्रदेश जीत लिया। ई.997 में सुबुक्तगीन की मृत्यु होने पर उसका पुत्र महमूद गजनी का शासक बना। गजनी का शासक होने के कारण वह महमूद गजनवी कहलाया। महमूद गजनवी ने ई.1000 से 1026 के मध्य, भारत पर 17 आक्रमण किए।

महमूद के आक्रमणों का उद्देश्य भारत में स्थायी शासन स्थापित करना नहीं था, अपितु धन-सम्पदा की लूट, मन्दिरों और मूर्तियों को भूमिसात् करना तथा भारत में इस्लाम के प्रसार का मार्ग प्रशस्त करना था। उसके मुस्लिम प्रांतपति अफगानिस्तान से लेकर पंजाब के बीच कुछ क्षेत्रों पर शासन करने लगे। 12वीं शताब्दी ईस्वी में मुहम्मद गौरी ने अजमेर एवं दिल्ली के चौहान शासकों को परास्त कर भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव रखी। उसका गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली का पहला स्वतंत्र मुस्लिम सुल्तान बना।

हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता की समस्या

यद्यपि कुरान तथा हदीस में इस्लामिक एवं गैर-इस्लामिक भूमियों की संकल्पना मौजूद नहीं है तथापि इस्लामी चिंतकों ने पूरे विश्व को दो हिस्सों- ‘दारुल इस्लाम’ (इस्लाम का घर) तथा ‘दारुल हरब’ (युद्ध का घर) में बांटा है। दारुल इस्लाम वह भूमि है जहाँ शरीयत का कानून चलता है जबकि दारुल हरब वह भूमि है जहाँ शरीयत के अनुसार शासन नहीं चलता। इसे ‘दारुल कुफ्र’ भी कहते हैं। दारुल हरब को पुनः तीन भागों में विभक्त किया गया है-

(1.) दारुल अहद- अर्थात् वह गैर इस्लामिक देश जहाँ अल्लाह को नहीं मानने वालों का बहुमत है।

(2.) दारुल सुलह- अर्थात् वह गैर इस्लामिक देश जहाँ अल्लाह को नहीं मानने वालों ने मुसलमानों से शांति का समझौता कर रखा है।

(3.) दारुल दावा- (Proselytizing or preaching of Islam) अर्थात् वह गैर इस्लामिक देश जिसके लोगों को इस्लाम की शिक्षा देकर उनका धर्मांतरण किया जाना है। 

इस्लाम के प्रसार के इस चिंतन से प्रभावित मुसलमान पूरे विश्व को दारुल इस्लाम में बदलना चाहते थे। इसलिए जहाँ भी मुस्लिम सेनाएं गईं, उन्होंने बुतपरस्तों (मूर्ति-पूजकों) को काफिर (नास्तिक) कहकर उनकी हत्याएं कीं अथवा उन्हें गुलाम बनाया।

उन्होंने लोगों के सामने दो ही विकल्प छोड़े या तो मुसलमान बन जाओ या मर जाओ। एक तीसरा और संकरा रास्ता और भी था जिसके अंतर्गत काफिरों को जिम्मी अर्थात् ‘रक्षित-विधर्मी’ घोषित किया जाता था जो जजिया देकर मुसलमानों के राज्य में जिंदा रहे।

भारत में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक समस्या का प्रवेश

इस्लाम ने तलवार के जोर पर बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मुसलमान बनाना आरम्भ कर दिया। जिन हिन्दुओं ने मुसलमान बनने से मना किया, उनका सर्वस्व हरण करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। मुस्लिम मुल्लाओं और मौलवियों ने मुसलमानों को समझाया कि भारत ‘दारुल हरब’ है तथा ‘जेहाद’ के माध्यम से काफिरों का सफाया करके इसे ‘दारुल इस्लाम’ बनाना है।

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