इंडोनेशिया में प्राचीन मंदिरों को चण्डी कहा जाता है। इस कारण बोरोबुदुर बौद्ध स्मारक को ”चण्डी बोरोबुदुर” भी कहा जाता है। जावा में चण्डी शब्द प्राचीन बनावट के द्वार और स्नान से सम्बन्धित रचनाओं के लिए प्रयुक्त होता है। बोरोबुदुर शब्द का अर्थ ज्ञात नहीं है। इस शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख अंग्रेज इतिहासकार सर थॉमस रैफल्स की पुस्तक History of Jawa में हुआ था किंतु इस नाम का इससे पुराना कोई उल्लेख किसी शिलालेख अथवा ग्रंथ में उपलब्ध नहीं होता है। ई.1365 के एक तालपत्र (ताड़पत्र) में कहा गया है कि ”पवित्र बौद्ध पूजा स्थल नगरकरेतागमा” को ”बुदुर” कहा जाता है। यह तालपत्र मजापहित राजदरबारी एवं बौद्ध विद्वान मपु प्रपंचा द्वारा ई.1365 में लिखा गया था। संभवतः थॉमस रैफल्स ने (ई.1814 में) उसी तालपत्र के आधार पर इस बौद्ध स्मारक का नाम बोरो बुदुर लिखा।
कुछ विद्वानों के अनुसार बोरोबुदुर, बोरे-बुदुर का अपभ्रंश है जिसका अर्थ ”बोरे गाँव के निकट बुदुर (बुद्ध) का मंदिर” था। इण्डोनेशिया में अधिकांश मंदिरों के नाम निकटतम गाँवों के नाम पर रखे हुए हैं। जावा भाषा के अनुसार इस स्मारक का नाम ”बुदुरबोरो” होना चाहिए। रैफल्स ने यह भी सुझाव दिया कि बुदुर सम्भवतः आधुनिक जावा भाषा के शब्द बुद्ध से बना है। अन्य पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार नाम का दूसरा घटक (बुदुर) जावा भाषा के ”भुधारा” शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है- ”पहाड़”। ध्यान देने की बात है कि भारत में भूधर का अर्थ पहाड़ होता है। अन्य सम्भावित शब्द-व्युत्पतियों के अनुसार बोरोबुदुर ”बुद्ध उहर” अर्थात् बुद्ध-विहार है और यह जावा भाषा के ”बियरा बेदुहुर” शब्द का अपभ्रंश उच्चारण है। बुद्ध-उहर का अर्थ ”बुद्ध का नगर” भी हो सकता है। जावा भाषा में बेदुहुर शब्द का अर्थ ”एक उच्च स्थान” भी होता है। कसपरिस के अनुसार बोरोबुदूर का मूल नाम भूमि सम्भार भुधार है जो एक संस्कृत शब्द है और इसका अर्थ ”बोधिसत्व के दस चरणों के संयुक्त गुणों का पहाड़” है।
धार्मिक बौद्ध इमारत का निर्माण और उद्घाटन
बोरोबुदुर के निर्माण एवं उद्घाटन के सम्बन्ध में दो शिलालेख मिले हैं। ये दोनों शिलालेख तमांगगंग रीजेंसी में केदु नामक स्थान पर मिले हैं। ई.824 के कायुमवुंगान शिलालेख के अनुसार राजा समरतुंग की पुत्री प्रमोदवर्द्धिनी ने जिनालया (उन लोगों का क्षेत्र जिन्होंने सांसारिक इच्छा और और अपने आत्मज्ञान पर विजय प्राप्त कर ली) नामक धार्मिक भवन का उद्घाटन किया। ई.824 के ही त्रितेपुसन शिलालेख में लिखा है कि क्री कहुलुन्नण (प्रमोदवर्द्धिनी को कहुलुन्नण भी कहते हैं) ने भूमिसम्भार नामक कमूलान को धन और रख-रखाव सुनिश्चित करने के लिए (कर-रहित) भूमि प्रदान की। कमूलान का अर्थ ”उद्गम स्थल” होता है। यह पूर्वजों की याद में बनाया गया एक धार्मिक स्थल है जो शैलेन्द्र राजंवश से सम्बंधित है।
बोरोबुदुर, पावोन और मेंदुत का रहस्य
बोरोबुदुर बौद्धमंदिर, योग्यकर्ता नगर से लगभग 40 किलोमीटर दूर और सुरकर्ता नगर से 86 किलोमीटर दूर स्थित है। यह दो जुड़वां ज्वालामुखियों, सुंदोरो-सुम्बिंग और मेर्बाबू-मेरापी एवं दो नदियों प्रोगो और एलो के बीच एक ऊंचे क्षेत्र में स्थित है। इस क्षेत्र को केदू का मैदान भी कहा जाता है। स्थानीय मिथकों एवं दंतकथाओं के अनुसार केदू का मैदान, जावा के पवित्र स्थलों में से एक है। इस क्षेत्र की उच्च कृषि उर्वरता के कारण इसे The Garden of Jawa अर्थात् जावा का बगीचा भी कहा जाता है। 20वीं सदी में मरम्मत कार्य के दौरान यह पाया गया कि इस क्षेत्र के तीनों बौद्ध मंदिर, बोरोबुदुर, पावोन और मेंदुत, एक सीधी रेखा में स्थित हैं। ऐसा माना जाता है कि तीनों मंदिर किसी धार्मिक कारण से एक सीध में बनाए गए थे, यह कारण क्या था, इसके बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। विश्व में अनेक स्थानों पर ऐसे पिरामिड पाए गए हैं जो एक सीधी रेखा में स्थित हैं और यह माना जाता है कि ये पिरामिड धरती के मुनष्यों ने नहीं बनाए थे अपितु दूसरे ग्रहों से धरती पर आए परग्रही इंसानों ने बनाए थे।
झील में तैरता पुष्प कमल था बोरोबुदुर स्मारक
बोरोबुदुर मंदिर का निर्माण समुद्र तल से 265 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक झील में खड़ी 49 फुट ऊंची चट्टान पर किया गया था। इस प्राचीन झील का अस्तित्व, 20वीं सदी के आरम्भ में पुरातत्वविदों के बीच गहन चर्चा का विषय था। ई.1931 में हिंदू और बौद्ध वास्तुकला के डच विद्वान डब्ल्यू ओ. जे. नियूवेनकैम्प द्वारा विकसित सिद्धांत के अनुसार ”केदू मैदान” प्राचीन काल में एक झील हुआ करता था और बोरोबुदुर अपने निर्माण के समय इसी झील में कमल पुष्प के समान तैरता था। इसके निर्माण का समय मंदिर में उत्कीर्णित उच्चावचों और 8वीं तथा 9वीं सदी के दौरान सामान्य रूप से प्रयुक्त शाही पात्रों के अभिलेखों की तुलना से अनुमानित किया जाता है। बोरोबुदुर सम्भवतः ई.800 के लगभग स्थापित हुआ। यह मध्य जावा में शैलेन्द्र राजवंश के शिखर काल ई.760 से 830 से मेल खाता है। इस समय यह श्रीविजय राजवंश के प्रभाव में था। इसके निर्माण का अनुमानित समय 75 वर्ष है और निर्माण कार्य ई.825 के लगभग समरतुंग के कार्यकाल में पूर्ण होना अनुमानित है।
जावा में हिन्दू और बौद्ध शासकों के समय में भ्रम की स्थिति है। शैलेन्द्र राजवंश को बौद्ध धर्म का कट्टर अनुयायी माना जाता है। यद्यपि सोजोमेर्टो में प्राप्त प्रस्तर शिलालेखों के अनुसार वे हिन्दू थे। उनके काल में केदु मैदान के निकट स्थित मैदानों और पहाड़ों में हिन्दू मंदिरों एवं बौद्ध स्मारकों का निर्माण हुआ। ई.720 में शैव राजा संजय ने बोरोबुदुर से 10 कि.मी. पूर्व में स्थित वुकिर पहाड़ी पर शिव परमबनन मंदिर का निर्माण आरम्भ करवाया। कुछ विद्वानों के अनुसार उस काल में बोरोबुदुर सहित इस क्षेत्र के अन्य बौद्ध मंदिरों का निर्माण इसलिए सम्भव था क्योंकि संजय के उत्तराधिकारी राकाई पिकातान ने बौद्ध अनुयाइयों को इस तरह के मंदिरों के निर्माण की अनुमति प्रदान कर दी थी। ई.778 के कलसन राजपत्र के अनुसार, पिकातान ने बौद्धों के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शन करने के लिए बौद्ध समुदाय को कलसन नामक गाँव दिया।
कुछ पुरातत्वविदों का मत है कि एक हिन्दू राजा द्वारा बौद्ध स्मारकों की स्थापना में सहायता करना, इस बात का प्रमाण है कि जावा में कभी भी बड़ा धार्मिक टकराव नहीं था। यद्यपि इस समय वहाँ दो विरोधी राजवंश राज्य कर रहे थे जिनमें से शैलेन्द्र राजवंश बौद्ध धर्म का अनुयाई था और संजय राजवंश शैव धर्म का। इन दोनों राजवंशों में आगे चलकर रातु बोको महालय को लेकर ई.856 में युद्ध हुआ। भ्रम की स्थिति परमबनन परिसर के लारा जोंग्गरंग मंदिर के बारे में भी मौजूद है जो संजय राजवंश के बोरोबुदुर के प्रत्युत्तर में शैलेन्द्र राजवंश के विजेता रकाई पिकातान ने स्थापित करवाया। अन्य मतों के अनुसार वहाँ पर शान्तिपूर्वक सह-अस्तित्व का वातावरण था जहाँ ”रारा-जोंग्गरंग” शैलेन्द्र राजवंश की राजकुमारी होकर भी संजय राजवंश में रानी बनकर आई और शिव मंदिर के निर्माण में भागीदार रही।
गुमनामी के अंधेरों में गुम बोरोबुदुर
ई.928 से 1006 के बीच मेरापी पहाड़ में शृंखलाबद्ध ज्वालामुखियों के फूट पड़ने के कारण राजा मपु सिनदोक ने माताराम राजवंश (इसे संजय राजवंश भी कहते हैं) की राजधानी को पूर्वी जावा में स्थानान्तरित कर दिया। इस कारण बोरोबुदुर का क्षेत्र निर्जन हो गया और यह मंदिर कई सदियों तक ज्वालामुखीय राख तथा जंगल के बीच छिपा रहा। इस स्मारक का अस्पष्ट उल्लेख मध्यकाल में ई.1365 के लगभग मपु प्रपंचा की पुस्तक नगरकरेतागमा में मिलता है जो मजापहित काल में लिखी गई। इसमें ‘बुदुर में विहार’ होने का उल्लेख है। मनुष्यों की दृष्टि से ओझल हो जाने के बाद भी यह स्मारक लोक कथाओं में जीवित रहा और इसके साथ कई दंतकथाएं जुड़ गईं।
14वीं सदी में जावा में हिन्दू राजवंश का पतन हो गया और जावाई लोगों को इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। इस कारण चौदहवीं शताब्दी में इस द्वीप पर समस्त निर्माण कार्य बन्द हो गए। अधिकतर लोग मुसलमान बन चुके थे तथा बचे हुए बौद्ध जान बचाकर बाली द्वीप तथा भारत आदि देशों को भाग गए थे। इसलिए बोरोबुदुर की सुधि लेने वाला भी कोई नहीं रहा। इस बीच जावा द्वीप पर कई राजनीतिक उतार-चढ़ाव आए और सत्ताओं के परिवर्तन होते रहे।
18वीं सदी के दो प्राचीन ”बाबाद” (जावाई वृत्तांत) में इस स्मारक के साथ जुड़ी हुई असफलताओं की कथा का उल्लेख मिलता है। ”बाबाद तनाह जावी” (अथवा जावा का इतिहास) के अनुसार ई.1709 में माताराम साम्राज्य के राजा ”पकुबुवोनो प्रथम” के प्रति विद्रोह करना ”मास डाना” के लिए घातक सिद्ध हुआ। इसमें लिखा है कि ”रेडी बोरोबुदुर” पहाड़ी की घेराबंदी की गई। इसमें विद्रोहियों की पराजय हुई तथा राजा ने उन्हें मौत की सजा सुनाई। ”बाबाद माताराम” (माताराम साम्राज्य का इतिहास) में बोरोबुदुर बौद्ध स्मारक को ई.1757 में योग्यकार्ता सल्तनत के युवराज ”मोंचोनागोरो” के दुर्भाग्य से जोड़ा गया है। इसके अनुसार स्मारक में प्रवेश निषेध होने पर भी वह एक छिद्रित स्तूप के भीतर छिपकर इसके भीतर गया। अपने महल में वापस आने के बाद वह बीमार हो गया और अगले दिन उसका निधन हो गया। सोक्मोनो नामक एक लेखक ने ई.1976 में लौकिक मत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि जब 15वीं सदी में जावा के लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया तो इस मंदिर को उजाड़ना आरम्भ कर दिया।
अंग्रेजों द्वारा बोरोबुदुर स्मारक की खोज
ई.1811-16 की अवधि में जावा द्वीप ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन रहा। जावा के ब्रिटिश प्रशासक लेफ्टिनेंट गवर्नर जनरल थॉमस स्टैमफोर्ड रैफल्स ने जावा के इतिहास में गहरी रुचि ली। उसने जावा द्वीप का दौरा किया तथा द्वीप पर उपलब्ध प्राचीन वस्तुओं को आधार बनाकर एवं स्थानीय निवासियों से चर्चा करके जावा का इतिहास तैयार किया। उसके समय में जावा द्वीप पर कई प्राचीन स्मारकों को खोज निकाला गया। ई.1814 में सेमारंग के निरीक्षण दौरे पर, बुमिसेगोरो गाँव के निकट के जंगल में एक बड़े स्मारक के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। वह स्वयं इसकी खोज करने में असमर्थ था। अतः उसने एच. सी. कॉर्नेलियस नामक एक अभियंता को अन्वेषण का काम सौंपा। कॉर्नेलियस तथा उसके 200 साथियों ने यहाँ फैले जंगल के पेड़ों को काट डाला तथा दूर-दूर तक फैली घास को जलाकर मैदान की तरह साफ कर दिया। बोरोबुदुर स्मारक ज्वालामुखीय राख के नीचे दबा हुआ था, उसे भी खोदकर बाहर निकाला गया। स्मारक के ढहने के खतरे को देखते हुए उन्होंने खुदाई का काम बहुत अधिक नहीं किया। इस प्रकार रैफल्स को इस स्मारक के पुनरुद्धार का श्रेय प्राप्त है।
डच ईस्ट-इण्डीज सरकार द्वारा संरक्षण
1816 ई. में ब्रिटिश प्रशासक लेफ्टिनेंट गवर्नर जनरल थॉमस स्टैमफोर्ड रैफल्स को जावा छोड़ देना पड़ा और जावा द्वीप पर नीदरलैण्ड की ”डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी” का अधिकार हो गया। इसके बाद जावा को ”ईस्टइण्डीज कॉलॉनी” कहा जाने लगा। केदु के डच प्रशासक हार्टमान ने कॉर्नेलियस के कार्य को आगे बढ़ाया और 1835 ई. में पूरे परिसर को भूमि से बाहर निकाल लिया। बोरोबुदुर के पुनरुत्थान में उसने व्यक्तिगत दिलचस्पी ली। उसने इस बारे में कोई लेखन कार्य नहीं किया किंतु दंतकथाओं को आधार बनाकर स्मारक स्थल की खुदाई को जारी रखा तथा मुख्य स्तूप में बुद्ध की बड़ी मूर्ति को खोज निकाला। 1842 ई. में हार्टमान ने मुख्य गुम्बद का अन्वेषण किया, हालांकि उसके द्वारा खोजा गया कार्य अज्ञात है।
जावा की डच ईस्ट-इण्डीज सरकार ने डच अभियंता एफ. सी. विल्सन तथा जे. एफ. जी. ब्रुमुण्ड को स्मारक के अध्ययन का कार्य सौंपा। विल्सन ने इस स्मारक की प्रस्तर शिलाओं पर उत्कीर्ण मूर्तियों (Reliefs) के सैकड़ों रेखाचित्र बनाए तथा ब्रुमुण्ड ने राइटअप तैयार किए। ब्रुमुण्ड का कार्य 1859 ई. में पूरा हुआ। डच सरकार विल्सन के रेखाचित्रों को साथ जोड़कर ब्रुमुण्ड के कार्य पर आधारित लेख प्रकाशित करना चाहती थी लेकिन ब्रुमुण्ड ने सहयोग नहीं किया। सरकार ने बाद में एक अन्य शोधार्थी सी. लीमान्स को यह कार्य सौंपा। उसने विल्सन के स्रोतों और ब्रुमुण्ड के कार्य पर आधारित निबन्ध लिपिबद्ध किए। ई.1873 में ”बोरोबुदुर का निबंधात्मक अध्ययन” अंग्रेजी भाषा में में प्रकाशित हुआ और उसके एक वर्ष बाद इसका फ्रांसीसी भाषा में अनुवाद प्रकाशित किया गया। स्मारक का प्रथम चित्र 1873 ई. में डच-फ्लेमिश तक्षणकार इसिडोर वैन किंस्बेर्गन ने लिया।
धीरे-धीरे इस स्थान की चर्चा होने लगी और यह विश्व भर के शोधार्थियों के आकर्षण का केन्द्र बन गया। ई.1882 में सांस्कृतिक कलाकृतियों के मुख्य निरीक्षक ने स्मारक की कमजोर स्थिति के कारण प्रस्तर शिलाओं पर उत्कीर्ण मूर्तियों (Reliefs) को किसी अन्य स्थान पर संग्रहालय में स्थानान्तरित करने का आग्रह किया। इसके परिणामस्वरूप सरकार ने पुरातत्वविद् ग्रोयन वेल्ड्ट को स्थान का अन्वेषण करने और परिसर की वास्तविक स्थिति ज्ञात करने के लिए नियुक्त किया। उसने अपने प्रतिवेदन में कहा कि यह डर अनुचित है इसलिए इसे इसी स्थिति में बनाए रखा जाए।
बोरोबुदुर की शिल्प सामग्री दुनिया भर में पहुंची
जब इस स्मारक की प्रसिद्धि होने लगी तो देशी-विदेशी लोगों ने बोरोबुदुर की शिल्प सामग्री को स्मृतिचिह्न के रूप में चुराना आरम्भ कर दिया और इसकी मूर्तियों तथा कलात्मक पत्थरों को लूट लिया। इनमें से कुछ भाग तो औपनिवेशिक सरकार की सहमति से भी लूटे गए। 1886 ई. में श्यामदेश के राजा चुलालोंगकॉर्न ने जावा की यात्रा की और बोरोबुदुर से कुछ मूर्तियाँ अपने देश ले जाने का आग्रह किया। उसे मूर्तियों के आठ छकड़े भरकर ले जाने की अनुमति मिल गई। इस सामग्री में विभिन्न स्तंभों से उतारे गए तीस मूर्ति-शिलापट्ट, पांच बुद्ध प्रतिमाएं, दो सिंह मूर्तियाँ, एक व्यालमुख प्रणाल, कुछ सीढ़ियों और दरवाजों के कला अनुकल्प और एक द्वारपाल प्रतिमा सम्मिलित थीं। इनमें से कुछ प्रमुख कलाकृतियाँ, जैसे शेर, द्वारपाल, काल, मकर और विशाल जलस्थल (नाले) आदि, बैंकॉक राष्ट्रीय संग्रहालय के जावा कला कक्ष में प्रदर्शित की गई हैं।
बोरोबुदुर मंदिर का पुनर्स्थापन
1885 ई. में योग्यकार्ता की पुरातत्व सोसाइटी के अध्यक्ष यजेर्मन ने बोरोबुदुर स्मारक में एक छुपे हुए पैर को खोजा। प्रस्तर शिलाओं पर उत्कीर्ण मूर्तियों (Reliefs) के छुपे हुए पैर व्यक्त करने वाले चित्र 1890-91 ई. में बने। जावा की डच ईस्टइण्डीज सरकार ने इस खोज के बाद बोरोबुदुर बौद्ध स्मारक के संरक्षण देने की दिशा में काम आगे बढ़ाया। 1890 ई. में सरकार ने इसके सरंक्षण हेतु योजना तैयार करने के लिए एक तीन सदस्यीय आयोग बैठाया। इसमें डच कलाविद् एवं इतिहासकार ब्रांडेस, डच सैन्य अभियंता थियोडोर वैन एर्प और डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लोक निर्माण विभाग के निर्माण अभियंता वैन डी कमर को सम्मिलित किया गया। इस आयोग ने 1902 ई. में ईस्टइण्डीज सरकार के सामने तीन प्रस्तावों वाली योजना रखी। पहले प्रस्ताव में स्मारक के कोनों को पुनः स्थापित करने, अव्यवस्थित पत्थरों को हटाने, वेदिकाओं को सुदृढ़ करने और झरोखे, महराब (तोरण), स्तूप तथा मुख्य गुम्बद को पुनर्स्थापित करने के सुझाव सम्मिलित थे ताकि तत्काल होने वाली संभावित दुर्घटनाओं को रोका जा सके। दूसरे प्रस्ताव में प्रकोष्ठ को हटाने, उचित रखरखाव करने, तलों (छतों) और स्तूपों की मरम्मत करके जल-निकासी में सुधार करने के सुझाव सम्मिलित थे। उस समय इस कार्य की अनुमानित लागत लगभग 48,800 डच गिल्डर थी।
1907 से 1911 ई. के मध्य थियोडोर वैन एर्प के सुझावों के अनुसार मरम्मत का कार्य किया गया। इस कार्य के पहले चरण में प्रथम सात माह तक स्मारक के आसपास खुदाई की गई ताकि बुद्ध की मूर्तियों के सिर और स्तम्भों के पत्थर खोजे जा सकें। इसके बाद वैन एर्प ने तीनों ऊपरी वृत्ताकार चबूतरों और स्तूपों को ध्वस्त करके उनका पुनः निर्माण करवाया। इसी बीच, वैन एर्प ने स्मारक में सुधार हेतु अन्य विषयों की खोज की जिनके आधार पर 34,600 गिल्डर की लागत के नए कार्य स्वीकृत किए गए। वैन एर्प ने मुख्य स्तूप के शिखर पर छत्र (तीन स्तरीय छतरी) का पुनर्निर्माण का कार्य आरम्भ करवाया किंतु बाद में उसने छत्र को पुनः हटा दिया क्योंकि शिखर के निर्माण के लिए मूल पत्थर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं थे तथा बोरोबुदुर के शिखर की मूल बनावट ज्ञात नहीं थी। हटाया गया छत्र अब बोरोबुदुर से कुछ सौ मीटर उत्तर में स्थित कर्म विभांगगा संग्रहालय में रखा है।
पुनर्स्थापन के कार्य को सामान्यतः मूर्तियों की सफाई पर केन्द्रित रखा गया तथा वैन एर्प ने जलनिकासी की समस्या का समाधान नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि पन्द्रह वर्षो में स्मारक के गलियारों की दीवारें झुकने लगी और प्रस्तर शिलाओं पर उत्कीर्ण मूर्तियों (Reliefs) में दरारें दिखने लगीं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वैन एर्प ने मरम्मत कार्य में कंकरीट का उपयोग किया था जिससे क्षारीय लवण तथा कैल्शियम हाइड्रॉक्साइड का घोल बाहर आने लगा और उसका बहाव शेष हिस्सों पर भी होने लगा किंतु 1939 ई. में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया और उसके समाप्त होते ही 1945 ई. में इंडोनेशियाई राष्ट्रीय क्रांति आरम्भ हो गई जो 1949 ई. तक चली। इन कारणों से बोरोबुदुर का पुनर्स्थापन कार्य बीच में ही रुक गया। इस दौरान स्मारक को मौसम की प्रतिकूलता तथा जल-निकासी की समस्या का सामना करना पड़ा जिसके कारण पत्थरों की मूल बनावट खिसकने लगी और दीवारें धरती में धँसने लगीं। 1950 के दशक तक बोरोबुदुर ढहने की कगार पर पहुँच गया। 1965 ई. में इंडोनेशिया ने यूनेस्को से बोरोबुदुर सहित अन्य स्मारकों का अपक्षय रोकने के लिए सहायता मांगी। 1968 ई. में इंडोनेशिया के पुरातत्व सेवा के प्रमुख प्रोफेसर सोेक्मोनो ने ”बोरोबुदुर सरंक्षण अभियान” आरम्भ किया और बड़े पैमाने पर मरम्मत परियोजना आरम्भ की।
1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में इंडोनेशिया सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से बोरोबुदुर स्मारक को बचाने के लिए बड़ा नवीनीकरण कराने का अनुरोध किया। इण्डोनेशिया सरकार के इस अनुरोध पर ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, साइप्रस, फ्रांस तथा जर्मनी ने इस कार्य के लिए धन उपलब्ध कराया। इस धन से इंडोनेशिया सरकार और यूनेस्को ने 1975-82 ई. तक बड़ी नवीनीकरण परियोजना के अंतर्गत स्मारक का जीर्णोद्धार करवाया। नवीनीकरण के दौरान दस लाख से भी अधिक पत्थर हटाकर उन्हें एक तरफ विशाल आरे के आकार में जमाकर रखा गया जिससे उन्हें अलग-अलग पहचाना जा सके तथा सूचीबद्ध रूप से सफाई और परिरक्षण के काम किए जा सकें। पत्थरों को सूक्ष्मजीवियों से मुक्त करने के लिए कीटनाशकों से उपचारित किया गया। स्मारक की नींव को सुदृढ़ बनाया गया तथा समस्त 1460 स्तम्भों की सफाई की गई। पुनर्स्थापन में पाँच वर्गाकार चबूतरों को हटाकर वापस लगाने तथा जल-निकासी प्रणाली में सुधार लाने का कार्य भी सम्मिलित था। इस विशाल परियोजना में लगभग 600 लोगों ने कार्य किया और कुल 69,01,243 अमीरीकी डॉलर व्यय हुए। नवीनीकरण का कार्य पूर्ण होने के बाद यूनेस्को ने 1991 ई. में बोरोबुदुर को विश्व विरासत स्थलों में सूचीबद्ध किया। वर्तमान में बोरोबुदुर स्मारक तीर्थ-यात्रियों एवं विश्व भर के पर्यटकों के लिए खुला हुआ है।
धार्मिक समारोह
यूनेस्को द्वारा विशाल नवीनीकरण के बाद, बोरोबुदुर को पुनः तीर्थयात्रा और पूजास्थल के रूप में काम में लिया जाने लगा। वर्ष में एक बार, मई या जून माह में पूर्णिमा के दिन इंडोनेशिया में बौद्ध धर्म के लोग गौतम बुद्ध के जन्म, निधन और शाक्यमुनि के रूप में ज्ञान प्राप्त करने के उपलक्ष्य में वैशाख उत्सव मनाते हैं। वैशाख का यह दिन इंडोनेशिया में राष्ट्रीय छुट्टी के रूप में मनाया जाता है तथा तीन बौद्ध मंदिरों मेदुत से पावोन होते हुए बोरोबुदुर तक समारोह मनाया जाता है।
बम विस्फोटों से उड़ाने का षड़यंत्र
21 जनवरी 1985 को बोरोबुदुर स्मारक में अचानक हुए नौ बम विस्फोटों से स्मारक के नौ स्तूप बूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गए। यह षड़यंत्र कुछ मुस्लिम उग्रवादियों ने रचा था। एक मुस्लिम धर्मोपदेशक हुसैन अली अल हब्स्याई को पकड़ लिया गया तथा लगभग 6 साल तक चले मुकदमे के बाद उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। बम ले जाने वाले उग्रवादी समूह के दो अन्य सदस्यों को 20 वर्ष के कारावास की एवं एक अन्य व्यक्ति को 13 वर्ष के कारावास की सजा मिली।
पर्यटकों की संख्या में वृद्धि
बोरोबुदुर बौद्ध स्मारक इंडोनेशिया में विश्व भर के पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण का केन्द्र है। 1974 ई. में स्मारक को देखने के लिए 2 लाख 60 हजार पर्यटक आए जिनमें से 36 हजार विदेशी पर्यटक थे। देश में अर्थव्यवस्था संकट से पूर्व 1990 के दशक के मध्य तक यह संख्या बढ़कर 25 लाख प्रति वर्ष तक पहुँच गई जिनमें से 80 प्रतिशत घरेलू पर्यटक थे।
भूकम्प से अप्रभावित
27 मई 2006 को मध्य जावा के दक्षिणी तट पर रिक्टर पैमाने पर 6.2 तीव्रता का भूकम्प आया। इस घटना से योग्यकर्ता नगर के निकट के क्षेत्रों में गंभीर क्षति के साथ बहुत से लोग हताहत हुए किंतु बोरोबुदुर इससे अप्रभावित रहा।
मेरापी पर्वत में ज्वालामुखी विस्फोट
वर्ष 2010 के अक्टूबर और नवम्बर माह में बोरोबुदुर मंदिर से लगभग 28 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित मेरापी पर्वत में भयानक ज्वालामुखी विस्फोट हुए जिनसे बोरोबुदुर स्मारक को भारी क्षति पहुंची तथा ज्वालामुखीय राख मंदिर पर आकर गिरी। 3 से 5 नवम्बर तक मंदिर की मूर्तियों पर राख की 2.5 सेंटीमीटर मोटी परत चढ़ गई। आस-पास के पेड़-पौधों को भी हानि पहुंची। 5 से 9 नवम्बर तक मंदिर परिसर को राख की सफाई करने के लिए बन्द रखा गया। यूनेस्को ने मेरापी पर्वत से ज्वालामुखी विस्फोट के बाद बोरोबुदुर के पुनर्स्थापन की लागत के रूप में 30 लाख अमरीकी डॉलर की सहायता प्रदान की। मंदिर की जल निकासी प्रणाली में ज्वालामुखीय राख भर गई थी जिसे हटाने के लिऐ फिर से 55 हजार से अधिक प्रस्तर शिलाएं हटाई गईं। इस पूरे कार्य में लगभग एक साल लग गया।
जर्मनी द्वारा संरक्षण कार्य
जनवरी 2012 में जर्मनी की सरकार के दो प्रस्तर सरंक्षण विशेषज्ञों ने 10 दिन मंदिर में रहकर मन्दिर की स्थिति का अध्ययन किया। इस अध्ययन के आधार पर जून 2012 में जर्मनी ने द्वितीय चरण के पुनर्स्थापन कार्यों के लिए यूनेस्को को 1,30,000 अमीरी डॉलर की सहायता देने का प्रस्ताव किया। अक्टूबर 2012 में पत्थर सरंक्षण, सूक्ष्मजैविकी, सरंचना अभियांत्रिकी और रासायनिक अभियान्त्रिकी के छः विशेषज्ञों ने एक सप्ताह तक बोरोबुदुर में रहकर इसका पुनः निरीक्षण किया। इसके बाद यहाँ एक बार फिर से संरक्षण कार्य करवाए गए। जून 2012 में बोरोबुदुर को विश्व के सबसे बड़े पुरातत्व स्थल के रूप में गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल किया गया। अगस्त 2014 में इस स्मारक की सीढ़ियों पर लकड़ी का आवरण लगाया गया ताकि मूल सीढ़ियों को जूतों से घिसने से बचाया जा सके।
केलुड पर्वत में ज्वालामुखी विस्फोट
13 फरवरी 2014 को योग्यकार्ता से 200 किलोमीटर पूर्व में स्थित पूर्वी जावा के केलुड पर्वत में ज्वालामुखी विस्फोट हुआ जो योग्यकर्ता तक सुनाई दिया। इससे निकली राख से प्रभावित होने के कारण बोरोबुदुर, परमबनन और रातु बोको सहित योग्यकर्ता और मध्य जावा के बड़े पर्यटन स्थल कुछ दिनों के लिए बन्द कर दिये गये। इस दौरान बोरोबुदुर की सरंचना को ज्वालामुखीय राख से बचाने के लिए प्रतिष्ठित स्तूपों और मूर्तियों को ढक दिया गया।
आईसिस के निशाने पर
अगस्त 2014 में आईएसआईएस (आईसिस) की इंडोनेशियाई शाखा ने सोशियल मीडिया पर धमकी दी कि वह बोरोबुदुर सहित इंडोनेशिया की अन्य मूर्ति परियोजनाओं को शीघ्र ही ध्वस्त करेगा। इसके बाद इंडोनेशियाई पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा बोरोबुदुर मंदिर की सुरक्षा बढ़ाई गई। सरकार ने मंदिर परिसर में सीसीटीवी लगाए और रात में सुरक्षा पहरा बढ़ा दिया।
जावाई स्थापत्य स्मारक घोषित
जब जावा में रह रहे भारतीय बौद्धांे और हिन्दुओं को इस स्मारक के बारे में ज्ञात हुआ तो उन्होंने बोरोबुदुर की पहाड़ी पर बड़ी संख्या में निर्माण कार्य आरम्भ कर दिये। इण्डोनेशिया की मुस्लिम सरकार को इस स्थान से कोई भी हिन्दू अथवा बौद्ध पुण्य स्थान संरचना नहीं मिली। इस कारण सरकार ने इसे हिन्दू अथवा बौद्ध स्थल न मानकर स्थानीय जावा संस्कृति का स्मारक घोषित किया है।
बौद्ध चैत्य एवं स्मारक का प्रारूप
बोरोबुदुर को एक बड़े स्तूप की तरह निर्मित किया गया है ऊपर से देखने पर यह विशाल तांत्रिक बौद्ध मंडल जैसा दिखाई देता है। यह बौद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और मन के स्वभाव को निरूपित करता है। इसका मूल आधार वर्गाकार है जिसकी प्रत्येक भुजा 118 मीटर है। इसमें नौ मंजिलंे हैं। निचली छः मंजिलें वर्गाकार तथा ऊपरी तीन मंजिलें वृत्ताकार हैं। ऊपरी मंजिल के मध्य में एक बड़े स्तूप के चारों ओर घण्टी के आकार के 72 छोटे स्तूप हैं जो सजावटी छिद्रों से युक्त है। बुद्ध की मूर्तियाँ इन छिद्रयुक्त सहस्रपात्रों के अन्दर स्थापित हैं। बोरोबुदुर का स्वरूप पिरामिड से प्रेरित है। पश्चिम जावा के प्रागैतिहासिक ऑस्ट्रोनेशियाई महापाषाण संस्कृति के स्थल पुंडेन बेरुंडक, पंग्गुयांगां, किसोलोक और गुनुंग पडंग नामक स्थानों पर विभिन्न स्थल दुर्ग और पत्थरों से निर्मित सोपान-पिरामिड संरचनाएं पाई गई हैं। पत्थर से बने पिरामिडों के निर्माण के पीछे स्थानीय विश्वास है कि पर्वतों और ऊँचे स्थानों पर पैतृक आत्माओं अथवा ह्यांग का निवास होता है। बोरोबुदुर स्मारक की आधारभूत बनावट को पुंडेन बेरुंडक पिरमिड से प्रेरित माना जाता है तथा महायान बौद्ध विचारों और प्रतीकों के साथ निगमित पाषाण परंपरा का विस्तार माना जाता है।
बोरोबुदुर का मंदिर का आध्यात्मिक महत्व
स्मारक के तीन भाग प्रतीकात्मक रूप से तीन लोकों को निरूपित करते हैं। ये तीन लोक क्रमशः कामधातु (इच्छाओं की दुनिया), रूपधातु (रूपों की दुनिया) और अरूपधातु (रूपरहित दुनिया) हैं। साधारण मनुष्य का जीवन इनमें से निम्नतर जीवन स्तर, अर्थात् इच्छाओं की दुनिया में रहता है। जो लोग अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, वे प्रथम स्तर से उपर उठकर वहाँ पहुँच जाते हैं जहाँ से रूपों को देख तो सकते हैं लेकिन उनकी इच्छा नहीं होती। अंत में मनुष्य उन्नति करता हुआ पूर्ण बुद्धत्व को प्राप्त करता है। यह मानव का मूल एवं विशुद्ध स्तर होता है। इसमें वह रूपरहित निर्वाण को प्राप्त होता है। संसार के जीवन चक्र से ऊपर हो जाता है, जहाँ प्रबुद्ध आत्मा शून्य के समान, सांसारिक रूप के साथ संलग्न नहीं होती, उसे पूर्ण शून्य अथवा अपने आप अस्तित्वहीन रखना आता है। बोरोबुदुर स्मारक में कामधातु को आधार से निरूपित किया गया है, रूपधातु को पाँच वर्गाकार मंजिलों (सरंचना) से और अरूपधातु को तीन वृत्ताकार मंजिलों तथा विशाल शिखर स्तूप से निरूपित किया गया है। इन तीन स्तरों के स्थापत्य गुणों में लाक्षणिक अन्तर हैं। उदाहरण के लिए रूपधातु में मिलने वाले वर्ग और विस्तृत अलंकरण, अरूपधातु के सरल वृत्ताकार मंजिल में लुप्त हो जाते हैं, जिससे रूपों की दुनिया को निरूपित किया जाता है। जहाँ लोग नाम और रूप से जुड़े रहते हैं और रूपहीन दुनिया में परिवर्तित हो जाते हैं।
बोरोबुदुर में सामूहिक पूजा इस तरह की जाती है मानो किसी तीर्थ में भ्रमण कर रहे हों। मंदिर की सीढ़ियां और गलियारा तीर्थ यात्रियों को शिखर तक जाने के लिए मार्गदर्शन करते हैं। प्रत्येक मंजिल आत्मज्ञान के एक स्तर को निरूपित करती है। तीर्थ यात्रियों का मार्गदर्शन करने वाला पथ बौद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान को प्रतीकात्मक रूप में परिकल्पित करता है। 1885 ई. में इस स्मारक के आधार में छिपी हुई एक संरचना आकस्मिक रूप से खोजी गई। छुपे हुये पैर में, प्रतिमा उत्कीर्णित शिलापट्ट ;त्मसपमद्धि भी शामिल हैं, जिनमें से 160 वास्तविक कामधातु के विवरण की व्याख्या करते हैं। शिलालेखित चौखटों पर भी शिल्पकारों द्वारा नक्काशियों के बारे में कुछ आवश्यक अनुदेश लिखे हुए थे। वास्तविक आधार के ऊपर झालरदार आधार बना हुआ है जिसका उद्देश्य आज भी रहस्य बना हुआ है। माना जाता है कि यह झालर पहाड़ी में विनाशकारी आपदा आने की स्थिति में वास्तविक आधार को आच्छादित करने के लिए है। अन्य मतों के अनुसार झालरदार आधार बनाने का कारण, स्मारक के मूल आधार की बनावट के उन दोषों को छिपाना है, जो प्राचीन भारतीय वास्तु शास्त्र का उल्लंघन करते हैं।
504 बुद्ध प्रतिमाएं
बोरोबुदुर मंदिर में भगवान बुद्ध की विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। पाँच वर्गाकार चबूतरों (रूपधातु स्तर) के साथ-साथ ऊपरी चबूतरे (अरूपधातु स्तर) पर पद्मासन मूर्तियाँ स्थित हैं। रूपधातु स्तर पर देवली में बुद्ध की प्रतिमाएं स्तंभ वेष्टन (वेदिका) के बाहर पंक्तियों में क्रमबद्ध हैं। ऊपरी स्तर पर मूर्तियों की संख्या लगातार कम होती जाती है। प्रथम वेदिका में 104 देवली, दूसरी में 88, तीसरी में 72, चौथी में 72 और पाँचवी में 64 देवली हैं। कुल मिलाकर रूपधातु स्तर तक 432 बुद्ध मूर्तियाँ हैं। अरूपधातु स्तर (तीन वृत्ताकार चबूतरों) पर बुद्ध की मूर्तियाँ स्तूपों के अन्दर स्थित हैं। प्रथम वृत्ताकार चबूतरे पर 32 स्तूप, दूसरे पर 24 और तीसरे पर 16 स्तूप हैं जिनका योग 72 स्तूप होता है। मूल 504 बुद्ध मूर्तियों में से 300 से अधिक क्षतिग्रत हैं जिनमें से अधिकतर मूर्तियों के सिर गायब हैं। कुल 43 मूर्तियाँ गायब हैं। स्मारक की खोज होने से पहले, इन मूर्तियों के सिरों को मूर्ति-तस्करों ने चुराया और पश्चिमी देशों के संग्राहलयों को बेच दिया। बुद्ध मूर्तियों के इन सिरों में से कुछ एम्स्टर्डम के ट्रोपेन म्यूजियम और कुछ लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय सहित विभिन्न संग्राहलयों में देखे जा सकते हैं। बुद्ध की समस्त मूर्तियाँ दूर से देखने में एक जैसी प्रतीत होती हैं किंतु इनकी मुद्रा अथवा हाथों की स्थिति में भिन्नता है। मुद्रा के पाँच समूह हैं- उत्तर, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और शिरोबिंदु। ये सभी मुद्राएं महायान के अनुसार पाँच क्रममुक्त दिक्सूचक को निरुपित करती हैं। प्रथम चार वेदिकाओं में पहली चार मुद्राएं (उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम) में प्रत्येक मूर्ति कम्पास की एक दिशा को निरुपित करती है। पाँचवी वेदिका में बुद्ध की मूर्ति और ऊपरी चबूतरे के 72 स्तूपों में स्थित मूर्तियाँ समान मुद्रा (शिरोबिंदु) में हैं। प्रत्येक मुद्रा, पाँच ध्यानी बुद्ध में से किसी एक को निरूपित करती है जिनमें प्रत्येक का अलग आध्यात्मिक कारण है।