Sunday, December 22, 2024
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17. ययाति के श्राप से अनु के वंशज कुत्तों का मांस खाने लगे!

पिछली कड़ी में हमने चंद्रवंशी राजा ययाति के पुत्र यदु से चले वंशों की चर्चा की थी। इस कड़ी में हम ययाति द्वारा शापित दूसरे पुत्र तुर्वसु के वंशजों की चर्चा करेंगे। कुछ ग्रंथों में कहा गया है कि राजा ययाति के दूसरे पुत्र तुर्वसु से यवन उत्पन्न हुए जो धरती पर दूर-दूर तक फैल गये। पौराणिक ग्रंथों में वर्णित इन यवनों को वर्तमान समय में यहूदी एवं ईसाई माना जाता है।

कुछ पुराणों में कहा गया है कि राजा ययाति ने तुर्वसु को शाप दिया- ‘पिता का तिरस्कार करने वाले दुष्ट! जा! तू मांस भोजी, दुराचारी और वर्णसंकर म्लेच्छ हो जा।’ जबकि कुछ पुराणों के अनुसार राजा ययाति के बेटे ‘तुरू’ के वंशज आगे चलकर ‘तुर्क’ कहलाये।

वस्तुतः तुर्वसु से तुरुष्क उत्पन्न होने की बात अधिक सही लगती है जिन्हें आगे चलकर तुर्क कहा गया। इनका प्रारम्भिक इतिहास चीन के उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत से जुड़ा हुआ है। प्रारम्भ में ये इस्लाम के शत्रु थे किंतु जब मध्यकाल में इन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया तब इन्होंने इस्लाम के प्रसार का बीड़ा उठाया। भारत में इस्लाम को लाने का श्रेय इन्हीं तुर्कों को जाता है।

हरिवंश पुराण में लिखा है कि तुर्वसु के पुत्र गोभानु हुए तथा गोभानु के पुत्र राजा त्रैसानु थे जो कभी परास्त नहीं होते थे। त्रैसानु के पुत्र करन्ध और करन्धम के पुत्र मरुत्त हुए। मरुत्त पुत्रहीन थे, उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम सम्मता था। राजा मरुत्त ने अपनी पुत्री संवर्त्त ऋषि को दक्षिणा में प्रदान की। संवर्त ऋषि ने उस कन्या का विवाह एक पुरुवंशी राजा इलिन से कर दिया जिससे दुष्यंत का जन्म हुआ।

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यहाँ से पुरु वंश को पौरव वंश कहा जाने लगा। इस प्रकार पुरु वंश एवं तुर्वसु वंश पौरव वंश में विलीन हो गए। महाराज दुष्यंत इसी पौरव वंश में उत्पन्न हुए थे। मान्यता है कि राजा भरत की रानी शकुंता के पेट से उत्पन्न पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत हुआ।

महाराज दुष्यंत की एक अन्य रानी के गर्भ से करुत्थाम नामक पुत्र का जन्म हुआ। करुत्थाम के पुत्र का नाम आक्रीड था। आक्रीड के चार पुत्र हुए- पांड्य, केरल, कोल तथा चोल। इन राजकुमारों ने चार राजकुलों की स्थापना की जिन्हें पांड्य, केरल, कोल तथा चोल कहा गया।

जब देवयानी के दो पुत्रों यदु एवं तुरु ने अपने पिता की वृद्धावस्था लेने से मना कर दिया तो शर्मिष्ठा के पुत्रों की बारी आई। शर्मिष्ठा के दोनों बड़े पुत्रों द्रह्यु और अनु ने भी पिता को अपना यौवन देने से मना कर दिया। इस पर राजा ने उन्हें भी भयानक शाप दिये।

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कुछ पुराणों के अनुसार राजा ययाति के पुत्र अनु से अभोज्य भोजन करने वाली प्रजा उत्पन्न हुई। वे लोग कुत्ते, बिल्ली, सांप आदि का मांस खाते थे। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि ‘अनु’ के वंशज ही इतिहास में ‘हूँग-नू’ अथवा हूण कहलाये। ये लोग भी तुरुओं की भांति चीन देश में रहते थे।

हरिवंश पुराण में लिखा है कि अनु के पुत्र धर्म हुए और धर्म के पुत्र धृत, धृत के पुत्र दुदुह, दुदुह के पुत्र प्रचेता और प्रचेता के पुत्र सुचेता हुए। इस प्रकार हरिवंश पुराण में अनु के वंशजों के बारे में कहीं नहीं लिखा है कि वे धर्मविहीन तथा मांसभोजी थे। मत्स्य पुराण के अनुसार अनु के सभानर, चाक्षुष और परमेषु नामक तीन परम धार्मिक एवं शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए।

हरिवंश पुराण के अनुसार राजा ययाति के तीसरे पुत्र दुह्यु से भोज वंश की उत्पत्ति हुई। इस वंश के बारे में अधिक इतिहास नहीं मिलता है।

जब चारों पुत्रों ने राजा ययाति का बुढ़ापा लेने से मना कर दिया तो अंत में राजा ययाति ने शर्मिष्ठा के सबसे छोटे पुत्र पुरु को अपने पास बुलाकर उससे कहा कि वह अपने पिता का बुढ़ापा ले ले। पुरु ने अपने पिता का आदेश स्वीकार कर लिया।

इससे राजा ययाति ने पुरु से प्रसन्न होकर उसे गंगा-यमुना के बीच की भूमि का राजा बना दिया। राजा पुरु की एक रानी का नाम कौशल्या था जिसके गर्भ से जन्मेजय नामक पुत्र का जन्म हुआ। जन्मेजय की रानी अनंता थी जिसके पुत्र प्रचिंवान हुए। प्रचिंवान का वंश काफी लम्बे समय तक चलता रहा। उसके वंश में आगे चलकर इलिन नामक राजा हुआ जिसका विवाह तुर्वसु के कुल में उत्पन्न सम्मता से हुआ जो ऋषि संवर्त्त की पालिता पुत्री थी। इलिन की एक रानी का नाम राथांतरा था जिसके गर्भ से राजा दुष्यंत का जन्म हुआ। दुष्यंत के समय से यह कुल पौरव कहलाया जिसके बारे में हम पहले बता चुके हैं।

यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु, अनु और पुरु आदि नामों का उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। राजा पुरु के विजयी और पराक्रमी होने की चर्चा भी ऋग्वेद में है। एक स्थान पर लिखा है- ‘हे वैश्वानर! जब तुम पुरु के समीप पुरियों का विध्वंस करके प्रज्वलित हुए तब तुम्हारे भय से असिक्नी अर्थात् चेनाब के किनारे के काले अनार्य दस्यु भोजन छोड़कर आए।’

ऋग्वेद में ही एक स्थान पर उल्लेख हुआ है कि- ‘हे इंद्र! भूमि-लाभ के लिए युद्ध कर रहे पुरुकुत्स के पुत्र त्रसदस्यु और पुरु की आप रक्षा करें।’

इस प्रार्थना का समर्थन एक और मंत्र इस प्रकार करता है- ‘हे इंद्र! आपने राजा पुरु और राजा दिवोदास के लिए नब्बे पुरों का नाश किया है।’

पौरव वंश के राजा दुष्यंत की रानी शकुंतला के गर्भ से भरत का जन्म हुआ। भरत के नाम पर पौरव वंश को भरत-वंश तथा उनके द्वारा शासित क्षेत्र को ‘भारतवर्ष’ कहा जाने लगा। इसी कुल में आगे चलकर संवरण नामक राजा हुआ जिसकी रानी तप्ती के गर्भ से कुरु नामक प्रतापी पुत्र का जन्म हुआ। कुरु के नामक यह वंश कुरुवंश कहलाया जिसके वंश कौरव कहे गए। महाभारत का युद्ध इसी कौरव कुल के राजकुमारों के बीच में लड़ा गया था जिनमें से एक पक्ष को कौरव तथा दूसरे पक्ष को पाण्डव कहा जाता था।

कुछ पुराणों के अनुसार कौरव वंश की एक शाखा हस्तिनापुर पर, दूसरी शाखा मगध पर, तीसरी शाखा अफगानिस्तान पर तथा चौथी शाखा ईरान पर शासन करती थी।

इस प्रकार पुराणों में आए वर्णन के अनुसार भारतीय आर्य राजाओं के वंशज ही बंगाल की खाड़ी से लेकर ईरान देश तक तथा काश्मीर से लेकर केरल देश तक के विशाल क्षेत्र पर शासन करते थे। ये सभी आर्य राजा एक ही परिवार से निकले थे। इन पुराणों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि भारत में आर्य कहीं बाहर से नहीं आए थे अपितु भारतीय आर्य राजकुल भारत के ही थे। इन राजकुलों से बहिष्कृत राजकुल तुर्कों एवं शकों के रूप में चीन, म्लेच्छों के रूप में ईरान-ईराक तथा यवनों के रूप में यूरोप आदि देशों को चले गए तथा वहाँ जाकर विधर्मी हो गए।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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2 COMMENTS

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