दिल्ली की जामा मस्जिद मूलतः एक हिन्दू मंदिर था जो मुसलमानों के भारत में आने से कई सौ साल पहले से दिल्ली की धरती पर विष्णु भगवान को समर्पित करके बनाया गया था। यह हिन्दू कला, स्थापत्य एवं शिल्प का अनूठा उदाहरण होता। यदि मुसलमानों ने इसे जामा मस्जिद में नहीं बदला होता तो यह आज विश्व के आश्चर्यों में से एक होता। अंग्रेज जामा मस्जिद तो तोड़कर उसे पूरी तरह धूल में मिला देना चाहते थे किंतु जॉन लॉरेंस ने लाल किले की तरह जामा मस्जिद को भी बचा लिया। दिल्ली से मुगलों का नामोनिशान मिटा देना चाहते थे अंग्रेज!
जॉन लॉरेंस के विरोध एवं निरंतर आदेशों के उपरांत भी कुछ जुनूनी अंग्रेज दिल्ली को ढहाते जा रहे थे। अंग्रेजों के मुख्य शत्रु मुगल एवं उनकी कौम के लोग लोग थे। इसलिए अकबराबादी मस्जिद, कश्मीरी कटरा मस्जिद, शेख कलीमुल्लाह जहानाबादी का मकबरा, मौलवी मुहम्मद बाकर का इमामबाड़ा, दरीबे का बड़ा दरवाजा तथा बुलाकी बेगम का मुहल्ला ढहा दिए गए। जामा मस्जिद के चारों ओर का इलाका साफ करके 70 गज चौड़ा मैदान बना दिया गया।
दिल्ली के चार अत्यंत भव्य महल नष्ट कर दिए गए। झज्झर, बहादुरगढ़ और फर्रूखनगर के नवाब तथा वल्लबगढ़ के राजा को फांसी पर चढ़ाने के बाद दिल्ली स्थित उनकी हवेलियों को धूल में मिला दिया गया।
शाहजहाँ की पुत्री जहांआरा द्वारा बनवाई गई कारवां की सराय भी तोड़ डाली गई जिसमें देश-विदेश से आने वाले यात्रियों को ठहराया जाता था। अब इस इमारत के कुछ खण्डहर ही दिखाई पड़ते हैं। शालीमार बाग को खेती के लिए बेच दिया गया। बेगम बाग को क्वीन्स गार्डन में बदल दिया गया।
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चांदनी चौक की पुरानी गली के पश्चिमी छोर पर फतेहपुरी मस्जिद स्थित थी। इसका निर्माण शाहजहाँ की बेगम फतेहपुरी ने ई.1650 में करवाया था। लाल पत्थरों से बनी यह मस्जिद मुगल वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना थी। अंग्रेज़ों ने इस मस्जिद को नीलाम कर दिया। राय लाला चुन्नामल ने इस मस्जिद को 19,000 रुपए में खरीद लिया किंतु उसने इस मस्जिद के मूल स्वरूप को वैसा ही रहने दिया। ई.1877 में भारत सरकार ने फतेहपुरी मस्जिद चार गांवों के बदले में वापस अधिग्रहीत करके मुसलमानों को दे दी। लाला चुन्नामल के वंशज आज भी चांदनी चौक में चुन्नामल हवेली में रहते हैं।
अंग्रेजों ने अकबराबादी बेगम द्वारा बनवाई गई मस्जिद पूरी तरह नष्ट कर दी। मुसललानों की अधिकतर सम्पत्तियों को चुन्नामल तथा रामजी दास जैसे खत्री मुंशी वर्ग ओर जैन बैंकरों ने खरीद लिया। ये उन लोगों में से थे जिनके पास गदर की आंधी गुजर जाने के बाद भी कुछ धन बचा हुआ था। नील का कटरा में रहने वाले कुछ सेठों ने समय रहते ही अंग्रेजों को एक मुश्त राशि देकर अपने घरों को लुटने एवं नष्ट होने से बचा लिया था। एक अन्य हिन्दू बैंकर ने जीनतुल मसाजिद खरीद ली जो पूरी बगावत के दौरान जिहादी बगावत का मुख्य केन्द्र रही थी। जीनतुल मस्जिद ई.1905 के आसपास वापस मुसलमानों को दिलवाई गई।
जामा मस्जिद पर सिक्ख सेना का अधिकार हो गया। यह मस्जिद ई.1862 में फिर से मुसलमानों को लौटाई गई। गदर फूटने से पहले दिल्ली के मुगलों को मदरसा ए रहीमिया पर बड़ा गर्व था, उसे रामजीदास नामक एक सेठ ने खरीद लिया और गोदाम बना दिया। एडवर्ड कैंपबैल ने लिखा है- ‘दिल्ली की सब दौलत चुन्नामल तथा महेश दास जैसे एक-दो लोगों के कब्जे में है।’
जे.एफ. हैरियट ने बादशाह को फांसी दिलवाने के बहुत प्रयास किए थे किंतु उसकी पत्नी हैरियट टाइटलर को दिल्ली के नष्ट हो जाने पर असीम दुख हुआ। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है- ‘दिल्ली अब सचमुच शवों का नगर बन गई है। नगर की चुप्पी मृत्यु जैसी कष्टप्रद है। थोड़े से घर साबुत बचे हैं किंतु वे पूरी तरह खाली पड़े हैं।’
आतताई अंग्रेजों द्वारा दिल्ली में किए जा रहे हिंसा के ताण्डव ने दिल्ली में बहुत कुछ बर्बाद कर दिया किंतु चीफ कमिश्नर जॉन लॉरेंस भी जी जान से दिल्ली को बचाने में जुटा रहा। उसके प्रयासों से हिन्दू जनता शांत होकर बैठ गई।
दिल्ली की जनता के मन में अंग्रेजों के प्रति इस गदर से पहले जो नफरत थी, उसमें कोई अंतर नहीं आया किंतु उनके लिए अंग्रेजों का शासन उन मुगलों से बेहतर था इतने कमजोर होकर भी सत्ता का केन्द्र बने रहने का नाटक करते थे। इन कमजोर मुगलों से न उनसे कुछ करते बनता था और न वे सत्ता से विलग होना चाहते थे।
अब हिंदुओं के लिए यही संतोष की बात थी कि सत्ता का केन्द्र दो जीभ वाले विषैले सर्प की बजाए एक जीभ वाले विषैले सर्प के पास आ गया था। हिन्दू जनता इस बात को समझ रही थी कि जो न फरत घृणा और हिंसा अंग्रेजों और मुसलमानों के मन में एक-दूसरे के लिए थी, वैसी नफरत, घृणा और हिंसा हिंदुओं और अंग्रेजों के बीच नहीं थी। इसलिए हिन्दू जनता फिर से अपने घरों और दुकानों को खड़ा करने में जुट गई किंतु दिल्ली के मुसलमान परिवारों की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं लेती थीं।
संभवतः उस काल में पंजाब एवं दिल्ली का चीफ कमिश्नर जॉन लॉरेंस ही एकमात्र अंग्रेज अधिकारी था जो हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमानों की तकलीफों को भी समझता था और उनसे सहानुभूति रखता था किंतु अधिकतर अंग्रेज अधिकारी मुसलमानों को ही बागी मान रहे थे, इसलिए उनके साथ रियायत बरतने को तैयार नहीं थे।
फरवरी 1859 में जॉन लॉरेंस को इंग्लैण्ड भेज दिया गया। इंग्लैण्ड में लॉरेंस का स्वागत नायकों की तरह किया गया। स्वयं महारानी विक्टोरिया ने उसे अपने महल में बुलाकर उसकी सेवाओं की प्रशंसा की। आज भारत के हिन्दू और मुस्लिम भले ही जॉन लॉरेंस की शांति पूर्वक दी गई सेवाओं को याद नहीं रख पाते हों किंतु वास्तविकता यह है कि इस शांति-दूत ने सैंकड़ों निर्दोष भारतीयों को फांसी के फंदों से खींचकर उन्हें जीवन प्रदान किया।
कम्पनी सरकार ने जॉन लॉरेंस को दो हजार पौण्ड की वार्षिक पेंशन स्वीकृत की। महारानी की सरकार ने जॉन लॉरेंस को प्रिवी काउंसलर नियुक्त किया, काउंसिल ऑफ इण्डिया का सदस्य बनाया तथा कई बड़े पदक एवं सम्मान दिए। बैरन एवं सर की उपाधियां उस पर न्यौछावर की गईं। जॉन लॉरेंस को निर्दोष भारतीयों के प्राण बचाने का असीम पुण्य तब प्राप्त हुआ जब जनवरी 1864 में उसे भारत का गवर्नर जनरल एवं वायसराय बना दिया गया।
थियो मेटकाफ को भी ऑर्डर ऑफ बाथ दिया गया किंतु उसका इससे अधिक सम्मान नहीं किया गया। उसने उपेक्षित सा जीवन जिया तथा ई.1883 में केवल 54 साल की उम्र में लंदन में मर गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता