बहादुरशाह जफर मुगलों के वंश में भारत का आखिरी बादशाह था किंतु बहादुरशाह जफर की बादशाहत लाल किले के भीतर तक ही सीमित थी। अठ्ठारह सौ सत्तावन के क्रांतिकारियों ने उसे कुछ दिन के लिए फिर से बादशाह बना दिया। यह बुझते हुए दीपक की अंतिम लौ थी। वह पहली और आखिरी बार दिल्ली की सड़कों पर बादशाह की हैसियत से निकला।
12 मई 1857 की दोपहर में घोड़ों पर बैठे तिलंगों का एक दस्ता लाल किले में धड़धड़ाता हुआ घुस गया था। ये तिलंगे बिना किसी भय के लाल किले में धंसते ही चले गए। लाल किले के लोग उन्हें देखते ही सहम गए और उनके लिए स्वयं ही रास्ता छोड़ने लगे। यहाँ तक कि ये सिपाही बादशाह के निजी महल तक पहुंच गए और अपने घोड़ों से उतर कर बादशाह के महल में दाखिल हो गए।
इन सिपाहियों ने आज से पहले कभी किसी बादशाह को नहीं देखा था, न उन्हें उन नियमों एवं परम्पराओं की जानकारी थी जिनका पालन बादशाह के समक्ष जाते समय करना होता था। उन सबने अपने शरीर पर तलवारें और पीठ पर बंदूकें लगा रखी थीं और वे जूते तथा टोप पहने हुए थे।
बादशाह के समक्ष कोई भी व्यक्ति अपने हथियार लेकर और जूते पहनकर नहीं जा सकता था किंतु तिलंगों को किसी अदब, कायदे और रवायत से कुछ लेना-देना नहीं था। वे तो दिल्ली के विजेता थे। दिल्ली आज इन तिलंगों के कदमों में थी। इतना ही नहीं, वे तो महारानी विक्टोरिया का ताज बहादुरशाह को सौंपने आए थे। इसलिए यदि तिलंगों के व्यवहार में दर्प झलकता था, तो इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं था।
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जब तिलंगों ने बादशाह के कक्ष के बाहर तैनात एक चोबदार से कहा कि वे बादशाह से मिलना चाहते हैं तो बादशाह ने कहलवाया कि वह उन बागियों से नहीं मिलना चाहता है जिन्होंने दिल्ली में घुसकर निरपराध लोगों की हत्या कर दी है तथा दिल्ली के शरीफ लोगों के घरों में लूटपाट मचाई है।
तिलंगों को बादशाह के इन्कार पर हैरानी हुई। वे तो यह सोचते थे कि बादशाह बड़े उत्साह से क्रांतिकारियों का स्वागत करेगा तथा तुरंत स्वयं को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित करके हिंदुस्तान पर उसी तरह राज करने लगेगा जिस तरह से रानी विक्टोरिया लंदन में बैठकर भारत पर राज कर रही थी किंतु यहाँ तो मामला बिल्कुल उलटा ही था। बादशाह क्रांतिकारियों का नेतृत्व करना तो दूर, उनसे मिलने से भी मना कर रहा था!
बादशाह के पास इतनी सेना नहीं थी कि वह इन तिलंगों को महल में घुसने से रोक सके किंतु तिलंगों ने बादशाह के चोबदारों के उस आदेश को स्वीकार कर लिया कि किसी को भी बादशाह की अनुमति के बिना बादशाह सलामत के सामने जाने की अनुमति नहीं है। यदि किसी ने ऐसा दुस्साहस किया तो उसे बादशाह सलामत के कहर का सामना करना पड़ेगा। बादशाह के इन्कार कर देने से तिलंगे कुछ निराश तो हुए किंतु वे पीछे हटने को तैयार नहीं थे। वे जानते थे कि पीछे हटने का अर्थ केवल मौत है। भारत में केवल मेरठ या दिल्ली में ही अंग्रेजी सेनाएं नहीं थीं जिन्हें तिलंगों ने परास्त कर दिया था, अपितु कलकत्ता से लेकर राजपूताने तक अंग्रेजों की सैंकड़ों सेनाएं मौजूद हैं जो तिलंगों को मसल कर रख सकती थीं।
तिलंगे जानते थे कि यदि बहादुरशाह जफर ने क्रांतिकारी सैनिकों का साथ नहीं दिया तो भारत में मौजूद अंग्रेजी सेनाएं क्रांतिकारी सैनिकों को ढूंढ-ढूंढ कर मारेंगी। अतः तिलंगे लाल किले के भीतर ही डटे रहे तथा बादशाह के समक्ष अपना अनुरोध बार-बार-भिजवाते रहे। अंत में आधी रात के समय बहादुरशाह क्रांतिकारी सिपाहियों के सामने आया।
बहादुरशाह जफर ने क्रांतिकारी सिपाहियों से कहा कि उन्होंने बहुत गलत काम किया है। अंग्रेजों के निरपराध परिवारों एवं दिल्ली के रईसों को मारकर वे कौनसी क्रांति कर रहे हैं! इस पर कुछ तिलंगों ने बहुत तैश में आकर बादशाह की बात का प्रतिवाद किया। इससे बादशाह और अधिक नाराज हो गया।
अंत में देर तक चली बहस के बाद दोनों पक्ष शांत हो गए तथा बादशाह ने इस शर्त पर क्रांतिकारियों का नेतृत्व करना स्वीकार किया कि वे निरपराध लोगों पर हाथ नहीं उठाएंगे और उनकी सम्पत्तियों को नुक्सान नहीं पहुंचाएंगे तथा बादशाह के समक्ष तमीज से पेश आएंगे।
तिलंगों ने बादशाह की इन शर्तों को स्वीकार कर लिया और उन्होंने रात में ही बादशाह को 21 तोपों की सलामी दी। इस तरह 12 और 13 मई के बीच की आधी रात के सन्नाटे में लाल किले में से तोपें गरजने लगीं। इस प्रकार जिंदगी के अंतिम दिनों में बहादुरशाह जफर की बादशाहत आरम्भ हुई।
लाल किले से छूटते तोप के गोलों की आवाज से दिल्ली के लोगों की नींद खुल गई। अनजाने भय से सभी की छाती कांप गई। हे ईश्वर! जाने क्या होने को है! ये तोपें क्यों गरज रही हैं, क्या तिलंगों ने लाल किला उड़ा दिया या फिर अंग्रेज लौट आए! सैंकड़ों तरह की आशंकाएं प्रत्येक दिल्ली वासी के मन में कौंध गई।
लाल किले में गरजती हुई तोपों की आवाज यमुना के पश्चिमी तट पर स्थित रिज पर भी पहुंचीं किंतु तब तक अंग्रेज वहाँ से करनाल के लिए रवाना हो चुके थे। फिर भी वे दिल्ली से अधिक दूर नहीं जा पाए थे। इसलिए बहुत से अंग्रेजों ने भी तोपों की इन आवाजों को सुना। वे भी हैरान थे किंतु आधी रात में लाल किले में गरज रही तोपों का क्या मतलब है, वे समझ नहीं पाए!
सात समंदर पार करके लंदन से दिल्ली पर राज करने आए अंग्रेज आज की रात किसी भी बात का कोई भी अर्थ निकालने में असमर्थ थे। वे तो बस जितनी जल्दी हो सके दिल्ली से बहुत दूर निकल जाना चाहते थे। इसलिए वे असहायों की भांति रात के अंधेरे में भी करनाल की तरफ भागे चले जा रहे थे।
धीरे-धीरे तोपें शांत हो गईं, दिल्ली वासियों की फिर से आंख लग गई और करनाल की तरफ भाग रहे अंग्रेज भी दिल्ली से काफी दूर हो गए।
अंततः 12 मई 1857 की मनहूस रात भी बीत गई और 13 मई का दिन निकल आया। आज का दिन कल की तरह असमंजस से भरा हुआ नहीं था। दिल्ली ने एक दिशा ले ली थी। अब तिलंगे दिल्ली की सड़कों पर अवैध अतिथि नहीं थे। न ही अब वे दिशाहीन हत्यारे थे। और न ही दिल्ली के स्थानीय लुटेरे उन्हें भरम में डालकर उनसे सेठों और लालाओं की हवेलियां लूटने को कह सकते थे।
अब वे दुनिया में सबसे शानदार माने जाने अजीमुश्शान बादशाह बहादुरशाह जफर के सिपाही थे। ऐसे सिपाही जिन्हें बूढ़े बहादुरशाह जफर की बादशाहत स्थापित की थी।
दिल्ली की जनता को भी इस बात का पता चलना जरूरी था। इसलिए तिलंगों ने बादशाह बहादुरशाह जफर से अनुरोध किया कि वह दिल्ली की सड़कों पर एक जुलूस निकाले तथा दिल्ली की जनता को अभयदान दे। बहादुरशाह जुलूस निकालने का बड़ा शौकीन था। इसलिए वह इस कार्य के लिए तुरंत तैयार हो गया।
जब तिलंगे, बहादुरशाह को लेकर दिल्ली की सड़कों पर निकले तो बादशाह को स्वयं पर गर्व हुआ। आज जीवन में पहली बार उसे अनुभव हुआ कि बादशाह होने का अर्थ क्या होता है! तिलंगे पूरे जोश से बादशाह की जय-जयकार कर रहे थे तथा भारत माता की जय बोल रहे थे। जब तिलंगों ने रानी विक्टोरिया और गोरों को गालियां देना आरम्भ किया तो बादशाह खिन्न हो गया। उसने अनुभव किया कि तिलंगों की नारेबाजी में उस गरिमा का अभाव है जो बादशाह के जुलूसों में चलने वाले सिपाहियों में होती है।
तिलंगे अपनी विजय की प्रसन्नता का प्राकट्य अशोभनीय नारों से कर रहे थे, उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि अजीमुश्शान बादशाह हुजूर भी इस जुलूस में शामिल हैं और उनके सामने अशोभनीय शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता!
बादशाह अजीब सी दुविधा में फंस गया। एक तरफ से उसे लग रहा था कि यदि इन तिलंगों द्वारा की जा रही यह क्रांति सफल हो गई तो बहादुरशाह जफर भी अपने पुरखों की तरह हिंदुस्तान का बादशाह बन जाएगा किंतु दूसरी तरफ उसे अनुभव हो रहा था कि जब तक इन असभ्य पुरबियों को सभ्यता नहीं सिखाई जाएगी, तब तक ये बादशाह की गरिमा को समझ ही नहीं पाएंगे!
इसी दुविधा में फंसा हुआ बहादुरशाह जफर अपने हाथी पर बैठकर दिल्ली की सड़कों से गुजरता रहा। उसे पता नहीं था कि बहादुरशाह जफर की बादशाहत यहाँ से आरम्भ होकर यहीं पर समाप्त होने वाली थी। इस बादशाहत का कोई भविष्य नहीं था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता