हिन्दुओं के लिए जाति-संगठन उनका क्लब, उनका व्यावसायिक संघ और उनका हितकारी तथा मानव-प्रेमी समाज है। जाति-प्रथा के कारण भारत में कोई दरिद्रालय अथवा सुधारालय नहीं है, उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है।
– सिडनी लो, ए विजन ऑफ इण्डिया।
प्राचीन भारतीय आर्य ही, सिन्धु नदी के क्षेत्र में रहने के कारण हिन्दू कहलाए। आगे चलकर वे ही भारतीय समाज का मुख्य हिस्सा बने। आर्य-क्षत्रियों ने देश के विभिन्न भागों में छोटे-बड़े राज्यों का निर्माण किया। इसलिए आर्य संस्कृति का ही पूरे देश में न्यूनाधिक प्रचार हो गया। इसी को हिन्दू संस्कृति कहा गया। भारत की अनार्य संस्कृतियाँ भी इसी संस्कृति में समाती चली गईं। जाति-प्रथा, हिन्दू संस्कृति की प्रमुख सामाजिक व्यवस्था थी जिसका विकास आर्यों की प्राचीन वर्ण-व्यवस्था से हुआ और जो अब तक चली आ रही है।
जाति से तात्पर्य
‘जाति’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘जन’ धातु से मानी गई है जिसका अर्थ ‘जन्म’ से लिया जाता है। इसका सम्बन्ध ‘प्रजातीय’ अथवा ‘जन्मगत’ व्यवस्था से है। आधुनिक समाज-शास्त्रियों ने भारतीय समाज में प्रचलित जाति-व्यवस्था को अनेक प्रकार से परिभाषित करने का प्रयास किया है।
समाजशास्त्रियों के अनुसार भारतीय जाति-व्यवस्था सामाजिक संगठन का सामान्य रूप है जो हिन्दू समाज को समूहों में विभक्त करता है, जिसके स्तर और आचरण में सम्यक् अंतर है। इसे विकसित होने में सैंकड़ों वर्ष लगे हैं तथा इसमें काल-परिवर्तन के साथ अनेक परिवर्तन होते रहे हैं। आज भारत के हिन्दू समाज में तीन हजार से भी अधिक जातियाँ और उपजातियाँ अस्तित्व में हैं।
कुछ समाजशास्त्रियों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भारतीय जाति-प्रथा कुटुम्बों अथवा कुटुम्बों के समूहों का समवेत रूप है जो साधारण नाम के साथ एक काल्पनिक पूर्वज, कुलदेवता या एक सामान्य वंश परम्परा से सम्बन्ध रखती है। भारतीय जाति-प्रथा के उद्भव के सम्बन्ध में किसी काल्पनिक पूर्वज या कुलदेवता के होने की बात सही नहीं है क्योंकि किसी पूर्वज या कुलदेवता का सम्बन्ध किसी जाति के गौत्र-विशेष से होता हे न कि सम्पूर्ण जाति से। जाति-प्रथा के उद्गम का आधार व्यवसाय है न कि पूर्वज या देवता।
इतिहासकार स्मिथ के अनुसार- ‘जाति उन परिवारों का एक समूह है जो धार्मिक क्रियाविधि की विशुद्धता, खान-पान और वैवाहिक-सम्बन्ध की पवित्रता के विशिष्ट नियमों का पालन करने के लिए परस्पर संगठित है।’
हर्बर्ट रिजले के अनुसार- ‘जाति परिवारों के संगठन या समूह को कहते हैं। उस समूह के सदस्यों का एक ही नाम होता है जो किसी ईश्वरीय या महान् मानवीय अस्तित्त्व से सम्बन्धित होता है, उनका एक ही व्यवसाय होता है और योग्य व्यक्तियों के विचारानुसार वे एक संयुक्त समुदाय हैं।’
आर. एन. मुकर्जी के अनुसार- ‘जाति जन्म पर आधारित सामाजिक संस्कार और वर्ग-विभाजन की वह गतिशील व्यवस्था है जो आवागमन, खान-पान, विवाह, व्यवसाय और सामाजिक सहवास के सम्बन्ध में अपने सदस्यों पर नियम या प्रतिबन्ध लागू करती है।’
डॉ. शाम शास्त्री के अनुसार- ‘आहार और विवाह सम्बन्धी सामाजिक पृथकत्व को ही जाति कहते हैं।’
जाति प्रथा का आरम्भ
ऋग्वैदिक-काल से ही चार प्रधान श्रेणियों के अतिरिक्त अनेक व्यवसायपरक जातियाँ उत्पन्न होने लगी थीं। ऋग्वेद में चर्मग्न, चर्मकार, कापरी, लोहार-तष्टा, बढ़ई-वप्ता, नापित भिषक-वैद्य आदि कार्य करने वाले लोगों का उल्लेख है। ये लोग ही आगे चलकर व्यावसायिक समूहों में संगठित हो गए और उनकी जातियाँ निश्चित होने लगीं।
उत्तरवैदिक-काल में अनेक प्रकार के व्यवसाय और शिल्प होने लगे। इस काल तक रथकार (रथों का निर्माण करने वलो), सूत (सारथि), वाय (जुलाहा), स्वर्णकार, कर्मार (लोहार), तक्ष, क्षातृ, कुलाल (कुम्हार), ईषुकृत, धवकृत, मृगयु (शिकारी), रज्जुसर्ग, वय, मणिकार, सुराकार, विदलकार, कंटककार, निषद, श्वनि (श्वान-रक्षक), तच्चक (बढ़ई) आदि अनेक व्यवसाय प्रधान वर्गों का उल्लेख हुआ है।
इस काल में सूत को उच्च पद प्राप्त था। इस काल में लोहार को इतना आदर प्राप्त था कि उसे मनीषी शिल्पकार कहा जाता था। रथकार को अग्निहोत्र करने का अधिकार था।
दसवीं-ग्यारहवीं सदी ईस्वी में भारत आए अरबी लेखक अलबरूनी ने हिन्दुओं के चार वर्णों के बारे में लिखा है, जिससे अनुमान होता है कि इस काल तक वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी किंतु विभिन्न वर्णों के भीतर जातियाँ, धीरे-धीरे स्थूल रूप लेती जा रही थीं। इस काल तक वैश्य और शूद्र का वर्गीकरण भी उत्तर-वैदिक काल की तरह पुनः स्पष्ट हो गया था। कृषकों एवं पशुपालकों को वैश्य मान लिया गया था तथा विभिन्न शिल्पकर्म में संलग्न वर्ग, शूद्र वर्ण की जातियों में समाहित हो रहे थे।
बारहवीं शताब्दी के आते-आते भारत में अनेक जातियाँ बन गईं जो व्यवसाय के साथ-साथ आचार-विचार में भी एक दूसरे से अलग थीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य जैसी उच्च जातियां, निम्न-व्यवसाय अपनाने वाली जातियों से प्रायः अलग रहती थीं।
यदि इन तीन उच्च जातियों के सदस्य किसी बढ़ई, लोहार, सुनार गन्ने के रस या अन्य द्रव पदार्थ के व्यापारी, तेली बुनकर, रंगरेज, बेत का कार्य करने वाले या धोबी से भोजन ग्रहण करते हैं तो उन्हें प्रायश्चित स्वरूप तप करना पड़ता था। अंगिरा के अनुसार धोबी, चमार, मछुए या बेत का कार्य करने वाले का स्पर्श नहीं करना चाहिए।
जाति-प्रथा की विशेषताएँ
भारतीय समाज में प्रचलित जाति-प्रथा की कुछ निश्चित विशेषताएँ हैं-
(1.) यह जन्म पर आधारित है अर्थात् बालक जिस जाति के सदस्य के घर में जन्म लेगा उसकी जाति भी वही होगी।
(2.) वैवाहिक सम्बन्ध अपनी जाति में ही किए जाते हैं। इस नियम का उल्लघंन करने पर भारी अर्थ-दण्ड देना पड़ता है और कभी-कभी जाति से भी बहिष्कृत कर दिया जाता है। वर्तमान समय में यह बन्धन शिथिल हो गया है।
(3.) प्राचीन काल में प्रत्येक जाति का प्रायः पैतृक व्यवसाय होता था, किन्तु आधुनिक काल में इस विशेषता का लोप हो गया है।
(4.) जाति-व्यवस्था में खान-पान पर कठोर नियन्त्रण होता है। प्रत्येक जाति का कुछ दूसरी जातियों के साथ खान-पान का व्यवहार नहीं होता है।
(5.) सामाजिक रीति-रिवाजों तथा त्यौहारों के अवसर पर जातीय नियमों का पालन करना पड़ता है।
(6.) इस व्यवस्था में बहुत सी जातियाँ उच्च-स्तर की मानी जाती हैं तथा कुछ निम्न-स्तर की। निम्न-स्तर की जातियों के साथ उच्च-स्तर की जातियों का व्यवहार एक-समान नहीं होता।
वर्ण व्यवस्था और जाति-प्रथा में अन्तर
वर्ण व्यवस्था एवं जाति-व्यवस्था आर्यों की सामाजिक व्यवस्था के दो रूप हैं। इन दोनों व्यवस्थाओं में मूलभूत समानता होते हुए भी अनेक अन्तर हैं-
(1.) वर्ण-व्यवस्था का प्रारम्भ ऋग्वैदिक एवं उत्तरवैदिक-काल में हुआ था जबकि जाति-व्यवस्था उसके बहुत बाद उत्पन्न हुई।
(2.) वर्ण का प्रारम्भिक सम्बन्ध मनुष्य की त्वचा के रंग से था किंतु बाद में उसका आधार कर्म से हो गया। जाति का सम्बन्ध किसी निश्चित व्यवसाय में संलग्न समुदाय में जन्म लेने से था।
(3.) वर्ण व्यवस्था सहज स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हुई थी किंतु जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था का ही जटिल रूप है।
(4.) वर्ण का सम्बन्ध राजनीतिक और सामाजिक स्थिति से था परन्तु जाति का सम्बन्ध परम्परागत व्यवसाय और विशिष्ट सामाजिक रीति-रिवाजों से था।
(5.) एक ही वर्ण में एक व्यवसाय और भिन्न-भिन्न व्यवसाय करने वाले लोग सम्मिलित थे परन्तु एक जाति में एक ही व्यवसाय करने वाले लोग होते थे।
(6.) वर्ण-व्यवस्था मूलतः कर्म पर आधारित थी, जबकि जाति-व्यवस्था जन्म पर आधारित थी।
(7.) वर्ण-व्यवस्था में विभिन्न वर्णों एवं समुदायों के बीच, खान-पान और सहभोज, विवाह सम्बन्ध आदि आचरण प्रचलित थे परन्तु विभिन्न जातियों में ऐसी प्रथाएं वर्जित थीं।
(8.) वर्ण-व्यवस्था में अस्पृश्यता का प्राधान्य नहीं था परन्तु जाति-व्यवस्था में छुआछूत का भेदभाव अपने चरम पर था।
(9.) वर्ण-व्यवस्था में रक्त की शुद्धता पर कम बल दिया जाता था परन्तु जाति-व्यवस्था में रक्त की शुद्धता एवं धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाजों की विशिष्टता पर अधिक जोर दिया जाता था।
(10.) वर्ण-व्यवस्था परिवर्तनशील थी अर्थात् कोई भी व्यक्ति दूसरे वर्ण की योग्यता को अपनाकर उस वर्ण को अपना सकता था परन्तु जाति-व्यवस्था में जाति-परिवर्तन सम्भव नहीं होता है।
जाति-प्रथा की उत्पत्ति
जाति-प्रथा की उत्पत्ति, वर्ण व्यवस्था का ही विकसित और जटिल रूप है। जाति-प्रथा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए हैं-
(1.) विराट पुरुष से वर्ण-उत्पत्ति का सिद्धान्त: ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के अनुसार ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट पुरुष (ब्रह्म) के मुख से, क्षत्रियों की उत्पत्ति विराट पुरुष की भुजाओं से, वैश्यों की उत्पत्ति विराट पुरुष की जंघाओं से तथा शूद्रों की उत्पत्ति विराट पुरुष के चरणों से हुई।
इस प्रकार वर्णों की उत्पत्ति में ईश्वरीय तत्त्व और देव-आज्ञा की अवधारणा बनाई गई ताकि जनसाधारण वर्ण-व्यवस्था के प्रति आस्था बनाए रखे। जिस प्रकार वर्ण-विभाजन को ईश्वरीय माना गया, उसी प्रकार जाति-व्यवस्था को भी देव-निर्मित समझा गया।
(2.) कुल देवता से उत्पत्ति का सिद्धान्त: होकाट के अनुसार प्राचीन काल में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि समझा जाता था और उसे अनेक धार्मिक कृत्य करने पड़ते थे। अतः राजा ने विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न लोगों को नियुक्त किया और उन्हें पद तथा प्रतिष्ठा प्रदान की। इन लोगों के बन्धु-बान्धव एक समूह में संगठित होते गए।
सेनार्ट की मान्यता है कि लोग अलग-अलग कुलदेवता की पूजा करते थे और उनके वंशज अपने आपको उसी कुलदेवता की सन्तान समझने लगे। एक देवता को मानने वाले ने दूसरे देवता को मानने वालों के साथ खान-पान तथा वैवाहिक सम्बन्धों आदि के मामलों में प्रतिबन्ध लगाने आरम्भ कर दिए। इस प्रकार भिन्न-भिन्न समूहों का निर्माण हुआ जो आगे चलकर जातियों में बदल गए।
(3.) राजनीतिक नियंत्रण का सिद्धान्त: प्रसिद्ध समाजशास्त्री अबेडुबायस की मान्यता है कि ब्राह्मणों ने अपने लाभ तथा अपनी प्रभुता को बनाए रखने के लिए एक चतुर राजनीतक योजना बनाई। उन्होंने धार्मिक कृत्यों के सम्पादन का एकाधिकार अपने पास रखकर समाज के अन्य लोगों को अपने नियंत्रण में कर लिया, जाति-प्रथा इसी योजना का परिणाम थी।
(4.) रक्त की शुद्धता का सिद्धान्त: आर्यों की सभ्यता के प्रारम्भ में किसी प्रकार की सामाजिक एवं व्यावसायिक संरचना नहीं थी। समस्त आर्य समान रूप से एक ही समुदाय में रहते थे। भारत में आने पर उन्होंने भारत के मूल निवासियों को परास्त किया। आर्यों ने अपने रक्त की शुद्धता को बनाए रखने के लिए उन्हें अपने से निम्न सामाजिक स्तर प्रदान किया।
इस प्रकार रक्त की शुद्धता के आधार पर दो वर्ण बन गए- एक आर्य और दूसरे अनार्य (दस्यु)। रक्त की शुद्धता के विचार ने ही आर्यों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्णों में विभक्त कर दिया। कालांतर में प्रत्येक वर्ण में आवश्यकतानुसार छोटे-छोटे व्यावसायिक समूह बनने लगे। प्रत्येक समूह के लोगों ने अपने रक्त की शुद्धता बनाए रखने के लिए भिन्न व्यवसाय के लोगों से वैवाहिक और खान-पान के सम्बन्ध अलग कर लिए और जाति-व्यवस्था अस्तित्व में आई।
(5.) आर्थिक सिद्धान्त: समाज-शास्त्री वैजित इवेटसन की मान्यता है कि जाति-प्रथा की उत्पत्ति आर्थिक हितों की सुरक्षा का परिणाम थी। सभ्यता के विकास के साथ-साथ नये-नए व्यवसाय भी फैलने लगे और धीरे-धीरे ये व्यवसाय आर्थिक संघों में संगठित हो गए। कालान्तर में अपने-अपने व्यवसाय के हितों की रक्षा करने के लिए व्यवसाय को वंश-परम्परा में बदल दिया गया।
इसी से जाति-प्रथा की उत्पत्ति हुई। प्रोफेसर नेसफील्ड का मत है कि जातीय भिन्नताएँ उद्योग-धन्धों की भिन्नता के कारण हैं। जे. एस. मिल की मान्यता है कि व्यवसायों की ऊँच-नीच की भावना से जाति-प्रथा में ऊँच-नीच की भावना आ गई। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि जाति-प्रथा का निर्माण श्रम-विभाजन के आधार पर हुआ जैसे- पुरोहिताई, लुहारी, सुनारी, बढ़ईगिरी, बुनकरी आदि।
(6.) भौगोलिक सिद्धान्त: इस सिद्धान्त के प्रतिपादक क्लिब्रेट की मान्यता है कि विभिन्न स्थानों पर बस जाने के कारण एक स्थान पर बसे समूह के खान-पान, रीति-रिवाज तथा अन्य बातों में दूसरे स्थान पर बसे समूह से भिन्नता आ गई। इस भिन्नता ने जाति-प्रथा को जन्म दिया।
इस प्रकार भारतीय जाति-प्रथा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए हैं परन्तु इनमें से कोई भी सिद्धांत पूर्ण नहीं है। भारतीय जाति-व्यवस्था का विकास क्रमशः हुआ है और यह भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक कारणों का मिश्रित परिणाम है।
जाति-प्रथा का विकास
वर्ण-व्यवस्था का स्थान लेने वाली जाति-व्यवस्था धीरे-धीरे अत्यधिक जटिल होती चली गई। विभिन्न वर्णों के अंतर्गत अनेक जातियाँ बन गईं और ये जातियाँ भी उपजातियों में विभाजित हो गईं। प्रत्येक जाति का एक विशेष व्यवसाय था और उस व्यवसाय पर उसी जाति का एकाधिकार हो गया। अब जन्म से ही मनुष्य की जाति निश्चित थी और इसमें परिवर्तन नहीं हो सकता था। जातियों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ जाति-प्रथा में संकीर्णता और अपरिवर्तनशीलता भी बढ़ी। जाति-प्रथा के विकास में कई कारकों ने भूमिका निभाई-
(1.) पुरोहितों की भूमिका: वर्ण-व्यवस्था को ‘कर्म’ के स्थान पर ‘जन्म’ आधारित बनाने में पुरोहितों (ब्राह्मणों) की बड़ी भूमिका थी। उन्होंने वर्णों को ईश्वरीय-रचना घोषित किया। इस व्यवस्था में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और प्रमुखता की मजबूती से स्थापना की गई थी। ब्राह्मण सूत्रकारों ने धर्मशास्त्रों की रचना की तथा व्यवस्था दी कि जो व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण नहीं है, वह पुरोहित का कार्य नहीं कर सकेगा।
‘गौतम धर्म सूत्र’ के रचनाकार गौतम ने व्यवस्था दी कि ब्राह्मण को ब्राह्मण या क्षत्रिय के यहाँ भोजन ग्रहण करना चाहिए। विशेष परिस्थितियों में वह वैश्य के घर भी भोजन ग्रहण कर सकता है किन्तु साधारणतः नहीं। इससे स्पष्ट है कि सहभोज और खान-पान की प्रथा परस्पर वर्गों या समूहों में निषिद्ध की जा रही थी।
ब्राह्मणों ने समाज पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए धर्मशास्त्रों में नवीन सिद्धान्त, निषेध, नियम आदि का निर्माण किया। ब्राह्मणों के भोजन की शुद्धता सम्बन्धी नियमों ने विभिन्न जातियों और वर्गों के पारस्परिक सहभोज को पूरी तरह समाप्त कर दिया। फलस्वरूप लोग छोटे-छोटे समुदायों में बँटने लगे और विभिन्न जातियों में परिवर्तित हो गए।
(2.) नवीन व्यवसायों की भूमिका: आर्यों की आर्थिक-समृद्धि के साथ-साथ, नवीन व्यवसायों का विकास हुआ जिन्हें अपनाने वालों की पृथक्-पृथक् जातियाँ तथा उपजातियाँ बनने लगीं। व्यापारियों तथा शिल्पकारों ने अपने आपको विभिन्न श्रेणियों, संघों तथा समुदायों में विभक्त कर लिया जो कालान्तर में उनकी जातियाँ तथा उपजातियाँ बन गईं। इस प्रकार व्यवसायों की भिन्नता एवं विशेषता ने जाति-प्रथा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
(3.) विदेशी आक्रांताओं की भूमिका: ईसा के पूर्व तथा बाद की प्रारम्भिक सदियों में यूनानी, शक, कुषाण, हूण, पह्लव तथा पार्थियन आदि विदेशी आक्रांता भारत में अपने छोटे-छोटे राज्य स्थापित करने में सफल हो गए। वे भारत के विभिन्न हिस्सों में बस गए। इन विदेशी लोगों ने स्थानीय रीति-रिवाजों और व्यवसायों को अपना लिया।
भारतीय संस्कृति ने उन्हें भी व्यवसाय के आधार पर हिन्दू समाज में सम्मिलित कर लिया। इन लोगों ने भी अपने-अपने व्यवसायों के आधार पर अपनी नवीन जातियाँ बना लीं। ‘गुर्जर’ जाति का उद्भव खिजरों से माना जाता है जो कि विदेशी आक्रांता के रूप में भारत में आए थे। आज भी कुछ लोग अपनी जाति ‘हूण’ लिखते हैं।
(4.) आर्य जाति का विभिन्न क्षेत्रों में जाकर बसना: आर्य प्रजा के प्रसार के साथ-साथ आर्यों के विभिन्न समूह भारत के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गए। इन समूहों ने स्थानीय प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों को अपना कर अपनी सामाजिक प्रथाओं और आचार-विचार के भिन्न नियम बना लिए। इस कारण उनमें और उनके सजातीय बन्धुओं में अंतर दिखाई देने लगा।
ये अंतर समय के साथ अधिक दृढ़ होते चले गए तथा उनमें समस्त प्रकार के सामाजिक सम्पर्क और व्यवहार विलुप्त हो गए। परिणामस्वरूप नवीन जातियों का निर्माण होता चला गया। उदाहरण के लिए ब्राह्मण जाति के विभिन्न क्षेत्रों में बसे ब्राह्मण समूह अपने आपको पृथक् जाति के समझने लगे। इस प्रकार ब्राह्मण वर्ण में ही गोरवाल ब्राह्मण, पालीवाल ब्राह्मण, श्रीमाली ब्राह्मण, पुष्करणा ब्राह्मण, आदिगौड़ ब्राह्मण, गुर्जर-गौड़ ब्राह्मण, गौड़ ब्राह्मण आदि सैंकड़ों जातियां-उपजातियाँ बन गईं।
(5.) रीति-रिवाजों में परिवर्तन एवं जाति बहिष्कार: अनेक बार स्थानीय प्रभाव के कारण अथवा अन्य परिस्थितियों के कारण किसी-किसी जाति के रीति-रिवाज में परिवर्तन करने लगे परन्तु उस जाति के बहुत से लोगों को रीति-रिवाजों में परिवर्तन पसन्द नहीं आए।
अतः वे अपने को उनसे अलग करके अपनी नई जाति बना लेते थे। कभी-कभी जाति के रीति-रिवाजों, प्रथाओं तथा अनुशासन का उल्लंघन करने वाले परिवारों अथवा समूहों को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था। ऐसे लोग भी आपस में खान-पान एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके नवीन जाति के रूप में संगठित हो जाते थे।
(6.) जैन एवं बौद्ध धर्मों की भूमिका: यद्यपि जैन एवं बौद्ध दोनों ही धर्मों में ब्राह्मणों की बनाई वर्ण-आश्रम व्यवस्था को नकारा गया था किंतु इन दोनों धर्मों में धार्मिक रीतियों के आधार पर नई जातियों ने जन्म लिया। पहले अधिकांश जातियों में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के लोग थे किंतु अहिंसा के प्रभाव से बहुत-सी जातियों के शाकाहारियों ने मांसाहारियों से अलग होकर अपनी पृथक् जातियाँ बना लीं।
(6.) नवीन धार्मिक सम्प्रदायों की भूमिका: उत्तरवैदिक-काल से लेकर मध्ययुग में विकसित होने वाले नवीन धार्मिक सम्प्रदायों के अनुयाइयों ने भी पृथक् जातियों का रूप ले लिया, जैसे कि लिंगायत, कबीर-पन्थी, रामदासी, दादूपन्थी, रामस्नेही इत्यादि।
(7.) दार्शनिक मान्यताओं की भूमिका: भारतीय दर्शन की, भाग्यवाद, कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद की विचारधारा ने भी जाति-प्रथा को ठोस बनाने में अपना योगदान दिया। किसी जाति विशेष में जन्म लेने को भाग्य के साथ जोड़ दिया गया। धर्मशास्त्रों के रचयिताओं, व्याख्याकारों और टीकाकारों ने जाति-प्रथा को पुष्ट करने का प्रयत्न किया।
(8.) अन्य कारकों की भूमिका: आर्य राजाओं ने ब्राह्मणों की बनाई हुई व्यवस्थाओं को स्वीकार करके जाति-व्यवस्था को स्थाई बनाने में योगदान दिया। सैंकड़ों वर्षों से अस्तित्त्व में रहने के कारण जाति-प्रथा की जड़ें इतनी गहरी हो गईं कि इस व्यवस्था को बदलना अथवा त्यागना सम्भव नहीं रहा। भारत में इस्लाम के प्रवेश के बाद मुस्लिम आक्रान्ताओं ने हिन्दुओं को बल-पूर्वक मुसलमान बनाना आरम्भ किया।
इस पर हिन्दुओं ने स्वयं को जाति की मजबूत दीवारों में सुरक्षित बनाने का प्रयास किया। इस कारण जाति-व्यवस्था और भी अधिक जटिल व कठोर हो गयी। प्रत्येक जाति ने अपने अस्तित्त्व को बनाए रखने के लिए अपने चारों ओर रीति-रिवाजों और परम्पराओं का मजबूत परकोटा बना लिया जिसे लांघकर न तो कोई बाहर जा सकता था और न भीतर आ सकता था।