Tuesday, March 11, 2025
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द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत

उग्र राष्ट्रवादी कांग्रेसी नेताओं द्वारा द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत का समर्थन

द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के अनुसार हिन्दू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं। एक देश में दो राष्ट्र एक साथ अस्तित्व में नहीं रह सकते। कांग्रेस द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करती थी किंतु हिन्दुत्वादी नेता और कट्टरवादी मुसलमान दोनों ही द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत में विश्वास करते थे।

बंग-भंग के बाद एक बार फिर से उग्रवादी नेता कांग्रेस में हावी होने लगे। वे आवेदन-निवेदन और याचना की नीति में विश्वास नहीं करते थे तथा भारतीयों द्वारा अँग्रेजी साम्राज्य से सहयोग करने की नीति को भी उचित नहीं समझते थे। वे भारतीयों के लिये स्वराज्य चाहते थे तथा स्वराज्य की प्राप्ति के लिए राष्ट्रव्यापी आन्दोलन की आवश्यकता अनुभव करते थे।

वे जन साधारण में राष्ट्र-प्रेम एवं बलिदान की अटूट भावना विकसित करना चाहते थे जिससे घबराकर गोरी सरकार भारत से चली जाये। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार और राष्ट्रीय शिक्षा पर बल देते थे। इस काल में भारत का सम्पन्न वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग एवं मध्यम वर्ग पश्चिमी शिक्षा एवं जीवन शैली के आकर्षण में फंसे हुए थे।

इन लोगों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने के लिए उनके समक्ष भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक श्रेष्ठता को स्थापित करना आवश्यक था। इसी उद्देश्य से बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में जन साधारण के स्तर पर गणेश पूजन तथा शिवाजी उत्सव मनाने की परम्परा आरम्भ की।

अरविन्द घोष ने बंगाल में एक माह तक चलने वाली काली पूजा आरम्भ की। लाला लाजपतराय ने पंजाब में आर्य समाज आन्दोलन को सशक्त बनाने का काम किया। इस प्रकार इन उग्र-राष्ट्रवादी नेताओं ने इन धार्मिक एवं सामाजिक समारोहों को व्यापक रूप देकर उन्हें राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक चेतना उत्पन्न करने का प्रभावी माध्यम बना दिया।

राष्ट्रवादी नेताओं ने जनसाधरण को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उठ खड़े होने एवं उनमें एकता की भावना उत्पन्न करने के लिये व्यापक स्तर पर सामाजिक एवं धार्मिक समारोहों को आरम्भ किया था किंतु अँग्रेजों ने इन समारोहों की आड़ में मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध उकसाया तथा कट्टर मुस्लिम नेताओं को पृथकतावादी आन्दोलन आरम्भ करने हेतु प्रोत्साहित किया। यह पृथकतावादी आंदोलन ही द्विराष्ट्रवाद का जनक था।

अँग्रेज अधिकारियों का आरोप था कि तिलक द्वारा स्थापित गोरक्षिणी सभा, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कलह का स्रोत थी। जबकि एन. एम. गोल्डवर्ग ने लीडर ऑफ द डेमोक्रेटिक विंग इन महाराष्ट्र में लिखा है कि तिलक द्वारा आरम्भ किये गये गणपति पूजन में शिया एवं सुन्नी भी आते थे।

इन्दुलाल याज्ञिक ने अपनी कृति श्यामजी कृष्ण वर्मा की जीवनी में गोल्डबर्ग के इस कथन की पुष्टि की है किंतु अंग्रेज सरकार द्वारा उग्र राष्ट्रवाद को मुस्लिम-विरोधी बताकर उसे असफल करने के प्रयास जारी रखे गए। इस कारण भारत में द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त का विकास हुआ।

द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के अनुसार भारत में एक राष्ट्र नहीं होकर दो राष्ट्र बसते हैं- पहला हिन्दू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्र। इस विचार से प्रभावित होकर अनेक मुसलमानों ने स्वयं को राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर कर लिया तथा ई.1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना की।

उग्रवादी नेता भारत में ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति स्थापित करना चाहते थे जो देशभक्त नागरिक तैयार कर सके। उनका मानना था कि अँग्रेजी शिक्षा पद्धति से मानसिक गुलाम तैयार किये जा रहे हैं। यदि भारतीय नौजवानों में स्वतंत्र चिंतन की योग्यता उत्पन्न हो जाये तो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को स्वतः गति प्राप्त हो जायेगी।

इस विचार से प्रेरित होकर उग्रवादी नेताओं ने देश भर में थियोसॉफिकल स्कूल और कॉलेज, डी. ए. वी. स्कूल, हिन्दू कॉलेज, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आदि स्थापित किये। इन संस्थाओं ने राष्ट्रीयता के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस पर अँग्रेजों ने मुसलमानों तथा अन्य धर्मावलम्बियों को भी अपनी अलग शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने के लिये उकासाया जिनमें उन धर्मों, मतों एवं पंथों की धार्मिक शिक्षा दी जाने लगी।

उदारवादियों एवं उग्रवादियों के राजनीतिक उद्देश्यों में बहुत बड़ा अंतर था। उदारवादी नेता ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत ही उत्तरदायी सरकार की कल्पना करते थे। वे अँग्रेजों के रहने में ही भारत का कल्याण समझते थे।

एक बार लॉर्ड हार्डिंग ने गोखले से कहा- ‘तुम्हें कैसा लगेगा यदि तुम्हें मैं यह कहूँ कि एक माह में ही समस्त ब्रिटिश अधिकारी और सेना भारत छोड़ देंगे।’

इस पर गोखले का उत्तर था- ‘मैं इस समाचार को सुनकर प्रसन्नता अनुभव करूंगा किन्तु इससे पूर्व कि आप लोग अदन तक पहुँचेगें, हम आपको वापस आने के लिये तार कर देंगे।’

उदारवादियों से ठीक उलट, उग्रवादियों ने देश के लिये स्वराज की मांग की। तिलक का कहना था कि जितनी जल्दी हो सके अँग्रेजों को भारत से चले जाना चाहिए। इससे भारतीयों को अपार प्रसन्नता होगी। उग्रवादी नेताओं का मानना था कि विदेशी सुशासन कितना ही अच्छा क्यों न हो, वह स्वशासन से श्रेष्ठ नहीं हो सकता।

उग्र-राष्ट्रवादी नेता विपिनचन्द्र पाल का कहना था- ‘कोई किसी को स्वराज्य नहीं दे सकता। यदि आज अँग्रेज उन्हें स्वराज्य देना चाहें तो वह ऐसे स्वराज्य को ठुकरा देंगे क्योंकि मैं जिस वस्तु को उपार्जित नहीं कर सकता; उसे स्वीकार करने का भी पात्र नहीं हूँ।’

तिलक का कहना था कि- ‘राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए लड़ना पड़ेगा…… अँग्रेजों के साथ सहयोग करना और भिक्षा तथा उपहार, वरदानों के रूप में अधिकार प्राप्त करना नितान्त भ्रामक है।’

लाला लाजपतराय ने ई.1905 के कांग्र्रेस अधिवेशन में कहा था- ‘एक अँग्रेज को भिखारी से बड़ी घृणा और विरक्ति होती है। मेरे विचार में भिखारी है ही इस योग्य कि उससे घृणा की जाये। अतः हमारा कर्त्तव्य है कि अब हम अँग्रेजों को दिखा दें कि हम भिक्षुक नहीं हैं। हमारा आदर्श भीख मांगना नहीं, वरन् आत्म-निर्भरता है।’

यदि उस काल की कांग्रेस के उदारवादी एवं उग्रवादी नेताओं का समग्र विश्लेषण किया जाए तो यह बात स्पष्ट होगी कि यद्यपि उग्र राष्ट्रवाद, उदारवाद की प्रतिक्रया में उत्पन्न हुआ था तथापि वे एक दूसरे के पूरक थे। उदारवादियों ने, कांग्रेस के रूप में उग्रवादियों के लिये एक पृष्ठभूमि तैयार की तथा उग्रवाद ने उसी कांग्रेस का उपयोग अपनी नीतियों को आगे बढ़ाने में किया। दोनों ही सच्चे देशभक्त और देशप्रेमी थे।

रामनाथ सुमन ने लिखा है- ‘जब हम नरम व गरम दोनों दलों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण और अध्ययन करते हैं तो मालूम पड़ता है कि हमारी राष्ट्रीयता के विकास में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों हमारी राजनीति के स्वाभाविक उपकरण हैं। वस्तुतः वे एक ही आन्दोलन के दो पक्ष हैं। एक ही दीपक के दो परिणाम हैं। पहला प्रकाश का द्योतक है; दूसरा गर्मी का। पहला बुद्धि-पक्ष है; दूसरा भाव-पक्ष है। पहला कुछ सुविधाएं प्राप्त करना चाहता था, दूसरे का उद्देश्य राष्ट्र में मानसिक परिवर्तन करना था।’

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उग्रवादी आन्दोलन के नेताओं ने ही इस बात को जोर देकर कहा कि राजनीतिक आजादी ही राष्ट्र का जीवन है। इस कारण ब्रिटिश सरकार ने पूरी ताकत के साथ उग्रवादियों को कुचलना आरम्भ कर दिया। ई.1908 में समाचार पत्र विधेयक लागू किया गया ताकि ये नेता जनता में अपने विचारों का प्रसार नहीं कर सकें। सरकार द्वारा उसी वर्ष आतंकवादी अभियोगों से निपटने के लिए दंडविधि संशोधन अधिनियम (1908) और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को प्रतिबंधित करने के लिए राजद्रोह सम्मेलन अधिनियम-1911 लागू किया गया।

बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय तथा अन्य उग्रवादी नेताओं को बंदी बना लिया गया जिससे उग्रवादियों को भारी धक्का लगा। रिहाई के बाद अनेक नेताओं का मनोबल टूट गया। ई.1916 में बाल गंगाधर तिलक, लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस की एकता फिर से स्थापित करने में सफल रहे और एनीबीसेंट के साथ मिलकर होमरूल आन्दोलन चलाते रहे।

बाल गंगाधर तिलक को अपने जीवन का काफी हिस्सा अंग्रेजों की जेलों में बिताना पड़ा। इसलिए ई.1919 के आते-आते उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा।

इस समय तक ई.1915 में मोहनदास गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट चुके थे और ई.1917 के चम्पारण आंदोलन से कुछ प्रसिद्धि भी पा गए थे। ई.1919 के आते-आते गांधीजी कांग्रेस के मंचों पर जगह बनाने लगे। जब ई.1919 में गांधी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा तो बाल गंगाधर तिलक और श्रीमती एनीबीसेंट ने नाराज होकर कांग्रेस छोड़ दी।

वे इस लिजलिजी राजनीति को कांग्रेस के लिए अच्छी शरुआत नहीं समझते थे। 1 अगस्त 1920 को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का निधन हो गया और देश ने अपने महानतम नेताओं में से एक को खो दिया।

इस प्रकार भारतीय असंतोष से निबटने के लिए ई.1885 में अंग्रेजों ने कांग्रेस रूपी जिस यंत्र का आविष्कार किया था, राष्ट्रवादी नेताओं ने ई.1905 में उसे भारत की आजादी प्राप्त करने का युद्धपोत बना दिया किंतु इससे पहले कि कांग्रेस रूपी युद्धपोत आजादी की दिशा में एक इंच भी आगे बढ़ पाता, ई.1906 में अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग रूपी दूसरे युद्धपोत का आविष्कार किया जो बड़ी ही दृढ़ता से कांग्रेस का मार्ग अवरुद्ध करने के लिए विपरीत दिशा से तीव्र वेग से चला आ रहा था।

इसी मुस्लिम लीग के गर्भ से द्विराष्ट्रवाद का जन्म हुआ किंतु बहुत से इतिहासकारों ने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के लिए उग्र हिन्दूवादी नेताओं को जिम्मदार ठहराया है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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