औरंगजेब एक क्रूर, धर्मान्ध और हत्यारा शासक ही नहीं था, अपितु वह कला और संस्कृति का भी बहुत बड़ा शत्रु था। औरंगजेब द्वारा ध्वस्त भवन अब हमें देखने को नहीं मिल सकते किंतु उनकी सूची बहुत लम्बी है।
औरंगजेब के काल में मंदिरों का विध्वंस
औरंगजेब का मानना था कि मुसलमानों के लिए यह उचित नहीं है कि उनकी दृष्टि किसी बुतखाने अर्थात् मंदिर पर पड़े। इसलिए बादशाह बनने से पहले ही औरंगजेब ने हिन्दू पूजा-स्थलों को गिरवाना तथा देव-मूर्तियों को भंग करना आरम्भ कर दिया था।
चिंतामणि मंदिर का ध्वंस
औरंगजेब जब गुजरात का सूबेदार था तब अहमदाबाद में चिन्तामणि का मन्दिर बनकर तैयार ही हुआ था। औरंगजेब ने उसे ध्वस्त करवाकर उसके स्थान पर मस्जिद बनवा दी।
कटक तथा मेदिनीपुर के मंदिरों का ध्वंस
तख्त पर बैठते ही उसने बिहार के अधिकारियों को निर्देश दिए कि कटक तथा मेदिनीपुर के बीच में जितने भी हिन्दू मन्दिर हैं उन्हें गिरवा दिया जाए। इनमें तिलकुटी का नवनिर्मित भव्य मंदिर भी सम्मिलित था।
सोमनाथ मंदिर का ध्वंस
सोमनाथ का तीसरी बार निर्मित मन्दिर भी औरंगजेब के आदेश से ध्वस्त कर दिया गया। ई.1665 में उसने आदेश दिए कि गुजरात का जो मंदिर तोड़ा गया था, उसे हिन्दुओं ने फिर से बनवा लिया है, उसे पुनः तोड़ा जाए।
केशवराय मंदिर की रेलिंग का ध्वंस
ई.1666 में औरंगजेब ने मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर स्थित केशवराय मंदिर के पत्थर के उस कटरे (रेलिंग) को तुड़वाया जिसे दारा शिकोह ने बनवाया था।
दिल्ली का कालकाजी मंदिर का विध्वंस
28 अगस्त 1667 को आम्बेर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह की मृत्यु हो जाने के 6 दिन बाद 3 सितम्बर 1667 को औरंगजेब ने सीदी फौलाद खाँ को 100 बेलदार लगाकर 2,000 वर्ष पुराने (ईसा पूर्व तीसरी शती में निर्मित) दिल्ली के कालकाजी शक्तिपीठ तथा उसके क्षेत्र में आने वाले समस्त हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने के आदेश दिए। 12 सितम्बर को सीदी ने औरंगजेब को सूचना दी कि आदेशों की पूर्णतः पालना हो गई है। मंदिर तोड़ने के दौरान एक ब्राह्मण ने सीदी पर तलवार से वार किए जिससे सीदी के शरीर पर तीन घाव लगे। सीदी ने उस ब्राह्मण का सिर पकड़ लिया। ब्राह्मण को वहीं मार दिया गया तथा सीदी बच गया।
समस्त हिन्दू मंदिरों एवं पाठशालाओं को तोड़ने के आदेश
9 अप्रेल 1669 को औरंगजेब ने सम्पूर्ण मुगल सल्तनत में हिन्दुओं के मंदिरों एवं विद्यालयों को पूर्णतः नष्ट करने के आदेश जारी किए। मंदिरों को तोड़ने का औरंगजेब का आदेश प्रत्येक मुगल परगने में भेजा गया। ढाका जिले के धामारी गांव के यशोमाधव मंदिर से इस आदेश की एक प्रति प्राप्त हुई है।
मलारना के शिव मंदिर का विनाश
मई 1669 में सालेह बहादुर को राजपूताना में मोरेल नदी के तट पर स्थित मलारना गांव के शिव मंदिर को तोड़ने भेजा गया।
काशी विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस
ई.1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। ई.1632 में शाहजहाँ ने इस भव्य मंदिर को तोड़ने के लिए सेना भेजी। हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण शाहजहाँ की सेना विश्वनाथ मंदिर को तो नहीं तोड़ सकी किंतु काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खाँ द्वारा लिखित ‘मासीदे आलमगिरी’ में इस ध्वंस का वर्णन है।
सितम्बर 1669 में औरंगजेब की सेना ने 3,000 वर्ष पुराने काशी (बनारस) में स्थित विश्वनाथ मन्दिर को गिरवाकर विशाल मस्जिद का निर्माण करवाया, जो आज भी विद्यमान है। इस मंदिर का उल्लेख स्कंद पुराण सहित कई प्राचीन पुराणों में मिलता है। इसे ई.1194 में कुतुबुद्दीन एबक ने तोड़ा। इल्तुतमिश (ई.1211-1266) के शासनकाल में गुजरात के एक व्यापारी ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया।
हुसैन शाह शर्की (ई.1447-58) अथवा सिकंदर लोदी (ई.1489-1517) ने इस मंदिर को तोड़ दिया। अकबर के शासनकाल में राजा मानसिंह ने इस मंदिर को फिर से बनवाने की चेष्टा की किंतु हिन्दुओं ने मानसिंह के मंदिर को स्वीकार नहीं किया क्योंकि वह मुसलमान बादशाह अकबर का सम्बन्धी थी।
ई.1585 में राजा टोडरमल ने अकबर से धन लेकर इस मंदिर का निर्माण करवाया। औरंगजेब के काल में इस मंदिर को तोड़ा गया। ई.1780 में मराठा रानी अहिल्या बाई होलकर ने मस्जिद के पास एक शिव मंदिर बनवाया जिसे अब काशी विश्वनाथ कहा जाता है। औरंगजेब ने काशी का नाम मुहम्मदाबाद रख दिया।
औरंगजेब द्वारा ध्वस्त भवन केवल मिट्टी में ही नहीं मिल जाते थे अपितु उनके स्थान पर मस्जिद खड़ी की जाती थी। औरंगजेब के आदेश पर बनारस में बनवाई गई मस्जिद को ‘ज्ञानवापी मस्जिद’ कहा गया। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।
औरंगजेब द्वारा ध्वस्त भवन की सामग्री उसी स्थान पर बनाई जाने वाली मस्जिद के निर्माण में प्रयुक्त होती थी। कई बार तो मस्जिद के भीतर की संरचना ज्यों की त्यों रख ली जाती थी और उसका बाह्य रूप मस्जिद जैसा बना दिया जाता था।
काशी विश्वनाथ का मंदिर महाभारत और उपनिषद काल में भी था। हिन्दुओं की मान्यता है कि ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। बाद में विक्रमादित्य नामक किसी चक्रवर्ती राजा ने भी इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। इस मंदिर को ई.1194 में मुहम्मद गौरी ने तोड़ दिया। हिन्दुओं ने इस स्थान पर पुनः एक मंदिर का निर्माण किया जिसे ई.1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया।
ई.1752 से ई.1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर की मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 को महादजी सिंधिया ने बादशाह शाहआलम से, मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने तथा मंदिर का नवीनीकरण करने का आदेश जारी करा लिया परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया।
बाद में ई.1777-80 की अवधि में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया। अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहाँ विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।
ई.1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र था। 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा किंतु इस आदेश की पालना नहीं की गई।
ब्रजभूमि के मंदिरों का विनाश
ई.1669 में जैसे ही औरंगजेब ने समस्त हिन्दू मंदिरों को गिराने के आदेश दिए, वैसे ही मथुरा, वृंदावन तथा ब्रज क्षेत्र के प्रमुख मंदिरों के पुजारी एवं सेवादार अपने आराध्य देवों के विग्रहों को मंदिरों से निकालकर अन्य स्थानों को ले जाने लगे। बहुत से पुजारियों ने अपने आराध्य देवों की प्रतिमाओं को लेकर राजपूत रियासतों की ओर पलायन किया।
महाप्रभु वल्लभाचार्यजी के वंशज गिरधर गुसाईंजी, बूंदी नरेश भावसिंह के सरंक्षण में भगवान मथुराधीश की विख्यात प्रतिमा को ब्रज से निकालकर बूंदी ले आए जहाँ से यह प्रतिमा राजा दुर्जनशाल द्वारा कोटा ले जाई गई तथा उसके लिए कोटा में मथुरेशजी का विख्यात मंदिर बनवाया गया।
इस विग्रह का प्राकट्य गोकुल के निकट कर्णावल गांव में हुआ था तथा इस विग्रह को महाप्रभु वल्लभाचार्य ने अपने शिष्य पद्मनाथजी के पुत्र विट्ठलनाथ जी को दिया था। उन्होंने यह प्रतिमा अपने पुत्र गिरधरजी को दी थी। कोटा के मथुरेशजी मंदिर को अब वल्लभ सम्प्रदाय की प्रथम पीठ माना जाता है।
इसी प्रकार ई.1669 में वृंदावन के विशाल गोविंददेव मंदिर के विग्रह को भी वृंदावन से निकालकर जयपुर पहुंचा दिया गया। इस विग्रह का निर्माण भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने अपनी माता के मुख से सुने भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप के आधार पर करवाया था। इस विग्रह को चैतन्य महाप्रभु के आदेश से उनके शिष्य रूप गोस्वामी ने गोमा टीले के नीचे से खोद कर प्राप्त किया था।
ई.1590 में अकबर की अनुमति से राजा मानसिंह ने वृंदावन में इस विग्रह हेतु एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया। यह देवालय पूर्व-पश्चिम में 117 फुट लम्बा और उत्तर-दक्षिण में 105 फुट चैड़ा था। मुगलकाल में इससे अधिक भव्य मंदिर नहीं बना था। अकबर ने इस मंदिर की गायों के चारागाह के लिए 135 बीघा भूमि प्रदान की थी। इसकी सातवीं मंजिल पर जलते हुए दीपों का प्रकाश आगरा तक दिखाई देता था।
जब मंदिर तोड़ने के आदेश हुए तो औरंगजेब के भय से मंदिर के सेवादार श्रीशिवराम गोस्वामी, भगवान श्रीगोविंददेव और राधारानी के विग्रहों को लेकर जंगलों में जा छिपे और बाद में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह के पुत्र रामसिंह के संरक्षण में वृंदावन से जयपुर ले आए जहाँ यह प्रतिमा आज भी विराजमान है।
जयपुर के शासक गोविंददेव को राज्य का स्वामी तथा स्वयं को राज्य का दीवान मानते थे। ई.1670 में औरंगजेब के आदेश से वृंदावन में स्थित गोविंददेव का भव्य मंदिर तोड़ा गया। औरंगजेब ने वृंदावन के गोविंददेव मंदिर की तीन मंजिलों को तुड़वा दिया तथा अकबर द्वारा गौशाला के लिए दी गई 135 बीघा भूमि का पट्टा निरस्त कर दिया।
29 सितम्बर 1669 को मथुरा के निकट गोवर्द्धन पर्वत पर स्थित गिरिराज मंदिर के गुंसाई दामोदरजी, अपने चाचा गोविन्दजी एवं अन्य पुजारियों को साथ लेकर गोवर्द्धन से राजपूताने की ओर रवाना हो गए। वे आगरा, बूंदी, कोटा एवं पुष्कर होते हुए किशनगढ़ पहुंचे। किशनगढ़ के महाराजा मानसिंह ने ‘पीताम्बर की गाल’ में भगवान को पूर्ण भक्ति सहित विराजमान करवाया और विविधत् उनकी पूजा की किंतु भगवान को किशनगढ़ में रखने से असर्थता व्यक्त की।
इसलिए यहाँ से श्रीनाथजी जोधपुर राज्य के चैपासनी गांव पहुंचे। उस समय महाराजा जसवंतसिंह जमरूद के मोर्चे पर थे इसलिए राज्याधिकारियों ने आशंका व्यक्त की कि हम श्रीनाथजी के विग्रह की रक्षा नहीं कर पाएंगे। इस पर मेवाड़ नरेश राजसिंह ने गुसाइयों को वचन दिया कि मेवाड़ राज्य में एक लाख हिन्दुओं के सिर काटे बिना औरंगजेब श्रीनाथजी के विग्रह को स्पर्श नहीं कर पाएगा। इसलिए वे श्रीनाथजी को मेवाड़ में ले आएं। राजसिंह के निमंत्रण पर ई.1672 में श्रीनाथजी मेवाड़ पधारे तथा उन्हें सिहाड़ गांव में विराजित किया गया जो अब नाथद्वारा कहलाता है।
मदनमोहनजी के मंदिर का ध्वंस
वृंदावन में वैष्णव संप्रदाय का मदन मोहनजी का विख्यात मंदिर स्थित था। इसका निर्माण ई.1590 से ई.1627 के बीच मुल्तान निवासी रामदास खत्री या कपूरी द्वारा करवाया गया। समस्त हिन्दू मंदिरों को तोड़ने के औरंगजेब के आदेश के बाद मदनमोहनजी की प्रतिमा को जयपुर ले जाया गया जहाँ से करौली का राजा उन्हें करौली ले गया। मदनमोहनजी के वृंदावन वाले मंदिर को औरंगजेब के सैनिकों ने तोड़ डाला ई.1819 में नंदलाल वासु ने इसे पुनः बनवाया। प्राचीन निर्माण की तुलना में नया मंदिर छोटा है। इसे लाल पत्थर से बनाया गया है तथा पत्थर पर सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर ऊँचा किंतु संकरा दिखाई देता है।
श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर का ध्वंस
ई.1670 में औरंगजेब के आदेश से मथुरा के केशवराय मन्दिर को तोड़कर उसके पत्थरों से उसी स्थान पर मस्जिद बनवाई गई तथा मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया गया। इस मंदिर से कई मूल्यवान प्रतिमाएं प्राप्त हुईं जिनमें हीरे-जवाहर लगे हुए थे।
औरंगजेब ने इन प्रतिमाओं को बेगम साहिब की मस्जिद के रास्ते की सीढ़ियों में लगवाया ताकि उन्हें पैरों से ठोकर मारी जा सके। औरंगजेब चाहता था कि मंदिरों, विद्यालयों, पुस्तकों आदि को नष्ट करके, हिन्दुओं के मेलों, त्यौहारों को बंद करके, हिन्दू न्याय एवं विधि को समाप्त करके तथा तीर्थों के वास्तविक नामों को बदलकर हिन्दुओं के मन से हिन्दू धर्म के गौरव को पूर्णतः मिटा दिया जाए।
उज्जैन के मंदिरों का ध्वंस
मथुरा एवं वृंदावन के मंदिर को तोड़ने के बाद औरंगजेब ने गदाबेग को 400 सिपाहियों के साथ उज्जैन के मंदिर तोड़ने के लिए भेजा। मालवा के सूबेदार वजीर खाँ को भी उज्जैन पहुंचने के आदेश दिए गए। जब मुस्लिम सेना उज्जैन के सुप्रसिद्ध महाकाल मंदिर पर हमला करने पहुंची तो उज्जैन के रावत ने मुस्लिम सेना का प्रबल विरोध किया। उसने गदाबेग तथा उसके 121 सिपाहियों का वध कर दिया। रावत की बहादुरी को आज भी लोकगीतों में स्मरण किया जाता है।
अयोध्या के मंदिरों का विध्वंस
औरंगजेब के सेनापतियों ने अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर ‘त्रेता के ठाकुर’ को नष्ट कर दिया जहाँ भगवान ने अपनी लौकिक देह का त्याग किया था। अयोध्या का ‘स्वर्गद्वारम्’ नामक मंदिर भी तोड़ दिया गया जहाँ भगवान की लौकिक देह का अंतिम संस्कार किया गया।
कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि अयोध्या का ‘जन्मस्थानम्’ नामक मंदिर भी औरंगजेब के शासकाल में तोड़ा गया था जहाँ भगवान ने लौकिक देह में जन्म लिया था जबकि अधिकतर इतिहासकारों की मान्यता है कि जन्मस्थानम् मंदिर को बाबर के शिया सेनापति मीर बाकी ने ई.1528 में ध्वस्त किया था।
शेखावटी के मंदिरों का विध्वंस
ई.1679 में औरंगजेब ने मीर आतिश दाराब खाँ को शेखावाटी क्षेत्र के खण्डेला गांव में स्थित मोहनजी का विशाल मंदिर तोड़ने के लिए भेजा। 8 मार्च 1679 को आतिश दाराब खाँ ने मंदिर पर हमला किया तो 300 हिन्दू, मंदिर की रक्षा के लिए आगे आए। आतिश खाँ ने उन सभी की हत्या कर दी। इनमें मारवाड़ से विवाह करके लौटा सुजानसिंह नामक एक राजपूत भी था। उसकी प्रशंसा में आज भी शेखावाटी क्षेत्र में लोकगीत गाए जाते हैं।
मुगल सेना ने खण्डेला स्थित मोहनजी का मंदिर, खाटू श्यामजी स्थित सांवलजी का मंदिर एवं निकटवर्ती अन्य मंदिर तोड़ दिए। खण्डेला का राजा बहादुरसिंह अपनी प्रजा एवं सैनिकों के साथ कोट सकराय के पहाड़ी दुर्ग में चला गया तथा मुगलों से भारी मोर्चा लिया।
मारवाड़ राज्य के मंदिरों का विध्वंस
मारवाड़ के राठौड़ राजा वैष्णव धर्म के अनुयाई थे। इसलिए मारवाड़ में विष्णु एवं उनके अवतारों के हजारों मंदिर बने। 25 मई 1679 को खानजहाँ बहादुर मारवाड़ राज्य के मंदिरों को ढहाकर दिल्ली लौटा। वह अपने साथ जोधपुर, फलोदी, मेड़ता, सिवाना, पोकरण, सांचोर, जालोर, भीनमाल तथा मारोठ आदि कस्बों में स्थित प्रसिद्ध मंदिरों की कीमती मूर्तियों की कई बैलगाड़ियां भर कर लाया था। इन मूर्तियों में बहुत सी मूर्तियों पर हीरे-जवाहर लगे हुए थे। बहुत सी मूर्तियों पर सोने चांदी के आभूषण एवं मुकुट आदि थे। औरंगजेब ने इन देव-विग्रहों को जिलाउखाना तथा जामा मस्जिद के रास्ते में लगवा दिया ताकि मुस्लिम इन्हें रोज ठोकरों से मार सकें।
खानजहाँ ने अपनी इस विध्वंस यात्रा में मण्डोर के 8वीं शताब्दी ईस्वी के प्राचीन मंदिर सहित ओसियां के हरिहर मंदिर, महिषसुर मर्दिनी मंदिर, त्रिविक्रम मंदिर सहित अनेक प्राचीन मंदिरों का विनाश किया जिनके ध्वंसावशेष आज भी खड़े हैं। अनेक प्रतिमाओं के चेहरे विकृत कर दिए गए।
पुष्कर के मंदिर का विध्वंस
पुष्कर का मंदिर जहाँगीर के शासनकाल में तोड़ा जा चुका था जिसे हिन्दुओं ने पुनः बना लिया था। अगस्त 1679 में औरंगजेब ने मुगल फौजदार तहव्वर खाँ को पुष्कर का वाराह मंदिर तोड़ने के लिए भेजा। मेड़तिया राठौड़ों ने मंदिर की रक्षार्थ अपना बलिदान करने का निर्णय लिया और 19 अगस्त को पुष्कर पहुंचकर मुगल फौजदार पर आक्रमण किया। तीन दिनों तक दोनों पक्षों में लड़ाई चलती रही जब तक कि अंतिम हिन्दू सैनिक कटकर नहीं गिर गया।
मेवाड़ के मंदिरों का विध्वंस
फरवरी 1679 में औरंगजेब ने हसन अली खाँ को मेवाड़ क्षेत्र में सेना लेकर पहुंचने के आदेश दिए तथा औरंगजेब स्वयं भी 30 नवम्बर 1679 को अजमेर से मेवाड़ के लिए रवाना हुआ ताकि उदयपुर के मंदिरों को गिराया जा सके। महाराणा राजसिंह उदयपुर छोड़कर पहाड़ों में चला गया। 24 जनवरी 1680 को औरंगजेब उदयसागर झील के किनारे पहुंचा तथा वहाँ स्थित तीनों मंदिर ढहा दिए। वहीं पर औरंगजेब को सूचना मिली कि यहाँ से 5 कोस की दूरी पर एक और झील है जिसके किनारे भी मंदिर बने हुए हैं।
औरंगजेब ने यक्का ताज खाँ, हीरा, हसन अली खाँ तथा रोहिल्ला खाँ को उन्हें भी गिराने का आदेश दिया। उदयपुर नगर में स्थित विख्यात एवं भव्य जगदीश मंदिर पर भी आक्रमण किया गया। इस मंदिर को महाराजा जगतसिंह (ई.1628-52) ने कई लाख रुपयों की लागत से बनवाया था। इसे जगन्नाथराय का मंदिर भी कहते थे। इस मंदिर के सामने 20 माचातोड़ सैनिकों को सुलाया गया। जब मुगलों की सेना आई तो एक-एक करके माचातोड़ उठे तथा शत्रुओं के सिर काटते हुए स्वयं भी वीरगति को प्राप्त हुए।
29 जनवरी 1680 को हसन अली खाँ ने औरंगजेब को सूचित किया कि अब तक उदयपुर में 172 मंदिरों को ढहाया जा चुका है। इनमें से उस काल के प्रसिद्ध अनेक मंदिर सदा के लिए नष्ट हो गए और हिन्दू उन्हें पूरी तरह भूल गए। केवल वही मंदिर याद रहे जिनका कुछ अंश टूट जाने से शेष रहा था। 22 फरवरी 1681 को औरंगजेब चित्तौड़ पहुंचा। उसने चित्तौड़ में स्थित 63 प्राचीन मंदिरों को ढहा दिया। इनमें आठवीं शताब्दी के कालिका माता मंदिर (वास्तव में सूर्य मंदिर) सहित आठवीं-दसवीं शताब्दी के अनेक मंदिर भी सम्मिलित थे जिन्हें बेरहमी से ढहाया गया।
इन मंदिरों के साथ ही शिल्प एवं स्थापत्य का एक सुंदर संसार सदा के लिए मानव सभ्यता की आंखों से ओझल हो गया। जून 1681 तक औरंगजेब की सेनाओं ने मेवाड़ राज्य में ताण्डव किया। दुर्ग के भीतर स्थित 63 मंदिरों के अतिरिक्त भी चित्तौड़ क्षेत्र के अन्य मंदिर तोड़े गए।
इनमें परिहारों द्वारा 10वीं शताब्दी ईस्वी में निर्मित कूकड़ेश्वर महादेव, समिद्धेश्वर महादेव, अन्न्पूर्णा एवं बाणमाता मंदिर भी सम्मिलित थे। 22 मार्च 1680 को औरंगजेब अजमेर लौट गया।
20 अप्रेल 1680 को मेरठ के दारोगा ने सूचित किया कि बादशाह के आदेश से मेरठ के मंदिरों के दरवाजों को तोड़ दिया गया है तथा अब वह चित्तौड़ के काफिरों को दण्ड देने जा रहा है।
आम्बेर के मंदिरों का ध्वंस
जून 1680 में अबू तुराब ने औरंगजेब को सूचित किया कि आम्बेर में 66 हिन्दू मन्दिरों को तोड़ दिया गया है। आम्बेर के राजपूतों ने अकबर के शासन-काल से ही मुगलों की बड़ी सेवा की थी। इस कारण आम्बेर के कच्छवाहों को औरंगजेब के इस कुकृत्य से बहुत ठेस लगी। यह औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता की पराकाष्ठा थी।
2 अगस्त 1680 को मालवा का सुप्रसिद्ध सोमेश्वर मंदिर नष्ट कर दिया गया। 28 मार्च 1681 को असद खाँ ने आम्बेर के निकट गोनेर में स्थित जगदीश मंदिर को नष्ट किया। गजसिंह नामक एक राजपूत योद्धा ने अपने पाँच आदमियों सहित मंदिर में मुसलमानों के विरुद्ध मोर्चा जमाया, वे कई मुगल सैनिकों को मारकर वीरगति को प्राप्त हुए।
घोरबंद मंदिर का विनाश
उन्हीं दिनों औरंगजेब को सूचना मिली कि काबुल क्षेत्र में घोरबंद नामक थाने पर नियुक्त राजा मांधाता घोरबंद के दुर्ग में स्थित एक मंदिर में फूलों से मूर्तियों की पूजा करता है तथा आरती एवं भोग लगाता है। इस पर राजा मांधाता को घोरबंद से अन्यत्र भेजा गया तथा मंदिर को तोड़कर वहाँ मस्जिद बनाई गई। उसी वर्ष हसन अली खाँ ने सूचित किया कि उसने इस्लामाबाद (मथुरा) में एक मंदिर को तोड़ा है तथा एक हिन्दू बस्ती को नष्ट करके वहाँ हसनपुर नामक गांव बसाया है।
जगन्नाथ मंदिर का विनाश
जून 1681 में शाइस्ता खाँ को आदेश भेजकर ब्रह्मपुराण में वर्णित पुरी के जगन्नाथ मंदिर को तुड़वाया गया। यह मंदिर पहले भी मुसलमानों द्वारा कई बार तोड़ा गया था एवं हिन्दुओं द्वारा पुनःपुनः बनाया गया। औरंगजेब द्वारा तोड़ा गया मंदिर ई.1085-91 की अवधि में बनाया गया था।
अजमेर से बुरहानपुर तक के मंदिरों का विनाश
21 सितम्बर 1681 को औरंगजेब ने बेलदारों के दारोगा जवाहर चंद को आदेश दिए कि वह बुरहानपुर जाए तथा अजमेर से बुरहानपुर तक के मार्ग में स्थित प्रत्येक मंदिर को तोड़ डाले। ई.1681 के अंतिम महीनों में दक्षिण के मोर्चे पर नियुक्त कोटा नरेश को ज्ञात हुआ कि औरंगजेब अजमेर से कोटा, बूंदी एवं माण्डू होता हुआ बुरहानपुर जाएगा। इसलिए कोटा नरेश ने अपने राज्याधिकारियों को पत्र भेजकर सूचित किया कि वे श्रीनाथजी के सेवकों से कहें कि वे भगवान के विग्रह को लेकर बोराम्बा अथवा बिसलपुर चले जाएं तथा तब तक वहाँ रहें जब तक कि औरंगजेब यहाँ से वापस न लौट जाए।
13 नवम्बर 1681 को औरंगजेब बुरहानपुर पहुंचा तथा उसने बुरहानपुर के मंदिरों की रिपोर्ट मांगी। उसे बताया गया कि बुरहानपुर में काफी संख्या में मंदिर हैं जिनके पुजारी उन्हें बंद करके चले गए हैं। औरंगजेब उन मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाना चाहता था किंतु उसे बताया गया कि बुरहानपुर में इतने मुसलमान नहीं हैं जो इन मंदिरों को तोड़ सकें। चूंकि औरंगजेब को अपनी सेना अपने विद्रोही पुत्र अकबर तथा शिवाजी के पुत्र शंभाजी के विरुद्ध भेजनी थी इसलिए उसने उन मंदिरों के दरवाजे तुड़वाकर उन्हें ईंटों से बंद करवा दिया।
बनारस के नंद-माधव मंदिर का विनाश
ई.1682 में औरंगजेब के आदेशों से बनारस में स्थित सुप्रसिद्ध नंद-माधव (बिंदु-माधव) मंदिर को भी तोड़ डाला गया तथा उसके स्थान पर मस्जिद बनाई गई। इस विशाल मंदिर का निर्माण राजा टोडरमल एवं राजा मानसिंह द्वारा अकबर की अनुमति से ई.1585 में करवाया गया था।
पेडगांव के शिवमंदिर का विनाश
13 सितम्बर 1682 को औरंगजेब ने शहजादे आजमशाह को आदेश दिए कि वह शंभाजी के राज्य में पेडगांव स्थित शिव मंदिर को तोड़ डाले। आजमशाह द्वारा इस मंदिर को तोड़ दिया गया तथा इस गांव का नाम बदलकर रहमतपुर कर दिया गया।
दक्षिण भारत के मंदिरों का विनाश
2 नवम्बर 1687 को अब्दुल खाँ को हैदराबाद के मंदिरों को तोड़ने के आदेश दिए गए। ई.1690 में औरंगजेब ने एलोरा, त्रयम्बकेश्वर, पंढरपुर जाजुरी तथा यवत के मंदिर तुड़वाए। इस दौरान औरंगजेब द्वारा दक्षिण में नियुक्त अनेक राजपूत राजाओं ने देव-प्रतिमाओं को बचाने के प्रयास भी किए। इनमें बीकानेर नरेश अनूपसिंह का नाम सबसे ऊपर है। उसने अष्टधातु की बहुत सी मूर्तियों की रक्षा की तथा उन्हें अपने बीकानेर स्थित दुर्ग में भिजवा दिया। इन मूर्तियों को तेतीस करोड़ देवताओं के मंदिर में रखा गया। ई.1689 में दक्षिण के मोर्चे पर ही महाराजा अनूपसिंह का निधन हुआ।
वडनगर के मंदिर का विनाश
ई.1693 में औरंगजेब ने गुजरात के वडनगर में स्थित हितेश्वर मंदिर को तोड़ने के आदेश दिए। मंदिर को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया।
सोरों के सीता-राम मंदिर का विनाश
औरंगजेब केआदेशों से उत्तर प्रदेश में स्थित सोरों के सीता-राम मंदिर को भग्न किया गया। मंदिर के पुजारियों की मंदिर में ही हत्या की गई तथा गोंडा में देवी पाटन के नाम पर स्थित देव वन को नष्ट किया गया।
दिल्ली के जयसिंहपुरा का विनाश
जयपुर नरेश जयसिंह ने देश के कई नगरों में निजी सम्पत्तियां खरीदकर जयसिंहपुरा नामक स्थानों का निर्माण करवाया तथा उन्हें अपनी निजी सम्पत्ति बताकर ब्राह्मणों, साधुओं एवं बैरागियों को रहने के लिए दे दिया। ये लोग जयसिंहपुरा में रहकर अपने निजी मंदिर बनाते थे और उनमें देव-विग्रहों की स्थापना कर उनकी पूजा करते थे।
जब दिल्ली के एक जयसिंहपुरा में इस प्रकार की पूजा होने की सूचना मिली तो मुगलों ने उस जयसिंहपुरा को घेर लिया तथा वहाँ के बैरागियों को पकड़ लिया। मुगलों ने उनकी 13 मूर्तियों को जब्त करके दिल्ली के सूबेदार को भेज दिया। इस पर हिन्दुओं की भारी भीड़ इकट्ठी हो गई। उन्होंने बैरागियों को तो छुड़वा लिया किंतु मूर्तियों को नहीं छुड़वाया जा सका।
बीजापुर के मंदिरों का विनाश
ई.1698 में हमीदुद्दीन खाँ को बीजापुर के मंदिरों को तोड़ने भेजा गया। उसने वहाँ के मंदिरों को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दीं। बादशाह उसके काम से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने हमीदुद्दीन खाँ को गुसलखाने का दारोगा बना दिया ताकि वह प्रतिदिन हमीदुद्दीन खाँ को देख सके और उसकी प्रशंसा कर सके।
महाराष्ट्र में पंढरपुर मंदिर का ध्वंस
1 जनवरी 1705 को उसने मुहम्मद खलील और बेलदारों के दारोगा खिदमत राय को आदेश दिया कि महाराष्ट्र में पंढरपुर के मंदिर को तोड़ डाला जाए तथा कसाइयों को बुलाकर वहाँ गाएं कटवाई जाएं। जैसे ही हिन्दुओं को इस आदेश की जानकारी मिली, उन्होंने विठोबा (भगवान कृष्ण) तथा रुक्मणि की प्रतिमाओं को मंदिर से हटा कर छिपा दिया। मुगल सैनिकों ने मंदिर में गायों को लाकर उनकी हत्या की तथा मंदिर को ढहा दिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद हिन्दुओं ने इस मंदिर को पुनः बनाया जिसमें वही प्राचीन प्रतिमाएं पुनः स्थापित कीं।
मरते दम तक बनी रही मंदिर तोड़ने की लालसा
औरंगजेब के शासनकाल में उसके उन आदेशों की अक्षरशः पालना की गई जिनके अनुसार हिन्दू न तो अपने पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कर सकते थे और न नए मंदिर बना सकते थे। पूरे देश के प्रसिद्ध तीर्थों एवं मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को तुड़वाकर दिल्ली तथा आगरा में मस्जिदों की सीढ़ियों तथा मार्गों में डलवाया गया जिससे वे मुसलमानों के पैरों से ठुकराई जाएं और उनका घोर अपमान हो।
हजारों देवमंदिरों को मस्जिदों में बदल दिया गया। यहाँ तक कि छोटे-छोटे चबूतरों तथा पेड़ों के नीचे रखी देव-मूर्तियों एवं पत्थरों को भी तोड़ दिया गया। इस प्रकार औरंगजेब ने हर प्र्रकार से हिन्दुओं की भावनाओं को कुचलने का काम किया। उसकी यह प्रवृत्ति उसकी मृत्यु होने तक बनी रही।
औरंगजेब हिन्दू मंदिरों से कितनी घृणा करता था इसका अनुमान औरंगजेब द्वारा रूहिल्ला खाँ को लिखे गए एक पत्र से भली-भांति होता है जिसमें उसने लिखा कि-
‘महाराष्ट्र के बुतखाने (मंदिर) पत्थर एवं लोहे के बने हुए होते हैं जिन्हें हमारी सेनाएं, मेरे उस रास्ते से होकर निकलने से पहले, पूरी तरह नहीं तोड़ पाती हैं ताकि वे मुझे दिखाई न दें। इसलिए जब मैं वहाँ से होकर निकल जाऊँ तब मंदिर के ध्वंसावशेषों को और अधिक बेलदार लगाकर उन्हें फुर्सत से पूरी तरह तोड़ा जाए। इस कार्य में ऐसे दारोगा को लगाया जाए जो पूरी तरह से कट्टर हो और वह बुतखानों को तोड़ने के बाद उनकी नींवें भी उखाड़ फैंके।’
इस प्रकार हम देखते हैं कि औरंगजेब द्वारा ध्वस्त भवन बहुत बड़ी संख्या में थे। औरंगजेब ने इन भवनों को मिट्टी में मिलकार अपनी जेहादी मानसिकता का परिचय दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता