बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रसार
छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व से लेकर छठी शताब्दी ईस्वी तक भिक्षुओं, राजाओं एवं कतिपय विदेशी यात्रियों के प्रयत्नों से बौद्ध धर्म मध्य एशिया, चीन, तिब्बत, बर्मा, अफगानिस्तान, यूनान आदि देशों तथा दक्षिण-पूर्वी एशियाई द्वीपों तथा फैल गया। भारत एवं चीन के मार्ग पर स्थित खोतान प्रदेश में बौद्ध धर्म का खूब प्रचार हुआ। बौद्ध धर्म के विदेशों में प्रचार का कार्य मगध के मौर्य सम्राट अशोक के काल (ई.पू.268-ई.पू.232) में आरम्भ हुआ।
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए श्रीलंका, बर्मा, मध्य एशिया तथा पश्चिमी एशियाई देशों में अपने प्रचारक भेजे। अशोक के शिलालेखों से पता चलता है कि बौद्ध प्रचारकों ने सीरिया, मेसोपोटामिया तथा यूनान में मेसीडोनिया, एरिच तथा कोरिन्थ आदि राज्यों में जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। अशोक ने धम्म का दूर-दूर तक प्रचार करने के लिए धर्म विजय का आयोजन किया।
उसने भारत के भिन्न-भिन्न भागों तथा विदेशों में अपने धर्म के प्रचार का प्रयत्न किया। उसने दूरस्थ विदेशी राज्यों के साथ मैत्री की और वहाँ पर मनुष्यों तथा पशुओं की चिकित्सा का प्रबंध किया। उसने इन देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने तथा हिंसा को रोकने के लिए उपदेशक भेजे। उसने अपने पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा को धर्म का प्रचार करने के लिए सिंहलद्वीप अर्थात् श्रीलंका भेजा।
अशोक के धर्म प्रचारक बड़े ही उत्साही तथा निर्भीक थे। उन्होंने मार्ग की कठिनाईयों की चिन्ता न कर श्रीलंका, बर्मा, तिब्बत, जापान, कोरिया तथा पूर्वी द्वीप-समूहों में धर्म का प्रचार किया।
चीन में सम्राट मिंगती के समय बौद्ध धर्म का अत्यधिक प्रसार हुआ। इस काल में बड़ी संख्या में बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद हुया। सर्वप्रथम कश्यप मातंग ने चीनी भाषा में बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद किया। कुछ चीनी यात्रियों ने भारत में आकर बौद्ध धर्म का अध्ययन किया तथा कुछ ग्रंथों को चीन ले जाकर उनका चीनी भाषा में अनुवाद किया। इन ग्रंथों के कारण बौद्ध धर्म का चीन तथा तिब्बत में प्रचार हो गया।
प्रारम्भिक ईस्वी शताब्दियों में कुमार जीव, गुणवर्मन, बुद्धयश, पुण्यत्रात, गुणभद्र आदि अनेक आचार्य एवं भिक्षु चीन गए। महायान शाखा ने बौद्ध धर्म के विदेशों में प्रचार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। कुषाण सम्राट कनिष्क ने दूसरी शताब्दी ईस्वी में चौथी बौद्ध संगीति बुलाई तथा मध्य एशिया, तिब्बत, चीन और जापान में बौद्ध धर्म का प्रचार करवाया।
चौथी-पांचवी शताब्दी ईस्वी में बौद्ध धर्म चीन से जापान जा पहुँचा। लगभग इसी काल में जावा, सुमात्रा एवं कम्बोडिया में भी बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। चीन से बौद्ध धर्म कोरिया, मंगोलिया, फारमोसा तथा जापान आदि द्वीपों में फैला। छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी में बर्बर हूणों के क्रूर हमलों तथा ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी ईस्वी में मुसलमानों द्वारा भारत में शासन स्थापित किए जाने के बाद बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि भारत से लगभग विलुप्त हो गया किंतु विदेशों में यह धर्म आज भी पूरे उत्साह के साथ जीवित है।
वर्तमान समय में (वर्ष 2010 के आंकड़ों के अनुसार) ईसाई धर्म, इस्लाम एवं हिन्दू-धर्म के बाद बौद्ध धर्म विश्व का चौथा सबसे बड़ा धर्म है। विश्व के लगभग 52 करोड़ लोग अर्थात् विश्व की लगभग 7 प्रतिशत जनसंख्या बौद्ध धर्म की अनुयाई है। विश्व के अधिकांश देशों में बौद्ध अनुयायी रहते हैं। चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, तिब्बत, लाओस, हांगकांग, ताइवान, मकाउ, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया सहित कुल 18 देशों में बौद्ध धर्म ‘प्रमुख धर्म’ है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों बौद्ध अनुयायी रहते हैं।
बौद्ध धर्म का भारत से विलोपन
भारत में बौद्ध धर्म का जिस तेज गति से प्रसार हुआ, उसी तेज गति से वह भारत से विलुप्त भी हो गया। बारहवीं शताब्दी के बाद भारत में इसके अनुयाइयों की संख्या नाम मात्र की रह गई। भारत में बौद्ध धर्म की अवनति के कई कारण थे-
(1.) बौद्ध धर्म की कमजोरियाँ: बौद्ध धर्म के भीतर कुछ ऐसी कमजोरियां थीं जो उसे पतन के मार्ग पर जाने से नहीं रोक सकती थीं। बुद्ध ने लोगों को मोक्ष प्राप्ति का एक नवीन मार्ग बताया था परन्तु वे अपने शिष्यों के लिए पृथक सामाजिक व्यवस्था, सामान्य रीति-रिवाज एवं आचार-विचार नहीं बना पाए।
इसलिए बौद्ध गृहस्थ सामान्यतः वैदिक संस्कारों का पालन करते रहे। जन्म, विवाह तथा मृत्यु आदि अवसरों पर उन्हें हिन्दू रीति-रिवाजों का ही पालन करना पड़ता था। इस कारण बौद्ध धर्म के गृहस्थ अनुयाई, हिन्दू-धर्म से अधिक दूर नहीं जा पाए और समय आने पर उन्हें पुनः हिन्दू-धर्म अपनाने में अधिक कठिनाई नहीं हुई।
(2.) बौद्ध धर्म में आडम्बरों का प्रचलन: वैदिक धर्म के जिन आडम्बरों और कर्मकाण्डों की जटिलताओं के विरोध में महात्मा बुद्ध ने नैतिक जीवन पर आधारित सीधा-सादा धर्म चलाया था, वह बुद्ध के निर्वाण के बाद स्वयं अनेक प्रकार के आडम्बरों और जटिलताओं से घिर गया। बौद्ध आचार्यों ने भिक्षुओं के नियमों को पहले से भी अधिक कठोर बना दिया जिससे उनमें इस धर्म के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गई।
महात्मा बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानकर उनकी मूर्तियाँ बनने लगीं तथा उन मूर्तियों की विविध पद्धतियों से पूजा होने लगी। बौद्ध तंत्र भी विकसित हो गया तथा बौद्ध धर्म के भीतर वाममार्गी सम्प्रदाय भी खड़ा हो गया। इससे बौद्ध धर्म अपना मूल स्वरूप खोकर हिन्दू-धर्म के अधिक निकट आ गया।
(3.) बौद्ध-भिक्षुओं का नैतिक पतन: बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का एक मुख्य कारण भिक्षुओं का त्यागमय जीवन और नैतिक आचरण था परन्तु मौर्यों के शासन काल में राज्य की ओर से बौद्ध-भिक्षुओं के लिए विशाल एवं भव्य मठ और विहार बनवाए गए और उनके व्यय के लिए राजकीय कोष से धन दिया गया। मठों के आरामदायक जीवन ने भिक्षुओं के त्यागमय जीवन को विलासी बना दिया। इससे उनमें अनुशासनहीनता आने लगी और कदाचार व्याप्त होने लगा। वज्रयान सम्प्रदाय के उदय के बाद बौद्ध मठ एवं विहार व्यभिचार के केन्द्र बन गए। जनसामान्य की दृष्टि में भिक्षु एवं मठ श्रद्धा के पात्र नहीं रहे।
(4.) बौद्ध धर्म में विभाजन: बुद्ध की मृत्यु के बाद से ही बौद्ध-भिक्षुओं में आन्तरिक मतभेद उत्पन हो गए और वे हीनयान, महायान, स्थविर और महासांघिक अदि अनेक सम्प्रदायों में बंट गए। अशोक ने बौद्ध धर्म की एकता बनाए रखने का अथक प्रयास किया और उसे कुछ सफलता भी मिली परन्तु बाद में इन विभिन्न शाखाओं में जबरदस्त संघर्ष आरम्भ हो गया और वे एक-दूसरे की निन्दा और आलोचना करने लगे। उनके आपसी संघर्ष ने बौद्ध धर्म की लोकप्रियता को भारी क्षति पहुँचाई।
(5.) बौद्ध संघ में स्त्रियों का प्रवेश: बौद्ध धर्म की अवनति का एक मुख्य कारण संघ में स्त्रियों का प्रवेश था। भगवान बुद्ध ने मूल रूप में बौद्ध संघ में स्त्रियों को प्रवेश नहीं दिया था किंतु अपने प्रिय शिष्य आनंद के कहने से उन्होंने स्त्रियों को संघ में प्रवेश देना स्वीकार कर लिया। इस स्वीकृति के बाद बुद्ध ने आनन्द से कहा कि अब यह धर्म 500 वर्षों से अधिक नहीं टिकेगा। बुद्ध की भविष्यवाणी सच सिद्ध हुई।
भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों के एक साथ रहने से बौद्ध विहारों एवं मठों में आत्म-संयम भंग हो गया और वहाँ व्यभिचार तथा विलासिता पनप गई। इससे उनकी प्रतिष्ठा गिर गई। वज्रयान सम्प्रदाय ने बौद्ध धर्म को वाम मार्ग की ओर धकेल कर बौद्ध धर्म को बड़ा धक्का पहुँचाया।
(6.) राज्याश्रय का अभाव: अशोक एवं उसके बाद के मौर्य शासकों ने बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान करके ऊंचाइयों तक पहुँचा दिया। देश भर में बौद्ध विहारों एवं मठों की स्थापना हुई जिन्हें राजकीय अनुदान दिया जाता था। इस कारण लाखों नवयुवक, सैनिक कर्म त्यागकर भिक्खु बन गए और बौद्ध विहारों एवं मठों में आराम का जीवन जीते हुए चैन की रोटी खाने लगे।
इस कारण मौर्य शासकों की सेनाएं कमजोर हो गईं एवं शत्रुओं ने स्थान-स्थान पर उन्हें परास्त कर दिया जिससे मौर्य साम्राज्य नष्ट हो गया। मौर्यों की ऐसी दुरावस्था देखकर भारत के अधिकांश राजाओं ने बौद्ध धर्म को संरक्षण देना बंद कर दिया। मौर्यों के उत्तराधिकारी शुंग, कण्व और सातवाहन नरेशों ने पुनः ब्राह्मण धर्म को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया।
गुप्त शासकों ने भी वैदिक यज्ञों को पुनः प्रतिष्ठा प्रदान की तथा भागवत् धर्म को अपनाया। दक्षिण भारत में भी चालुक्य नरेशों ने हिन्दू-धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया। अतः भारत की जनता पुनः हिन्दू-धर्म की ओर अग्रसर हुई।
(7.) बौद्ध धर्म की कट्टरता: बौद्ध धर्म आरम्भ से ही अन्य धर्मों के विरुद्ध असहिष्णुता का भाव रखता था। इस कारण दूसरे धर्म भी बौद्ध धर्म के विरुद्ध कट्टरता का भाव रखने लगे। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि प्रत्येक युग में जनसामान्य, विभिन्न धर्मों की अच्छी बातों को स्वीकार करके उन्हें आदर देता है किंतु बौद्ध संघ को यह स्वीकार्य नहीं था कि दूसरे धर्म की अच्छी बातों को आदर दिया जाए।
अशोक ने अपने बारहवें शिलालेख में सब धर्मों के सार की वृद्धि की कामना की है तथा परामर्श दिया है- ‘मनुष्य को दूसरे के भी धर्म को सुनना चाहिए। जो मनुष्य अपने धर्म को पूजता है और अन्य धर्मों की निन्दा करता है वह अपने धर्म को बड़ी क्षति पहुंचाता है। इसलिए लोगों में वाक्-संयम होना चाहिए अर्थात् संभल कर बोलना चाहिए।’
अशोक के इस कथन से अनुमान किया जा सकता है कि अशोक भी बौद्ध धर्म की असहिष्णुता से क्षुब्ध रहा होगा।
शुंग वंश के संस्थापक पुष्यमित्र शुंग (ई.पू.185-ई.पू.149) ने मौर्य-वंश का अंत करके शुंग-वंश की स्थापना की तथा बौद्ध-धर्म के स्थान पर भागवत् धर्म को संरक्षण दिया। ‘दिव्यावदान’ में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का परम-शत्रु बताया गया है। जबकि उसने बौद्धों को कोई क्षति नहीं पहुँचाई। उसके शासन काल में साँची के स्तूप के कलात्मक द्वार तथा भरहुत स्तूप के अलंकृत भागों का निर्माण हुआ।
अपनी कट्टरता के चलते बौद्ध धर्म ने एक तरफ जैन-धर्म को अपना प्रतिद्वंद्वी बना लिया तो दूसरी तरफ भागवत् धर्म के विरुद्ध भी मोर्चा खोल लिया। इस प्रकार वह दोहरे संघर्ष में फंसकर अपनी लोकप्रियता गंवा बैठा।
(8.) भागवत् धर्म का उदय: मौर्य वंश के पतन के बाद वैदिक धर्म के विद्वानों ने अपने धर्म में निहित दोषों को दूर करके उसे सरल रूप में पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। शुंग, कण्व, भारशिव, नाग, गुप्त, वाकाटक और चालुक्य नरेशों ने वैदिक यज्ञों का आयोजन करके हिन्दू-धर्म की उन्नति में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान किया।
इन शासकों ने शिव, विष्णु, कार्तिकेय आदि प्राचीन हिन्दू देवताओं की उपासना की और उनके भव्य मन्दिरों का निर्माण करवाया। बौद्ध धर्म के प्रति झुकाव रखने वाला हर्षवर्धन भी ब्राह्मण धर्म के प्रति श्रद्धा रखता था। इससे हिन्दू-धर्म को राष्ट्रीय स्तर पर पुनः प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। गुप्तों ने संस्कृत भाषा को राजकीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया जिससे वैदिक साहित्य की खोई हुई प्रतिष्ठा भी पुनः स्थापित हो गई।
बुद्ध की मूर्तियों की तर्ज पर देश में विष्णु एवं उनके अवतारों की मूर्तियों का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण हुआ तथा विष्णु एवं शिव के भव्य मंदिर बने जिनके कारण प्रजा तेजी से भागवत् धर्म की ओर आकर्षित हुई और बौद्ध धर्म अवनति को प्राप्त हो गया।
(9.) विदेशी आक्रमण: गुप्तों के बाद भारत पर हूणों के आक्रमण हुए। वे बौद्धों के शत्रु थे। हूणों के नेता मिहिरकुल ने हजारों की संख्या में बौद्ध मठों एवं विहारों को नष्ट किया तथा लाखों बौद्ध-भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया। इससे पंजाब, राजस्थान और उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्तों में बौद्ध धर्म का प्रभाव क्षीण हो गया। इन प्रदेशों के बचे हुए बौद्ध-भिक्षु तिब्बत तथा चीन की तरफ भाग गए।
मध्ययुग के आरम्भ में मुस्लिम आक्रांताओं ने बंगाल और बिहार में बौद्धों का कत्लेआम किया। उनके मठों और विहारों को भूमिसात किया और नालन्दा विहार आदि शिक्षण संस्थाओं को जला दिया। इससे इन प्रदेशों के बौद्ध-भिक्षु नष्ट हो गए तथा बौद्ध गृहस्थों ने पुनः हिन्दू-धर्म अपना लिया।
(10.) राजपूत शासकों का उदय: हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद देश में प्राचीन क्षत्रियों के स्थान पर राजपूत शासकों का उदय हुआ और उन्होंने पूरे देश में छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की। राजपूत लोग अपनी शूर-वीरता के लिए प्रख्यात थे और युद्ध तथा सैनिक सेवा उनका मुख्य व्यवसाय था। ऐसे लोगों को अहिंसा से कोई लगाव नहीं था। उन्होंने हिन्दू-धर्म को प्रोत्साहन दिया। राज्याश्रय न मिलने से बौद्ध धर्म का प्रभाव लगभग समाप्त हो गया।
(11.) शंकराचार्य के प्रयास: आठवीं और नौवीं शताब्दी ईस्वी में शंकराचार्य तथा उनके शिष्य कुमारिल भट्ट ने, पतन की तरफ बढ़ रहे बौद्ध धर्म के प्रभाव को समाप्ति की ओर धकेलने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने स्थान-स्थान पर बौद्ध विद्वानों को सार्वजनिक रूप से आयोजित शास्त्रार्थों में परास्त किया तथा जन-सामान्य के समक्ष हिन्दू-धर्म की श्रेष्ठता एवं अजेयता का प्रदर्शन किया।
शंकराचार्य ने देश के चारों दिशाओं में स्थित प्राचीन नगरों में अद्वैत परम्परा के मठों की स्थापना की। शंकराचार्य के प्रयत्नों से बौद्ध निस्तेज हो गए और सारे देश में हिन्दू-धर्म व्याप्त हो गया। शंकराचार्य ने भगवत्गीता की टीका लिखकर उसे हिन्दुओं का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ बना दिया जिने करोड़ों लोगों को पुनः हिन्दू-धर्म अपनाने की प्रेरणा दी।
(12.) बौद्ध धर्म के भीतर वाममार्गी पन्थों का जन्म: बौद्ध धर्म का पतन होने पर छठी शताब्दी ईसवी में महायान सम्प्रदाय से वज्रयान और मन्त्रयान शाखाओं का जन्म हुआ। वज्रयानी, बुद्ध को वज्रगुरु तथा अलौकिक सिद्धि सम्पन्न देवता मानते थे। इन सिद्धियों को पाने के लिए अनेक गुह्य साधनाएँ की जाती थीं।
वाममार्गी बौद्धों के प्रभाव से शैव मत में पाशुपत, कापालिक (अघोरी), वैष्णव मत में गोपी-लीला, तन्त्र-सम्प्रदाय में आनन्द भैरवी की पूजा आदि पन्थ विकसित हुए। इन पन्थों का उद्देश्य मन्त्रों तथा अन्य साधनों द्वारा विभिन्न प्रकार की ‘सिद्धियाँ’ प्राप्त करना था। जनसामान्य इन वाममार्गियों से भय खाता था तथा इनसे दूर रहता था।