Sunday, December 22, 2024
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रजिया की असफलता के कारण

यद्यपि रजिया इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों में सर्वाधिक योग्य तथा राजपद के सर्वाधिक उपयुक्त थी परन्तु दूषित राजनीतिक वातावरण में वह शासन चलाने में असफल रही तथा लगभग साढ़े तीन साल बाद ही उसका पतन हो गया। उसकी असफलता के कई कारण थे-

रजिया का स्त्री होना

मध्यकालीन इतिहासकारों ने रजिया की विफलता का प्रधान कारण उसका स्त्री होना बताया है। इस्लाम में मान्यता है कि पैगम्बर मुहम्मद ने कहा था कि- ”स्त्री संसार में सबसे अमूल्य एवं पवित्र वस्तु है किंतु जो लोग स्त्री को अपना शासक बनायेंगे, उन्हें कभी मानसिक शांति प्राप्त नहीं होगी। इस मान्यता ने रजिया को मुसलमान-प्रजा का आदर का पात्र नहीं बनने दिया।

रजिया की स्वातंत्र्य-प्रियता

रजिया ने पर्दे का त्याग करके, औरतों के कपड़ों का त्याग करके तथा पुरुषों के कपड़े धारण करके तुर्की अमीरों के अहंकार को गहरी चोट पहुँचाई थी। तलवार को ही योग्यता का एकमात्र आधार मानने वाले तुर्की अमीर, एक औरत के अधीन रहकर काम करने को तैयार नहीं हुए। यदि वह पुरुष होती तो निश्चय ही अधिक सफल हुई होती क्योंकि तब याकूत के प्रेम का अपवाद नहीं फैला होता और इस आधार पर जुनैदी आदि तुर्की अमीरों ने उसका विरोध करने का दुस्साहस नहीं किया होता।

चालीस गुलामों का असहयोग

इल्तुतमिश ने शासन कार्य चलाने के लिये चालीस गुलामों का एक मण्डल तैयार किया था। चालीस गुलामों के इस मण्डल ने सुल्ताना को अपने हाथों की कठपुतली बनाना चाहा किंतु रजिया ने उनका अंकुश स्वीकार नहीं किया तथा स्वयं अपने विवेक से काम किया। इसलिये चालीस गुलामों ने सुल्तान से सहयोग करने की बजाय उसका विरोध किया। उन्होंने रजिया के सुल्तान पद पर रहते हुए भी रजिया के भाई बहराम को सुल्तान घोषित कर दिया किंतु उनमें स्वयं में एकता नहीं थी, इसलिये वे बहराम को सुल्तान के पद पर नहीं बैठा सके।

तुर्की अमीरों का स्वार्थ

रजिया की असफलता का दूसरा कारण तुर्की अमीरों का स्वार्थ तथा उनका शक्तिशाली होना बताया है। दिल्ली सल्तनत में तुर्की अमीरों का प्रभाव इतना अधिक था कि सुल्तान के लिये उनसे विरोध करके शासन करना अत्यन्त दुष्कर कार्य था। रजिया ने तुर्कों की शक्ति को एक सीमा तक घटा दिया। रजिया ने बड़ी सतर्कता के साथ अमीरों के प्रतिद्वन्द्वी दलों को संगठित करना आरम्भ किया परन्तु इसके लिये समय की आवश्यकता थी जो दुर्भाग्यवश उसे नहीं मिल सका।

रजिया की स्वेच्छाचारिता

रजिया ने अपने विपक्षियों पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुश शासन स्थापित करने का प्रयत्न किया। तुर्की अमीरों ने ऐबक के शासन काल से ही राज्य की सारी शक्ति अपने हाथों में कर ली थी। वे एक स्त्री सुल्तान के स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन को सहन नहीं कर सके। उन्होंने रजिया के स्वेच्छाचारी शासन को समाप्त करके ही दम लिया।

याकूत के प्रति अनुराग

 सुल्तान बनने पर रजिया ने अबीसीनियाई हब्शी गुलाम जमालुद्दीन याकूत को अमीर-ए-आखूर अर्थात् घुड़साल का अध्यक्ष बना दिया। रजिया इस गुलाम को घुड़सवारी करते समय अपने साथ ले जाती। याकूत को किसी भी समय सुल्तान के समक्ष उपस्थित होने का अधिकार दिया गया। इस कारण लोगों में रजिया सुल्तान और याकूत के प्रेम का अपवाद प्रचलित हो गया। यह बात स्वयं को उच्च रक्तवंशी मानने वाले तुर्की अमीरों को पसन्द नहीं आयी। वे अमीरजादे जो सुल्तान से विवाह करने का स्वप्न देखते थे, उन्हें याकूत को लेकर सुनाई पड़ने वाले किस्सों से बहुत चोट पहुंची। अब वे ही रजिया के विरोधी हो गये। इससे रजिया का विरोध बड़ी तेज गति से बढ़ने लगा। अन्त में अमीरों तथा सरदारों ने उसके शासन को समाप्त कर दिया।

जनता के सहयोग का अभाव

यद्यपि दिल्ली की जनता ने ही रजिया को दिल्ली के तख्त पर बैठाया था किंतु जब उन्हें पता लगा कि उन्होंने ऐसा करके इस्लाम की शिक्षाओं के विपरीत कार्य किया है, तो वही जनता अब सुल्तान की विरोधी हो गई। हिन्दू प्रजा का सहयोग तथा समर्थन प्राप्त करना वैसे भी असम्भव था क्योंकि तुर्की शासक, विधर्मी तथा विदेशी थे।

इल्तुतमिश के वयस्क पुत्रों का जीवित रहना

इल्तुतमिश के वयस्क पुत्रों का जीवित रहना रजिया के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ। उनसे षड्यन्त्रकारियों को सम्बल तथा प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। षड्यन्त्रकारी इन शहजादों की आड़ में रजिया पर प्रहार करने लगे। अंत में इन्हीं शहजादों में से एक बहरामशाह ने राज्य पर अधिकार कर लिया।

केन्द्रीय सरकार की दुर्बलता

रजिया की विफलता का एक कारण यह बताया जाता है कि अभी तक भारत में तुर्की साम्राज्य का शैशव काल था। इस कारण केन्द्रीय सरकार, प्रांतपतियों को अपने पूर्ण नियंन्त्रण में नहीं कर पाई थी। स्थानीय हिन्दू सरदारों के निरन्तर विद्रोह होते रहने के कारण सुल्तानों को इन प्रांतपतियों को पर्याप्त मात्रा में सैनिक एवं प्रशासकीय अधिकार देने पड़ते थे। अतः विरोधियों द्वारा इन प्रांतपतियों से सांठ-गांठ कर लेने पर केन्द्रीय सरकार उन्हें ध्वस्त नहीं कर पाती थी।

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