अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति में दिल्ली के लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ खुली बगावत की थी किंतु अब अंग्रेज दिल्ली में वापस लौट आए थे और अब बारी थी दिल्ली को दण्ड देने की।
दिल्ली को दण्ड देना आसान नहीं था क्योंकि दिल्ली के अधिकांश लोग या तो मार दिए गए या भाग गए थे। इसलिए अंग्रेजों ने एक उपाय सोचा। उन्होंने दिल्ली के खाली पड़े घरों को लूटने का काम आरम्भ किया। इस प्रकार अब उन लोगों के घर लूटे जाने थे जिन्होंने कुछ दिन पहले अंग्रेजों के घर लूटे थे या दिल्ली के सेठ साहूकारों की हवेलियों को लूटकर अपने घरों में हीरे-मोती, माणक और पुखराज छिपा लिए थे।
वे गुण्डे भी अब तक मारे जा चुके थे या दिल्ली से भाग गए थे किंतु उनके द्वारा छिपाया गया लूट का अधिकांश माल अब भी घरों के तहखानों, दीवारों, आलों, छतों एवं दुछत्तियों में छिपा हुआ था। बहुत से हीरे और आभूषण घरों के आंगन अथवा आसपास की भूमि को खोदकर उनमें छिपा दिए गए थे।
कम्पनी सरकार ने इस माल का पता लगाने के लिए वसूली एजेंटों की नियुक्तियां कीं तथा उन्हें दिल्ली के घरों में से माल वसूल करने के लिए सिपाहियों के दस्ते दिए गए। इन एजेंटों एवं उनके सिपाहियों ने दिल्ली का एक भी घर ऐसा नहीं छोड़ा जिसकी दीवारें तोड़कर माल नहीं ढूंढा हो या धरती खोदकर सोने-चांदी के आभूषण और बर्तन नहीं निकाले हों!
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कम्पनी सरकार के जो सिपाही कल तक बंदूकें, तोपें और गोलियां चला रहे थे, अब वे छैनी, हथौड़ी, फावड़े और गैंती चला रहे थे। बहुत से घरों के तहखानों में बूढ़े, असहाय और बीमार लोग छिपे हुए मिले, उन्हें सड़कों पर घसीट कर मारा गया ताकि वे दीवारों एवं धरती में छिपाए गए माल की जानकारी दे दें।
जिन दिनों दिल्ली को दण्ड की कार्यवाही चल रही थी, उन्हीं दिनों वसूली एजेंट म्यूटर की पत्नी ने अपनी डायरी में लिखा-
‘मेरे पति सुबह नाश्ता करने के बाद निकल जाते थे। उनके साथ कुलियों का एक दल लोहे की सलाखें, हथौड़े, और नापने के फीते लेकर चलता था। यदि किसी घर के बारे में पता चलता कि वहाँ खजाना हो सकता है, तो उसे पूरा एक दिन दिया आता और काम की शुरुआत सूक्ष्मता से घर का अध्ययन करने से होती। ऊपर की छतों और नीचे के कमरों को नापने से छिपी हुई जगह का पता चल जाता।
फिर दीवारें तोड़ी जातीं और यदि कोई चोर कमरा या ताक बना हुआ होता तो उसको ढूंढा जाता और उसमें से माल निकाल लिया जाता। ….. एक बार वे तेरह छकड़े भरकर सामान लाए जिनमें दूसरी चीजों के साथ-साथ अस्सी हजार रुपए भी थे अर्थात् आठ हजार ब्रिटिश पाउंड। एक बार और उन्हें चांदी के बर्तन, सोने के जेवर और एक हजार रुपयों का थैला मिला।’
चार्ल्स गिफ्थ ने लिखा है- ‘कुछ ही दिनों में माल एजेंटों के कमरे हर तरह के खजाने से भर गए। जेवरात, हीरे, याकूत, जर्मरूद, मुर्गी के अण्डों के आकार के मोती, छोटे मोतियों की मालाएं, सोने के आभाूषण एवं बर्तन, बेहतरीन कारीगरी वाली सोने की जंजीरें, सोने के ठोस कड़े एवं चूड़ियां, कई-कई बार लुटती हुई अंततः अंग्रेजों के हाथों में चली आई थीं।’
ई.1857 की क्रांति के बाद जब कम्पनी सरकार की सेनाओं ने दिल्ली के क्रांतिकारी सैनिकों, शहजादों, सलातीनों तथा आम जनता को मार दिया तो कुछ ऐसे लोगों की बारी आई जिन्होंने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों का साथ दिया था। आखिर वे थे तो भारतीय ही और उनकी चमड़ी का रंग भी अंग्रेजों की चमड़ी के रंग से अलग था! बहुत से जासूसों एवं सहायकों के पास अंग्रेज अधिकारियों के हाथों से लिखे हुए प्रमाण थे कि उन्होंने संकट काल में अंग्रेजों की सहायता की थी किंतु मेजर जनरल विल्सन ने आदेश जारी किया कि किसी भी सुरक्षा पत्र को तब तक स्वीकार न किया जाए जब तक कि उस पर मेरे हस्ताक्षर नहीं हों। चार्ल्स ग्रिफ्थ ने लिखा है- ‘शासन के शत्रु और मित्र सभी को बराबर रूप से यह संकट झेलना पड़ा।’
मुंशी जीवन लाल विलियम हॉडसन के तीन प्रमुख जासूसों में से एक था, उसे बागियों ने कई बार मारने की चेष्टा की थी किंतु वह अभी तक जीवित बचा हुआ था। एक दिन उसे हॉडसन्स हॉर्स के सिक्ख सिपाहियों ने पकड़ लिया और उसे खूब अच्छी तरह से मारपीट कर उससे वह सारा माल निकलवा लिया जो उसने धरती में गाढ़ दिया था।
इलाही बख्श जिसने विलियम हॉडसन का विश्वास जीतने के लिए अपनी बेटी के पुत्र अबू बकर तक से गद्दारी करके उसे मौत के मुंह में धकेल दिया था, उसे भी अंग्रेजी सिपाहियों ने पकड़ लिया और खूब पीटा। उसके घर का सारा माल वसूली एजेंट और उसके सिपाही लूटकर ले आए। अंग्रेजों ने इलाही बख्श को ‘दिल्ली का गद्दार’ कहकर उसकी भर्त्सना की।
दिल्ली में गदर आरम्भ होने से बहुत पहले ही दिल्ली के कुछ प्रमुख लोग ईसाई बन गए थे जिनमें डॉ.चमन लाल, ताराचंद तथा रामचंद्र प्रमुख थे। डॉ. चमनलाल तो 11 मई को दिल्ली में गदर आरम्भ होने वाले दिन ही मेरठ से आए सिपाहियों द्वारा मार दिया गया था, ताराचंद का क्या हुआ, कुछ ज्ञात नहीं होता किंतु रामचंद्र अभी तक जीवित था। वह अपने घर के तहखाने में छिपा हुआ मिल गया।
वह अंग्रेजों का विश्वस्त व्यक्ति था इसलिए उसे बड़े अंग्रेज अधिकारियों ने पहचान लिया तथा रामचंद्र को वसूली एजेंट नियुक्त करके उसके घर के आगे कुछ अंग्रेज सिपाही तैनात कर दिए ताकि कोई भी व्यक्ति रामचंद्र को तंग न करे किंतु जब रात हुई तो वही अंग्रेज सिपाही रामचंद्र को पीटने लगे और उसका माल लूट कर ले गए। इस प्रकार अंग्रेजों द्वारा दिल्ली को भलीभांति दण्ड दिया जा रहा था।
रामचंद्र का मुख्य कार्य अंग्रेज अधिकारियों के साथ रहकर मस्जिदों, मकबरों एवं मकानों से मिलने वाले उन दस्तावेजों को पढ़ना था जो उर्दू लिपि में लिखे हुए होते थे। चूंकि रामचंद्र ईसाई था और उसे उर्दू पढ़नी आती थी इसलिए इस कार्य के लिए उससे अधिक उपयुक्त एवं विश्वसनीय व्यक्ति और कोई हो ही नहीं सकता था। यदि वे यह काम किसी हिन्दू या मुसलमान से करवाते तो उसके द्वारा झूठ बोले जाने की पूरी आशंका थी!
रामचंद्र ने अपने संस्मरणों ने लिखा है- ‘एक दिन मैं एडवर्ड कैम्पबैल के घर से अपने घर वापस आ रहा था। उसी समय एडवर्ड औमेनी अपने घोड़े पर बैठकर निकला। औमेनी ने मुझे देखते ही मुझ पर ताबड़तोड़ डण्डे बरसाए। इस पर मैंने कहा कि मैं ईसाई हूँ, तो भी उसने मुझे पीटना जारी रखा।
….. यदि मैं अंग्रेजों के हाथों मारा भी जाता तो मुझे कोई दुख नहीं होता क्योंकि स्वयं ईसा मसीह से लेकर ईसाई धर्म के हजारों संतों को पहले भी जान से मारा जा चुका था। यदि मैं भी मारा जाता तो ईसाई धर्म की बेहतर सेवा करने का अवसर प्राप्त करता।’
लोअर कोर्ट का मजिस्ट्रेट थियो मेटकाफ जो बागियों के हाथों में पड़कर मरते-मरते बचा था, उसके मन में दिल्ली के मुसलमानों की प्रति इतनी घृणा थी और उसने अपना बदला लेने के लिए दिल्ली में इतनी हिंसा की थी कि अंग्रेज स्वयं भी उसे सिरफिरा एवं विवेकहीन मानने लगे थे।
एक बार थियो मेटकाफ के बहनाई एडवर्ड कैम्पबैल को एक लुटेरे के घर से एक नक्कासीदार कुर्सी मिली जो थियो मेटकाफ के घर से लूटी गई थी। थियो मेटकाफ ने उस कुर्सी पर अपना दावा जताया किंतु कैम्पबलैल ने उसे कम्पनी सरकार के मालखाने में जमा करवा दिया तथा उसने थियो मेटकाफ की सूचित किया कि उसे वह कुर्सी कम्पनी सरकार से खरीदनी पड़ेगी।
हालांकि थियो मेटकाफ चाहता था कि उसे दिल्ली से लूटे जा रहे माल में से हिस्सा मिलना चाहिए क्योंकि उसने बागियों को कुचलने के लिए उस सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व किया था जिसने जामा मस्जिद पर चढ़ाई की थीं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता