जैन-धर्म और बौद्ध धर्म का तुलनात्मक अध्ययन
जैन-धर्म और बौद्ध धर्म दोनों का प्रसार एक ही समय में, एक ही प्रकार से, एक जैसी परिस्थितयों में और एक जैसे उद्देश्यों को लेकर हुआ। इस कारण इतिहासकार बहुत समय तक महावीर एवं बुद्ध को एक ही व्यक्ति समझते रहे तथा इन दोनों धर्मों को एक ही धर्म के दो रूप मानते रहे किंतु इन दोनों धर्मों की तुलना करने से दोनों की समानताएं एवं असमानताएं स्पष्ट हो जाती हैं।
जैन-धर्म एवं बौद्ध धर्म में समानताएँ
(1.) बौद्ध एवं जैन दोनों धर्मों का उदय ‘ब्राह्मण धर्म’ के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। अतः दोनों ही धर्म ब्राह्मण धर्म के प्रमुख ग्रन्थ वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते और न ही उन्हें ज्ञान का अन्तिम सोपान मानते हैं। इस कारण दोनों की गणना नास्तिक धर्मों में की जाती है।
(2.) बौद्ध एवं जैन दोनों ही धर्म ब्राह्मण धर्म के यज्ञवाद, बहुदेववाद और जन्म पर आधारित जातिवाद का विरोध करते हैं और सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्थाओं में ब्राह्मणों के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं करते।
(3.) बौद्ध एवं जैन दोनों धर्म ईश्वर को इस सृष्टि का निर्माता नहीं मानते।
(4.) दोनों ही धर्म ब्राह्मण धर्म के प्रवृत्ति-मार्ग का विरोध करते हैं और निवृत्ति-मार्ग में विश्वास रखते हैं। अर्थात् दोनों संसारिक सुखों से निवृत्ति पर जोर देते हैं परन्तु दोनों ही धर्म गृहस्थ-धर्म की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं।
(5.) दोनों धर्मों में सदाचार और अहिंसा का स्थान प्रमुख है।
(6.) बौद्ध एवं जैन दोनों ही धर्म कर्म-फल सिद्धांत और पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। ब्राह्मण धर्म ‘यज्ञ’ एवं ‘कर्मकाण्ड’ को कर्म मानता है जबकि बौद्ध एवं जैन दोनों ही धर्म इन्हें ‘कर्म’ नहीं मानते।
(7.) बौद्ध एवं जैन दोनों ही धर्मों का लक्ष्य ‘निर्वाण’ प्राप्त करना है। दोनों धर्मों का विश्वास है कि प्रत्येक मनुष्य को बिना किसी भेदभाव के निर्वाण प्राप्त करने का अधिकार है।
(8.) बौद्ध एवं जैन दोनों ही धर्म जीवन को दुःखमय समझते हैं। उनमें ब्राह्मण धर्म की आशावादिता का अभाव है।
(9.) बौद्ध एवं जैन दोनों धर्मों में संघ व्यवस्था है। दोनों धर्मों में अनुयाइयों की दो-दो श्रेणियाँ है- 1. भिक्षु-भिक्षुणी, 2. उपासक-उपासिका।
(10.) बौद्ध एवं जैन दोनों धर्मों के अपने-अपने त्रिरत्न हैं।
(11.) बौद्ध एवं जैन दोनों धर्मों में प्रारम्भ में भक्ति का कोई स्थान नहीं था परन्तु बाद में दोनों मे भी भक्तिवाद का उदय हुआ।
(12.) बौद्ध एवं जैन दोनों धर्म प्रारम्भ में व्यक्ति-पूजा तथा मूर्ति-पूजा के विरोधी थे परन्तु बाद में दोनों धर्मों ने इन्हें अपना लिया।
(13.) बौद्ध एवं जैन दोनों धर्मों ने मानव-सेवा पर अधिक जोर दिया।
(14.) दोनों धर्मों ने संस्कृत की जगह लोकभाषाओं में उपदेश दिए एवं ग्रंथों की रचना की। जैन-धर्म ने प्राकृत भाषा को और बौद्ध धर्म ने पालि भाषा को अपनाया परन्तु बाद में दोनों धर्मों में संस्कृत में ग्रंथ लिखे जाने लगे।
(15.) बौद्ध एवं जैन दोनों धर्मों के संस्थापकों के जीवन में काफी समानताएं हैं। महावीर एवं बुद्ध दोनों ही क्षत्रिय राजकुमार थे। दोनों ने विवाह करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया और दोनों के सन्तान भी हुई। दोनों ने लगभग 30 वर्ष की आयु में पारिवारिक जीवन का त्याग करके सन्यास ग्रहण किया और सत्य-ज्ञान की प्राप्ति के लिए घोर तपस्या की। दोनों ने ही ज्ञान प्राप्ति के बाद मृत्युपर्यन्त जनकल्याण हेतु धर्म प्रचार का कार्य किया।
जैन-धर्म एवं बौद्ध धर्म में असमानताएँ
बौद्ध एवं जैन धर्मों में बहुत सी असमानताएँ भी थीं, जो इस प्रकार हैं-
(1.) जैन-धर्म का मूल स्वरूप बौद्ध धर्म से कहीं अधिक प्राचीन है।
(2.) दोनों धर्मों का अन्तिम लक्ष्य ‘निर्वाण’ प्राप्त करना है परन्तु जैन-धर्म में ‘निर्वाण’ का अर्थ दुःखरहित हो जाना अर्थात् आत्मा का सदानन्द में मिल जाना है परन्तु बौद्ध धर्म में ‘निर्वाण’ का अर्थ व्यक्तित्त्व की पूर्ण समाप्ति से है। अर्थात् जब व्यक्ति समस्त प्रकार की वासना या आसक्ति से मुक्त हो जाता है तो उसे बुद्धत्व प्राप्त हो जाता है। जैन-धर्म के अनुसार ‘निर्वाण’ की प्राप्ति मृत्यु के पश्चात ही सम्भव है जबकि बौद्ध धर्म के अनुसार मनुष्य इसी जीवन में ‘निर्वाण’ प्राप्त कर सकता है।
(3.) दोनों धर्मों में निर्वाण प्राप्ति के साधनों में भिन्नता है। जैन-धर्म के अनुसार तपस्या, उपासना और काया क्लेश आदि से ‘निर्वाण’ प्राप्त हो सकता है किन्तु बौद्ध धर्म मध्यम मार्ग पर जोर देता है क्योंकि शारीरिक कष्ट और विलासमय जीवन दोनों ही अवांछनीय हैं।
(4.) जैन-धर्म त्रिरत्न के अनुसरण पर जोर देता है किंतु बौद्ध धर्म अष्टांगिक मार्ग पर जोर देता है।
(5.) बौद्ध एवं जैन दोनों धर्म अहिंसावादी है परन्तु व्यवहार रूप में बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन-धर्म अहिंसा पर अधिक जोर देता है।
(6.) जैन-धर्म आत्मा के अस्तित्त्व में विश्वास करता है परन्तु बौद्ध धर्म अनात्मवादी है।
(7.) सैद्धांतिक रूप से दोनों धर्म जन्म-आधारित जाति-व्यवस्था के विरोधी तथा सामाजिक समानता के पक्षधर हैं परन्तु व्यावहारिक स्तर पर जैन-धर्म के अनुयाईयों ने निम्न जातियों को नहीं अपनाया जबकि बौद्ध संघ ने बिना किसी भेदभाव के समाज के प्रत्येक वर्ण एवं जाति को प्रवेश दिया।
(8.) जैन धर्म, अन्य धर्मों के प्रति अधिक सहिष्णु रहा। जबकि बौद्ध धर्म धार्मिक कट्टरता से ग्रस्त रहा। इस कारण अन्य धर्मों से उसका वैमनस्य रहा।
(9.) जैन-धर्म ने सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप में अपने विचारों का उल्लेख किया है किंतु बौद्ध धर्म इस विषय पर चुप है।
(10.) दोनों धर्मों में संघ व्यवस्था है परन्तु बौद्ध धर्म में संघ-जीवन पर अधिक जोर है जबकि जैन-धर्म की संघ व्यवस्था उतनी संगठित नहीं है।
(11.) बौद्ध धर्म का प्रसार जिस तेजी से आरम्भ हुआ था उसी गति से उसका पतन भी हो गया और भारत भूमि से उसका लोप हो गया परन्तु जैन-धर्म का प्रचार प्रसार धीमी गति से हुआ और उसका अस्तित्त्व भी भारत में बना रहा।
(12.) जैन अपने धर्म के सिद्ध-पुरुषों को तीर्थंकर कहते हैं जबकि बौद्ध अपने सिद्ध-पुरुषों को बोधिसत्व कहते हैं।
(13.) बौद्ध धर्म को अशोक, कनिष्क तथा हर्षवर्धन जैसे चक्रवर्ती सम्राटों का संरक्षण एवं प्रोत्साहन मिला किंतु जैन-धर्म को स्थानीय एवं छोटे राजाओं का संरक्षण मिला। इस कारण जैन-धर्म का प्रसार अपने देश में भी बहुत सीमित रहा जबकि बौद्ध धर्म भारत से बाहर भी फैल गया।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि दोनों धर्मों में पर्याप्त समानताएं होते हुए भी काफी असमानताएं हैं और दोनों धर्म स्पष्टतः अलग हैं। दोनों धर्मों में एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या एवं द्वेष की भावना भी बनी रही। बौद्ध धर्म आरम्भ से ही अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु रहा इसलिए उसने राजकीय संरक्षण प्राप्त करके जैन-धर्म पर प्रहार किए। यही कारण था कि जिस हूण आक्रांता मिहिरकुल ने बौद्धों का बड़ी संख्या में संहार किया था, जैन आचार्य उद्योतन सूरि ने उसी मिहिरकुल को सम्पूर्ण धरती का स्वामी कहकर उसकी प्रशंसा की।