औरंगजेब का पुत्र मुअज्जमशाह मुगलों के इतिहास में शाहआलम (प्रथम) तथा बहादुरशाह (प्रथम) के नाम से जाना जाता है। जब बहादुरशाह की मृत्यु हुई तो उसका शव ढाई माह तक नहीं दफनाया जा सका!
जिस समय बहादुरशाह ने आम्बेर तथा जोधपुर के राजाओं को हटाकर उनके राज्यों पर कब्जा कर लिया था, उस समय उदयपुर का महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) भी इन सारी गतिविधियों को सतर्कता पूर्ण दृष्टि से देख रहा था। महाराणा को लगा कि अब बहादुरशाह उदयपुर की तरफ अभियान करेगा। इसलिए महाराणा अमरसिंह अपने पूर्वजों की नीति पर चलते हुए उदयपुर नगर खाली करके गहन पर्वतों में चला गया ताकि यदि बहादुरशाह अमरसिंह के पीछे आए तो उसे पहाड़ों में घेरकर नष्ट किया जा सके।
उधर बहादुरशाह भी अमरसिंह की गतिविधियों पर दृष्टि रख रहा था। इसलिए जब उसे ज्ञात हुआ कि महाराणा अमरसिंह पहाड़ों में चला गया है तो वह समझ गया कि यदि उसने उदयपुर जाने की गलती की तो उसकी सेना भी उसी तरह पीस दी जाएगी जिस तरह उसके पिता औरंगजेब की सेना को महाराणा अमरसिंह के बाबा राजसिंह ने पीस दिया था। अतः बहादुरशाह ने महाराणा के जाल में फंसने की बजाय घोषणा की कि वह उदयपुर पर अभियान करने की बजाय अपने भाई कामबख्श से निबटने के लिए हैदराबाद जाएगा।
जब बहादुरशाह अपने भाई कामबख्श का दमन करके दक्षिण भारत से लौटकर आया तो वह मेवाड़ के घाटे की तरफ बढ़ा। महाराणा अब भी पहाड़ों में था किंतु बहादुरशाह के लिए अब भी परिस्थितियां ऐसी नही हुई थीं कि वह उदयपुर के महाराणा से युद्ध में उलझ सके।
उसे पंजाब की परिस्थितियों की पूरी जानकारी थी जहाँ एक तरफ सिक्खों ने सरहिंद के बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया था तथा दूसरी तरफ लाहौर के सुन्नी मुल्ला-मौलवियों ने बादशाह के विरुद्ध बड़ा आंदोलन खड़ा कर लिया था। लाहौर के मुल्ला-मौलवी बादशाह द्वारा अपने खुतबे में वली के स्थान पर अली का प्रयोग किए जाने से नाराज थे। इसलिए बादशाह सिक्खों का दमन करने तथा लाहौर के मुल्ला-मौलवियों से समझौता करने के लिए लाहौर चला गया।
बादशाह ने राजपूत राजाओं को शांत करने के लिए महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) को असद खाँ से पत्र लिखवाकर आश्वस्त किया कि महाराणा आपसे पूर्ववत् मित्रता रखते हैं, इसलिए आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। बादशाह ने महाराजा अजीतसिंह को जोधपुर का तथा महाराजा सवाई जयसिंह को आम्बेर का शासक स्वीकार कर लिया तथा उन्हें बादशाह के समक्ष उपस्थित होकर शाही सेवा करने के आदेश भिजवाए।
लाहौर में बादशाह ने मुल्ला-मौलवियों की एक बैठक बुलाई तथा उनकी बातें सुनकर अपना पक्ष स्पष्ट करने का प्रयास किया किंतु बैठक के दौरान मुल्ला-मौलवियों ने बहुत शोर-शराबा किया और दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे। इस पर मुल्ला-मौलवियों ने बादशाह के विरुद्ध युद्ध करने की धमकी दी। इसके बाद बहादुरशाह ने बैठक बंद कर दी। अभी बहादुरशाह लाहौर में ही प्रवास कर रहा था कि जनवरी 1712 में बहादुरशाह का स्वास्थ्य खराब हो गया। इतिहासकार विलियम इरविन के अनुसार बहादुरशाह 24 फरवरी 1712 को अंतिम बार जनता के समक्ष आया।
इसके बाद वह खाट से नहीं उठ सका और 27-28 फरवरी की रात्रि में बहादुरशाह की मृत्यु हो गई। शाही हकीमों के अनुसार बहादुरशाह की मृत्यु तिल्ली बढ़ जाने से हुई।
बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात् उसके चारों पुत्रों, जहाँदारशाह, अजीमुश्शान, रफ़ीउश्शान और जहानशाह में उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हो गया। फलतः बहादुरशाह का शव लाहौर के दुर्ग में ही पड़ा रहा और उसे दफनाया नहीं जा सका। बहादुरशाह की बेगम मिहिर परवर तथा बादशाह का मंत्री चिनकुलीच खाँ बादशाह के शव की सुरक्षा के लिए उसके पास लाहौर में ही बैठे रहे।
उधर बहादुरशाह के पुत्रों में हुए उत्तराधिकार के संघर्ष में जहाँदारशाह ने मुगल सेनापति जुल्फिकार खाँ की सहायता से अपने बड़े भाई अजीमुश्शन को हरा दिया तथा 29 मार्च 1712 को दिल्ली के तख्त पर अधिकार जमाने में सफलता प्राप्त कर ली। जहाँदारशाह ने अपने पूर्वजों की नीति का अनुसरण करते हुए अपने तीनों भाइयों को मार डाला।
11 अप्रेल 1712 को बहादुरशाह की बेगम मिहिर परवर तथा बहादुरशाह का मंत्री चिनकुलीच खाँ बहादुरशाह का शव लेकर लाहौर से दिल्ली के लिए रवाना हुए। 15 मई 1712 को उसे दिल्ली के महरौली नामक स्थान पर मोती मस्जिद में दफना दिया गया। यह मस्जिद कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के पास स्थित है।
ई.1707 में औरंगजेब की मृत्यु से लेकर ई.1712 में बहादुरशाह की मृत्यु के समय तक भारत वर्ष की परिस्थितियों में विशेष परिर्वतन नहीं आया था किंतु निकट भविष्य में होने वाले परिवर्तनों की आहट साफ सुनाई देने लगी थी। औरंगजेब अपने जीवन के अंतिम 25 सालों में दक्षिण भारत में रहा था।
औरंगजेब का इतिहास लिखने वाले जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि इस दौरान दक्षिण भारत में युद्ध, सूखे, अकाल एवं महामारी के कारण प्रतिवर्ष लगभग 1 लाख मनुष्यों एवं तीन लाख ऊंट, बैल एवं घोड़े आदि मालवाहक पशुओं की मृत्यु होती थी। इस कारण दक्षिण भारत में जगह-जगह पर शव सड़ते हुए दिखाई देते थे तथा पूरा क्षेत्र खेती से रहित होकर शमशान जैसा दिखाई देता था।
जब बहादुरशाह बादशाह हुआ तो उसने पांच साल में केवल तीन युद्ध लड़े थे जिनमें से पहला युद्ध जजाऊ के मैदान में आजमशाह से, दूसरा युद्ध हैदराबाद में अपने भाई कामबख्श से तथा तीसरा युद्ध सरहिंद में बंदा बहादुर से लड़ा था। जजाऊ के युद्ध में बड़ी जन हानि हुई थी किंतु हैदराबाद एवं पंजाब के युद्धों में अधिक विनाश नहीं हुआ था। यही कारण था कि बहादुरशाह के काल में दक्षिण भारत में जीवन के चिह्न फिर से दिखाई देने लगे थे।
फिर भी औरंगजेब अपने शासन के पचास साल में भारत की जनता को जो गहरे जख्म देकर गया था, वे जख्म कई शताब्दियों में भी ठीक नहीं हो सकते थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता