जिन दिनों अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति हुई, उन दिना मिर्जा गालिब दिल्ली में रहते थे। उन्होंने न तो क्रांति में भाग लिया और न अंग्रेजों का साथ दिया। वे इस क्रांति से पूर्णतः निरपेक्ष रहे।
मिर्जा गालिब तथा जौक बहादुरशाह जफर के कविताई के गुरु थे। 11 मई 1857 को दिल्ली में विप्लव आरम्भ होने से लेकर 21 सितम्बर 1857 को विप्लव समाप्त होने तक गालिब ने दिल्ली नहीं छोड़ी। क्रांति समाप्त हो जाने के बाद गालिब ने लिखा है-
‘दिल्ली में न अब कोई सौदागर है न खरीदार! न कोई दुकानदार जिससे आटा खरीद सकें। धोबी, नाई और सफाई वाले सब दिल्ली से गायब हो गए थे। हमने अपने मौहल्ले की गली को पत्थरों के एक ऊंचे से ढेर से बंद कर लिया है। गली के सारे लोग पत्थरों के ढेर की आड़ में खड़े होकर पहरा देते हैं।
हमने पानी के उपयोग में बड़ी किफायत की किंतु अब घड़ों और कटोरों में पानी ख्त्म हो गया। हमें लगा कि हम भूखे और प्यासे ही मर जाएंगे। फिर एक दिन बादल आए और दिल्ली में तेज बारिश हुई। हमने अपनी चादरें तान दीं तथा उनके नीचे घड़े और बर्तन रख कर पानी भर लिया। हम प्यासे मरने से बच गए।’
गालिब के भाई को कम्पनी सरकार के सिपाहियों ने गोली मार दी किंतु शव के अंतिम स्नान के लिए न तो पानी बचा था और न शव को कब्र तक पहुंचाने के लिए आदमी बचे थे। 5 अक्टूबर 1857 को अंग्रेज सिपाही गालिब के मौहल्ले में घुस गए।
उन्होंने सबको बांध लिया ताकि उन पर मुकदमा चलाकर उन्हें भी मौत की सजा दी जा सके। जब कुछ सिपाही मिर्जा गालिब को पकड़ने लगे तो उन्होंने लंदन की ब्रिटिश सरकार के भारत सचिव का अंग्रेजी में लिखा एक पत्र दिखाया।
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इस पर अंग्रेज सिपाही मिर्जा गालिब को पकड़कर कर्नल बर्न के पास ले गए। गालिब ने कर्नल के सामने जाने से पहले नए कपड़े पहने तथा सिर पर एक नई तुर्की टोपी लगाई और वही पत्र लेकर बर्न के समक्ष उपस्थित हुए। कर्नल ने पूछा- ‘मुसलमान हो!’
गालिब ने कहा- ‘आधा!’
कर्नल ने पूछा- ‘आधा कैसे!’
इस पर गालिब ने कहा- ‘शराब पीता हूँ लेकिर सूअर नहीं खाता।’
इस पर कर्नल हंस पड़ा। गालिब ने अपनी जेब से कागज निकालकर कर्नन बर्न को दिखाया। कर्नल ने पूछा- ‘यह क्या है?’
इस पर गालिब ने कहा- ‘मैंने मलिका विक्टोरिया की शान में एक कविता लिखकर इंग्लैण्ड भेजी थी उसके जवाब में यह खत भारत के मिनिस्टर ने मुझे भेजा था।’
इस पर कर्नल बर्न ने गालिब से पूछा- ‘यदि तुम हमारे इतने शुभचिंतक हो तो जब अंग्रेज रिज पर शरण लिए हुए थे तब तुम रिज पर क्यों नही आए?’
इस पर गालिब ने जवाब दिया- ‘मैं बहुत बूढ़ा हूँ, इस कारण नहीं आ सका किंतु आपकी फतह की दुआएं करता रहा।’
गालिब के जवाब सुनकर कर्नल बर्न ने उन्हें जीवित छोड़ दिया किंतु गालिब जैसे भाग्यवान बहुत कम ही थे जो अंग्रेजों के हाथों में पड़कर भी जीवित बचे। गालिब का अनुमान था कि अब दिल्ली में केवल एक हजार मुसलमान थे जो धरती में खड्डे खोदकर अथवा मिट्टी की झौंपड़ियों में छिपे हुए थे। गालिब अपने मुहल्ले में जीवित बचने वालों में से अकेले थे और अब उनकी कविताएं सुनने वाला कोई नहीं था।
कुछ बड़े सेठ-साहूकारों, अमीर बनियों, दुकानदारों एवं सौदागरों ने दिल्ली के परकोटे से बाहर झौंपड़ियां एवं कच्ची दीवारें खड़ी कर लीं और उनमें रहने लगे। इस पर नवम्बर महीने में अंग्रेजों ने आदेश जारी किया कि इन झौंपड़ियों को तत्काल तोड़ दिया जाए। इस पर इन परिवारों को ये झौंपड़ियां खाली करके निकटवर्ती जंगलों में चले जाना पड़ा। बहुत सी निर्दोष और धनी परिवरों की स्त्रियां छोटे-छोटे बच्चों के साथ दिल्ली के बाहर जंगलों में छिपी हुई थीं। उनके पास खाने-पीने को कुछ नहीं था, उनके बच्चे तिल-तिल कर मर रहे थे। गालिब ने लिखा है कि बदले की आग में जल रहे इन अंग्रेजों ने इंसानियत बिल्कुल खो दी है।
एक दिन दिल्ली गजट का सब-एडीटर वैगनट्राइवर दिल्ली शहर से बाहर निकला। वह यह देखकर दंग रह गया कि दिल्ली के चारों ओर इंसान मरे पड़े थे। कुत्तों एवं जंगली जानवरों ने बहुत से इंसानों और जानवरों के शव चीर-फाड़ कर खोल दिए थे। उनकी हड्डियां चारों ओर बिखरी पड़ी थीं।
बहुत से ऊंट, बैल तथा घोड़ों के शव धूप में सूख गए थे और उनके चमड़े उनके कंकालों से चिपक गए थे। पूरे वातावरण में मांस सड़ने की दुर्गंध फैली हुई थी।
हजारों पेड़ दिल्ली शहर से चलाई गई तोपों के गोलों से टूट गए थे, बहुत से पेड़ अधजले पड़े थे। दूर-दूर तक इन शवों के फैले हुए होने से आसपास के लोगों में महामारी फैल गई और वे बिना दवा और बिना भोजन के मरने लगे। इस पर अंग्रेजों ने आदेश जारी किया कि केवल हिन्दू परिवार लौट कर अपने घरों में आ सकते हैं। कोई भी मुसलमान बिना विशिष्ट अनुमतिपत्र लिए परकोटे के भीतर नहीं आ सकता था। उनके घरों पर निशान लगा दिए गए थे और उन्हें अपने वफादारी के सबूत देने होते थे।
कुछ मुसलमान अब भी दिल्ली के मकबरों और उनके आसपास शरण लिए हुए थे। उनमें से कुछ लोग पेड़ों पर चढ़कर दूर तक देखते रहते। यदि काई खाकी वर्दी वाला सिपाही उनकी तरफ आता हुआ दिखाई देता तो बाकी के लोग भी मकबरों से निकलकर उन पेड़ों पर चढ़ जाते।
फिर भी कुछ लोग तो नित्य ही पकड़े जा रहे थे। जो लोग किसी भी तरह से लाल किले से सम्बन्धित पाए जाते थे, उन्हें थोड़ी देर के मुकदमे का सामना करना होता था और उन्हें शीघ्र ही फांसी या गोली दे दी जाती थी।
दिल्ली से बाहर निजामुद्दीन दरगाह के आसपास कई हजार मुसलमान परिवार शरण लिए हुए थे किंतु जब उनमें महामारी फैल गई तो उनमें बहुतों को बिना गोली और बिना फांसी ही मौत आ गई!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता