वल्लभभाई के प्रयासों से गुजरात में बेगार बंद हो गई
बेगार प्रथा अनादि काल से मानव सभ्यता का अंग रही है। इस प्रथा में शासक एवं शक्तिशाली वर्ग समाज के आर्थिक रूप से असक्षम वर्ग से बलपूर्वक कार्य करता है तथा उसके बदले में कोई पारिश्रमिक नहीं देता। मुगलों एवं ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में जागीदारी एवं जमींदारी नामक शासन व्यवस्थाओं का विकास हुआ। इस कारण गांव-गांव में बेगार प्रथा फैल गई। अंग्रेजों के काल में गुजरात में बेगार प्रथा अपने चरम पर थी।
गुजरात में यह प्रचलन था कि जब कोई सरकारी अधिकारी किसी गांव के दौरे पर आता था तो उसके रहने-खाने का सारा प्रबंध गांव वालों की ओर से किया जाता था तथा लोगों को निःशुल्क सेवा देनी पड़ती थी, जिसे बेगार कहते थे। गोधरा अधिवेशन में बेगार बंद करने का प्रस्ताव पारित किया गया। अधिवेशन में पारित प्रस्तावों को सरदार पटेल ने बम्बई के कमिश्नर मि. प्रेट को भेज दिया तथा लिखा कि सरकार इन प्रस्तावों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करे। प्रेट इस मसौदे को पढ़कर आग-बबूला हो गया तथा उसने मसौदे को फाड़कर फैंक दिया। जब कई दिनों तक प्रेट का जवाब नहीं आया तो वल्लभभाई ने दूसरा पत्र लिखा।
जब उसका भी जवाब नहीं आया तो वल्लभभाई ने तीसरा पत्र लिखा तथा चेतावनी दी कि यदि दस दिन में इस पत्र का जवाब नहीं दिया तो वे संघर्ष का रास्ता अपनायेंगे तथा बेगारी के विरुद्ध पम्फलेट छपवाकर जनता में बांटेंगे। प्रेट ने इस बार जवाब भिजवाया कि आप किसी दिन मुझसे आकर मिलें। इस पर वल्लभभाई ने लिखा कि मिलने की क्या आवश्यकता है, यदि बेगारी लेने का कोई कानून हो तो उसकी प्रति भेज दें या फिर मि. प्रेट मेरे कार्यालय में आकर बात करें। प्रेट ने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
इस पर वल्लभभाई ने अपनी पूर्व चेतावनी के अनुसार, बेगारी न देने के आह्वान के पर्चे छपवाकर गांवों में बंटवा दिये। इसके बाद जब सरकारी अधिकारी गांवों में दौरे पर गये तो लोगों ने बेगार देने से मना कर दिया तथा अधिकारियों द्वारा ग्रामीणों से बेगार लेने का चलन बंद हो गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता