मजहबी कट्टरता से ग्रस्त औरंगजेब ने ब्रजभूमि पर कहर ढाना आरम्भ किया तो फिर रुकने का नाम नहीं लिया। इस कहर से ब्रज तो उजड़ गया किंतु राजपूताना बस गया!
9 अप्रेल 1669 को जैसे ही औरंगजेब ने मुगल सल्तनत के समस्त हिन्दू मंदिरों को गिराने के आदेश दिए, वैसे ही मथुरा और वृंदावन के मंदिरों के पुजारी और गुसाईंजन अपने-अपने अराध्यों की मूर्तियां लेकर रात के अंधेरों में गायब हो गए। कुछ दिनों तक जंगलों में छिपे रहने के बाद वे जयपुर, जोधपुर, किशनगढ़ तथा उदयपुर राज्यों में प्रकट होने लगे।
हिन्दू धर्म पर आए इस अभूतपूर्व संकट के समय राजपूत राजाओं ने दुष्ट औरंगजेब की जरा भी परवाह नहीं की, उन्होंने पुजारियों एवं गुसाइयों को ब्रज भूमि से निकल भागने में बड़ी सहायता की। महाप्रभु वल्लभाचार्यजी के वंशज गिरधर गुसाईंजी, बूंदी नरेश भावसिंह के सरंक्षण में भगवान मथुराधीश की विख्यात प्रतिमा को ब्रज से निकालकर बूंदी ले गए, जहाँ से यह प्रतिमा राजा दुर्जनशाल द्वारा कोटा ले जाई गई तथा उनके लिए कोटा में मथुरेशजी का विख्यात मंदिर बनवाया गया।
इस विग्रह का प्राकट्य गोकुल के निकट कर्णावल गांव में हुआ था तथा यह विग्रह महाप्रभु वल्लभाचार्य ने अपने पुत्र विट्ठलनाथजी को दिया था। उन्होंने यह प्रतिमा अपने पुत्र गिरधरजी को दी थी। कोटा के मथुरेशजी मंदिर को अब वल्लभ सम्प्रदाय की प्रथम पीठ माना जाता है।
इसी प्रकार ई.1669 में वृंदावन के विशाल गोविंददेव मंदिर के विग्रह को भी वृंदावन से निकालकर जयपुर पहुंचा दिया गया। इस विग्रह का निर्माण भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने अपनी माता के मुख से सुने भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप के आधार पर करवाया था। इस विग्रह को चैतन्य महाप्रभु के आदेश से उनके शिष्य रूप गोस्वामी ने गोमा टीले के नीचे से खोद कर प्राप्त किया था।
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ई.1590 में अकबर की अनुमति से आम्बेर के राजा मानसिंह ने वृंदावन में इस विग्रह हेतु एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया था। मुगलकाल में इससे अधिक भव्य मंदिर नहीं बना था। अकबर ने इस मंदिर की गायों के चारागाह के लिए 135 बीघा भूमि प्रदान की थी। इसकी सातवीं मंजिल पर जलते हुए दीपों का प्रकाश आगरा तक दिखाई देता था।
जब औरंगजेब ने इस मंदिर को तोड़ने के आदेश दिए तो मंदिर के सेवादार शिवराम गोस्वामी, भगवान श्रीगोविंददेव और श्रीराधारानी के विग्रहों को लेकर जंगलों में जा छिपे
ब्रजभूमि पर कहर देखकर कुछ काल तक के लिए वैष्णव आचार्य हतप्रभ रह गए किंतु कुछ ही दिनों बाद वे भगवान श्रीगोविंददेव और श्रीराधारानी के विग्रहों को आम्बेर नरेश मिर्जाराजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह के संरक्षण में वृंदावन से आम्बेर ले आए। अब यह प्रतिमा जयपुर के गोविंददेव मंदिर में विराजमान है। जयपुर के शासक गोविंददेव को राज्य का स्वामी तथा स्वयं को राज्य का दीवान मानते थे।
ई.1670 में औरंगजेब के आदेश से वृंदावन में स्थित गोविंददेव का भव्य मंदिर तोड़ा गया। औरंगजेब ने वृंदावन के गोविंददेव मंदिर की तीन मंजिलों को तुड़वा दिया तथा अकबर द्वारा गौशाला के लिए दी गई 135 बीघा भूमि का पट्टा निरस्त कर दिया।
ब्रजभूमि पर कहर का यह सिलसिला औरंगजेब के जीवन काल में कभी नहीं रुका, वह बढत्रता ही रहा।
ई.1670 में औरंगजेब के आदेश से मथुरा के केशवराय मन्दिर को तोड़कर उसके पत्थरों से उसी स्थान पर मस्जिद बनवाई गई तथा मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया गया। इस मंदिर से कई मूल्यवान प्रतिमाएं प्राप्त हुईं जिनमें हीरे-जवाहर लगे हुए थे। औरंगजेब ने इन प्रतिमाओं को बेगम साहिब की मस्जिद के रास्ते की सीढ़ियों में लगवा दिया ताकि उन्हें पैरों से ठोकर मारी जा सके।
ब्रजभमि पर कहर का ऐसा दृश्य महमूद गजनवी एवं मुहम्मद गौरी के आक्रमणों के समय में भी देखा गया था।
गोविंददेवजी के साथ ही वृंदावन के मदनमोहनजी और गोपालजी के विग्रह भी आम्बेर ले जाए गए थे। इनमें से मदनमोहनजी तो बाद में करौली चले गए किंतु गोपालजी आज भी जयपुर के एक मंदिर में विराजमान हैं। 29 सितम्बर 1669 को मथुरा के निकट गोवर्द्धन पर्वत पर स्थित गिरिराज मंदिर के गुंसाई दामोदरजी, श्रीनाथजी को अपने साथ लेकर, अपने चाचा गोविन्दजी एवं अन्य पुजारियों के साथ गोवर्द्धन से राजपूताने की ओर रवाना हुए।
वे आगरा, बूंदी, कोटा एवं पुष्कर होते हुए किशनगढ़ पहुंचे। किशनगढ़ के महाराजा मानसिंह ने ‘पीताम्बर की गाल’ में भगवान को पूर्ण भक्ति सहित विराजमान करवाया और विविधत् उनकी पूजा की किंतु भगवान को किशनगढ़ में रखने में असमर्थता व्यक्त की।
इसलिए यहाँ से श्रीनाथजी जोधपुर राज्य के चौपासनी गांव पहुंचे। उस समय महाराजा जसवंतसिंह जमरूद के मोर्चे पर थे इसलिए राज्याधिकारियों ने आशंका व्यक्त की कि हम श्रीनाथजी के विग्रह की रक्षा नहीं कर पाएंगे। इस पर मेवाड़ के गुसाइयों ने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह से सम्पर्क किया। महाराणा ने गुसाइयों को वचन दिया कि मेवाड़ राज्य में एक लाख हिन्दुओं के सिर काटे बिना औरंगजेब श्रीनाथजी के विग्रह को स्पर्श नहीं कर पाएगा। इसलिए वे श्रीनाथजी को मेवाड़ ले आएं। इस प्रकार महाराणा राजसिंह के निमंत्रण पर ई.1672 में श्रीनाथजी मेवाड़ पधारे तथा उन्हें सिहाड़ गांव में विराजित किया गया जो अब नाथद्वारा कहलाता है।
चूंकि औरंगजेब ने मंदिरों को तोड़ने के आदेश दिए थे इसलिए सभी राजपूत राजाओं ने ब्रज से आने वाले देव-विग्रहों के लिए हवेलियों का निर्माण करवाया। इन्हीं हवेलियों में श्रीकृष्ण की विभिन्न प्रतिमाओं को उनके पुजारियों के साथ रखा गया तथा उनके लिए गौशाला एवं चारागाह की भूमि की व्यवस्था की गई। आज भी राजस्थान के विभिन्न नगरों में इन हवेलियों को देखा जा सकता है। शीघ्र ही ये हवेलियां ब्रज की संस्कृति के प्रसार की केन्द्र बन गईं और श्रीनाथजी तथा अन्य विग्रहों एवं पुजारियों के आने से राजपूताना में ब्रज संस्कृति का प्रभाव व्याप्त हो गया।
मेवाड़ के महाराणा ने शैव-गुरु के साथ-साथ वैष्णव गुरु भी स्वीकार किया। जोधपुर तथा किशनगढ़ के राजवंश गोकुलिये गुसाइयों के शिष्य हो गए तथा वल्लभ सम्प्रदाय को मानने लगे। जोधपुर एवं किशनगढ़ में गोकुलिये गुसाइयों का बहुत जोर था। बीकानेर के राजा-रानियां एवं राजकुमारियां भी लक्ष्मीनारायणजी के उपासक हो गए।
उन दिनों किशनगढ़ वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख केन्द्रों में से एक था। जहांगीर के जन्म से पहले अकबर ने सलेमाबाद पीठ के आचार्य से आशीर्वाद प्राप्त किया था। जोधपुर, जयपुर, बीकानेर, कोटा, बूंदी एवं किशनगढ़ के साहित्य, संगीत एवं चित्रकला यहाँ तक कि पूरी संस्कृति पर ब्रज संस्कृति का व्यापक प्रभाव पड़ा।
इसके कारण राजपूत सैनिक अपने गले में तुलसी की माला पहनने लगे और राजपूत राजा ब्रज भाषा में कविता करने लगे। जयपुर के राजा भगवान गोविंददेव को राज्य का वास्तविक स्वामी एवं स्वयं को उनका दीवान मानने लगे।
ब्रजभूमि पर कहर से औरंगजेब की कुत्सित वृत्तियां तो शांत नहीं हुईं किंतु इसने भारत की संस्कृति को निर्बल बनाने की बजाय सम्पूर्ण भारत भूमि को ही ब्रजभूमि बनाने का काम कर दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता