लालकिले की गंदी कोठरियाँ दिल्ली में स्थित एक रहस्यमयी दुनिया थी। दिल्ली वालों को इनके बारे में कुछ कहानियां ज्ञात थीं किंतु उनकी सच्चाई के बारे में कोई नहीं जानता था। जब लाल किले की एक बड़ी सी दीवार को तोड़कर सलातीनों को मुक्त करवाया गया तो लालकिले की गंदी कोठरियाँ जनता के सामने प्रकट हो गईं।
अंग्रेज अधिकारी बहादुर शाह जफर को हुमायूँ के मकबरे के तहखाने से पकड़ने में सफल हो गए। वे बूढ़े बादशाह को फिर से लाल किले में ले आए जहाँ लाल किले की गंदी कोठरियाँ उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं। अंग्रेजों ने बहादुरशाह जफर को गंदी कोठरी में ठूंस दिया!
जब 20 सितम्बर 1857 की रात्रि में विलियम हॉडसन बूढ़े बादशाह और उसकी औरतों को पकड़कर लाल किले में लाया था, तब उन सबको किले में स्थित जीनत महल की हवेली में रखा गया था। इस बात पर बहुत से अंग्रेजों ने आपत्ति की कि कम्पनी के अपराधी को इस तरह ऐशो-आराम में रखा जा रहा है!
इस पर दिल्ली के कमिश्नर चार्ल्स साण्डर्स ने लाल किले में नियुक्त अंग्रेज अधिकारियों से कहा कि वे बादशाह के लिए किले के भीतर ही कोई कोठरी ढूंढें। बादशाह के साथ शाही हरम से जुड़ी हुई कुल 82 औरतों, 47 बच्चों एवं 2 ख्वाजासरों को भी रखा जाना था।
बादशाह तथा उसके खानदान को जीनत की हवेली से निकालकर उन कोठरियों में भेज दिया गया जहाँ बगावत होने से पहले सलातीन रहा करते थे। पाठकों की सुविधा के लिए बता देना उचित होगा कि बाबर से लेकर बहादुरशाह जफर के तमाम पूर्वजों एवं उनके भाइयों की औलादों को सलातीन कहा जाता था। शीघ्र ही इन कोठरियों में हैजा फैल गया जिससे कुई बेगमें और अन्य व्यक्ति मर गए।
पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-
उच्च अंग्रेज अधिकारी तथा उनकी औरतें बादशाह तथा उसकी बेगमों से मिलने के लिए इन कोठरियों में आते थे। मिसेज कूपलैण्ड नामक एक अंग्रेज स्त्री ने लिखा है-
‘हम एक छोटे, गंदे और नीचे कमरे में दाखिल हुए। वहाँ एक नीची चारपाई पर एक दुबला सा बूढ़ा आदमी गंदे से सफेद कपड़े पहने और एक मैली रजाई ओढ़कर झुका हुआ बैठा था। हमारे आते ही उसने हुक्का अलग रख दिया और वह शख्स जिसके सामने जूते पहनकर खड़े होना एवं उसके सामने बैठ जाना भी बेअदबी समझी जाती थी, अब हमें बड़ी बेचारगी से सलाम करने लगा और कहने लगा कि उसे हमसे मिलकर बड़ा कूशी हुआ।’
एक अन्य प्रत्यक्षदर्शी ने लिखा है- ‘बादशाह एक छोटे से कमरे में बंद हैं जहां सिर्फ एक चारपाई पड़ी है। उन्हें खाने के लिए दिन में सिर्फ दो आने मिलते हैं। सारे अफसर और सिपाही उनसे बहुत बेइज्जती का सुलूक करते हैं। उनकी बेगमात एवं शहजादियां उनके साथ कैद हैं।
वे बेचारी बदकिस्मत औरतें जिनका कोई अपराध नहीं है, वे भी उन अंग्रेज अधिकारियों एवं सिपाहियों की गंदी आंखों का निशाना बनती हैं जो जब चाहते उनके कमरे में चले जाते हैं। सबसे निचले वर्ग की औरत के लिए यह बहुत शर्म की बात है।
जब भी कोई पुरुष इन शाही बेगमों एवं शहजादियों के कमरों में आता है तो ये दीवार की तरफ मुंह फेर लेती हैं। बादशाह को देखने आने वाले अंग्रेजों में से बहुतों को इस तरह औरतों का पर्दा तोड़कर बादशाह के परिवार को अपमानित करने में बहुत मजा आता है।’
मिसेज कूपलैण्ड ने लिखा है- ‘शाही परिवार के रस्मो-रिवाज का लिहाज करना बेवकूफी है क्योंकि उन्होंने यूरोपियन लोगों की बेइज्जती करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।’
एक बार जॉन लॉरेंस ने चार्ल्स साण्डर्स से कहा- ‘वह बादशाह तथा उसके परिवार पर ज्यादा मेहरबानी न दिखाए। बादशाह या उसके खानदान का कोई भी व्यक्ति अच्छे व्यवहार का हकदार नहीं है। आजकल जो हालात हैं, उन्हें देखते हुए बादशाह के साथ रियायत या नरमी बरतना बहुत बड़ी गलती होगी।’
कुछ दिनों बाद लेफ्टिनेंट ओमेनी को यह दायित्व मिला कि वह मिर्जा जवांबख्त से पूछे कि बगावत की शुरुआत कैसे हुई थी। चूंकि जवांबख्त ने इस गदर में हिस्सा नहीं लिया था इसलिए अंग्रेजों को आशा थी कि जवांबख्त उन्हें बहुत सी ऐसी बातें बता देगा जो अंग्रेजों को अब तक पता नहीं हैं। जबकि वास्तविकता यह थी कि जवांबख्त की माँ बेगम जीनत महल ने जवांबख्त को क्रांतिकारियों से इतनी दूर रखा था कि जवांबख्त को कुछ भी पता नहीं था। इस कारण वह अंग्रेजों को कुछ भी नहीं बता पाया। इस पर अंग्रेजों ने समझा कि जवांबख्त जानबूझ कर जानकारी नहीं दे रहा है। इसलिए ओमेनी ने चतुराई से काम लेने का निर्णय लिया।
उसने शहजादे जवांबख्त को हाथी पर बैठाकर चांदनी चौक की सैर करवाई तथा उसे आश्वासन दिया कि यदि उसने बगावत करने वालों के बारे में गुप्त जानकारियां दीं तो उसका जीवन इसी प्रकार आराम से कटेगा किंतु जवांबख्त के पास कोई जानकारी थी ही नहीं। इसलिए उसे फिर से उन्हीं गंदी कोठरियों में ठूंस दिया गया। लालकिले की गंदी कोठरियाँ ही अब उनके नसीब में लिखी थीं।
जब जवांबख्त को हाथी पर बिठाए जाने का समाचार लाहौर क्रॉनिकल में प्रकाशित हुआ तो इंग्लैण्ड में लेफ्टिनेंट ओमेनी के विरुद्ध खूब जहर उगला गया कि एक अंग्रेज अधिकारी भारत के बागियों को हाथी पर बैठाकर चांदनी चौक की सैर करवा रहा है। वह जहरीले सांप के अण्डों तथा बच्चों की सेवा कर रहा है।
लाहौर क्रॉनिकल में भारतीय मुसलमानों के विरुद्ध काफी जहर उगला गया तथा इस बात की वकालात की गई कि जामा मस्जिद सहित समस्त को या तो चर्च में बदल दिया जाए या उन्हें ढहा दिया जाए।
मिसेज कूपलैंण्ड ने अपने संस्मरणों में लिखा है- ‘मैं समझती हूँ कि यह इंग्लैण्ड का अपमान है कि अंग्रेजों के खून से भीगी हुई दिल्ली की सड़कें और दीवारें आज भी मौजूद हैं!’
जब इंग्लैण्ड में भारत में नियुक्त अंग्रेजों की आलोचनाएं होने लगीं तो एल्सबरी का भूतपूर्व सांसद हेनरी लेयर्ड बहादुरशाह जफर से मिलने दिल्ली आया। उसने लिखा है-
‘बहुत से लोगों का कहना है कि दिल्ली के बादशाह को अपराधों की पूरी सजा नहीं मिली है। मैंने दिल्ली के बादशाह को अपनी आंखों से देखा। उनके साथ जो बर्ताव किया गया है, वह इंग्लैण्ड जैसे महान राष्ट्र के लिए शोभा नहीं देता है। मैंने उस दयनीय वृद्ध मनुष्य को देखा, एक कमरे में नहीं अपितु अपने महल की की एक गंदी कोठरी में। वह एक खुरदरी खाट पर फटी हुई रजाई ओढ़े हुए पड़ा था।
उसने मुझे अपनी बाहें दिखाईं जिन पर बीमारी के कारण घाव हो गए थे तथा जिन पर मक्खियां बैठती थीं। उनके शरीर में पानी की आंशिक कमी है। उन्होंने मुझसे अत्यंत दयनीय होकर कहा कि मुझे खाने को भी पूरा नहीं मिलता। क्या यही तरीका है जो ईसाई होने के नाते हमें एक बादशाह से बरतना चाहिए? मैंने उनके हरम की औरतों को देखा जो अपने बच्चों के साथ एक कौने में दुबकी हुई थीं। मुझे बताया गया कि उन्हें रोटी खाने के लिए प्रतिदिन 16 शिलिंग मिलते हैं। क्या यह सजा काफी नहीं है, उस शख्स के लिए जिसने एक दिन तख्त पर बैठकर हुकूमत की थी?’
विलियम डैलरिम्पल ने लिखा है कि लालकिले की गंदी कोठरियाँ भले ही कितनी ही गंदी क्यों न हों, शाही खानदान के हालात चाहे जितने भी खराब हों किंतु वह दिल्ली के आम नागरिकों से अच्छे थे जो इधर-उधर गांवों में या मकबरों और खण्डहरों में शरण लिए हुए थे और जंगली फलों को खाकर या गांवों में भीख मांगकर पेट भरने का असफल प्रयास कर रहे थे। ऐसे अनगिनत लोग पेट की भूख से मर गए। इतिहास की पुस्तकों में इनका उल्लेख तक नहीं हुआ।
कुछ अंग्रेजों ने अभियान चलाया कि बहादुरशाह को फांसी पर चढ़ाया जाए तथा पूरी दिल्ली को नष्ट कर दिया जाए। मेजर जनरल आटरम तो स्वयं भी चाहता था कि दिल्ली को जला दिया जाए किंतु उसका वश नहीं चल रहा था। अंग्रेजों ने मेजर जे. एफ. हैरियट को एडवोकेट जनरल नियुक्त किया ताकि वह बहादुरशाह पर मुकदमा चलाने की कार्यवाही आरम्भ कर सके।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता