विगत वर्षों की भांति इस वर्ष भी मोहेन-जोदड़ो वासियों एवं सैंधव प्रदेश के विभिन्न भागों से आये सैंधवों की सुविधा के लिये पशुपति महालय परिसर में विशाल वितान बनाया गया था जो रात्रि में हुई भारी वर्षा के कारण कुछ क्षतिग्रस्त हो गया था किंतु मध्याह्न होने तक चतुर सैंधव कर्मकारों ने उसे पुनः समुचित रूप दे दिया है। दीर्घ वितान के नीचे अलग-अलग दर्शक दीर्घायें बनायी गयी हैं। अनुष्ठान और पूजनकर्म से निवृत्त होकर सैंधव पाण्डाल में पहुँचने आरंभ हो गये। चंचल शिशुओं, उत्सुक रमणियों और उत्साही युवाओं के साथ चिंतित सैंधव वृद्ध भी मन में आशंकाओं के घुमड़ते घनघोर बादल लेकर आ बैठे। जाने कब क्या अनहोनी घटित हो! उनके मस्तिष्क में विगत दिनों से उथल-पुथल मचा रही उत्तेजना यहाँ आकर चरम पर पहुँच गयी लगती थी। उन्होंने देखा कि विशिष्ट जनों के लिये बने पाण्डाल में महालयों के पुजारी और पणि आकर बैठ गये हैं। सैंधव सभ्यता के महान् स्वामी किलात के लिये बना आसन रिक्त है।
सूर्य देव अब भी स्थूलकाय कृष्णवर्णी बादलों की ओट में थे। यह ज्ञात करना संभव नहीं था कि इस समय वे आकाश के किस कोण में विराजमान हैं। जब दीर्घ प्रतीक्षा के पश्चात् भी सूर्य देव के दर्शन नहीं हुए तो अनुमान से उन्हें आकाश के ठीक मध्य में स्थित हुआ मानकर पशुपति महालय के विशाल ताम्रघण्ट पर काष्ठ प्रहार किया गया और मृदंग वादक मयाला ने मृदंग पर थाप दी। सहस्रों घुंघरू झन्कृत हो उठे। मयाला की लम्बी और पतली अंगुलियाँ विद्युत की गति से मृदंग पर आघात करने लगीं-
थक्किट धिक्क्टि थोंक्क्टि नक्टि तथक्टि
धिद्धिक्क्टि थों थोंक्टि नंनाक्टि त्तताथक्क्टि क्टिंिक्ंट
द्धि द्ध धि कि ट क्टिक्टि। थों थों थों थों क्टि क्टि
कि कि नं नाँ नाँ क्टि क्टि क्टि। त्तत्त तथक्क्टि किटक्टिक्टि।
झांझ, मृदंग, शंख और नूपुरों की मिश्रित ध्वनि से साम्य बैठाती हुई सैंकड़ों नृत्यांगनायें पंक्तिबद्ध होकर महालय के विशाल आगार से निकलने लगीं। शुभ्र वसना सैंधव-बालाओं ने मंच का एक वलय पूर्ण किया और विद्युत की तरह लहराती हुई नृत्यांगना रोमा मंच पर अवतरित हुईं। रोमा के शीश, मस्तक, कर्ण, कण्ठ, कटि, बाहु, और करतल-पृष्ठों से लेकर जंघाओं, पैरों, सुचिक्कण वर्तुलों, पुष्ट नितम्बों और क्षीण कटि के डमरू मध्य में पीत-अयस से निर्मित विविध आभूषण सुशोभित हैं किंतु अभी वह समय नहीं आया जब नृत्यांगना अथवा उसके आभूषण दर्शकों को दिखाई दें । इस पर भी नृत्यांगना की उपस्थिति दर्शकों को चिन्ता के अथाह समुद्र से बाहर खींच लाने में समर्थ सिद्ध हुई।
सैंधव समुदाय अपनी दुश्चिंताओं को विस्मृत कर केवल और केवल वर्तमान में स्थित हो गया।
पशुपति को समर्पित नृत्यमयी स्तुति के पश्चात् रोमा और उसकी सखियों ने पारंपरिक चन्द्रवृषभ नृत्य आरंभ किया। भूदेवी को गर्भवती बनाने वाले चन्द्रवृषभ की भूमिका में शिल्पी प्रतनु यथा समय उपस्थित हुआ। आज उसके लिये कठिन परीक्षा की घड़ी थी। ठीक वैसी ही जब गरुड़ों के आक्रमण के समय उपस्थित हुई थी। ठीक वैसी ही जब पिशाचों से घिर जाने के समय उपस्थित हुई थी। अथवा ठीक वैसी ही जब नग्न अवस्था में ही अचानक आर्य अश्वारोहियों से घिर जाने पर हुई थी।
देवी रोमा ने प्रतनु से विचार-विमर्श किये बिना घोषणा कर दी कि वह वार्षिक समारोह में तभी नृत्य करेगी जब प्रतनु चंद्रवृषभ के रूप में उपस्थित रहेगा तो संकट में पड़ गया प्रतनु। कहाँ चन्द्रवृषभ नृत्य का निष्णात कलागुरु किलात और कहाँ नृत्यकला से नितांत अनभिज्ञ शिल्पी प्रतनु! कहीं कोई जोड़ ही नहीं। कैसे कर सकेगा वह सैंधव वासियों को संतुष्ट! क्या वे प्रतनु को चन्द्रवृषभ के रूप में स्वीकार कर पायेंगे! उसने रोमा से अनुरोध किया कि वह अपनी घोषणा को वापस ले-ले और स्वामी से क्षमा याचना कर ले ताकि जन-सामान्य की सहानुभूति रोमा व प्रतनु के साथ बनी रहे।
हठी रोमा! वह भला कब पीछे मुड़ने वाली थी! उसने प्रतनु की एक न मानी। जो घोषणा हो गयी, सो हो गयी। लाभ हानि की गणना करनी उसे नहीं आती। वह तो बस प्रतनु के साथ ही नृत्य करेगी, अन्य किसी के साथ नहीं। ऐसे संकट में प्रतनु को रानी मृगमंदा की स्मृति हो आयी। उस दिन जब रानी मृगमंदा ने उसे नृत्यकला सिखाने का हठ कर लिया था, तब बहुत संकोच हुआ था उसे। उसे कब पता था कि नृत्यकला की आवश्यकता तो उसे मोहेन-जो-दड़ो पहुँचते ही होगी। नागों के उस लोक में रहते हुए, तूर्ण के पश्चात् अन्य अवसरों पर भी प्रतनु ने निऋति और हिन्तालिका के साथ नृत्य किया था जिससे अब उसे नृत्य करने में संकोच नहीं रह गया था। फिर भी नागों के नृत्य करने के ढंग और सैंधवों के नृत्य करने के ढंग में बड़ा अंतर है। चन्द्रवृषभ के लिये तो कठिन अभ्यास आवश्यक है।
प्रतनु ने देवी रोमा से कहा कि जब उसने घोषणा की है तो वही उसे चंद्रवृषभ नृत्य भी सिखाये। रोमा को भला यह कब अस्वीकार था! ‘प्रिय’ को शिष्य के रूप में पाकर तो जैसे वह निहाल हो गयी। उसने नृत्यकला के सारे रहस्य शिथिल करके प्रतनु के समक्ष प्रकट कर दिये। दिन भर के अभ्यास के पश्चात प्रतनु ने अनुभव किया कि यह उतना कठिन नहीं है जितना कि वह समझता रहा है। वह रोमा द्वारा बतायी गयी मुद्राओं का अनुसरण करने का प्रयास करने लगा। अन्त्ततः वह संध्या भी आ गयी जब वरुण प्राची [1] से प्रकट हुआ। प्रतनु प्राण-पण से अभ्यास में जुटा रहा। उधर आकाश में वरुण घनघोर ताण्डव करते रहे और इधर प्रतनु देवी रोमा से नृत्य की एक-एक मुद्रा सीखता रहा। सृष्टि के समस्त व्यापारों से अनभिज्ञ दोनों प्रणयी यह जान ही नहीं सके कि कब वह काल-रात्रि बीती और कब दिन निकला ।
प्रतनु मंच पर प्रकट हुआ। मन में बरबस प्रवेश कर गये दैन्य को त्याग कर उसने अपने शीश पर बंधे दीर्घकाय शृंग तथा पीठ पर बंधे सुकोमल कर्पास कूबड़ को हिलाया। क्षण भर के लिये उसने मंच पर मातृदेवी के वेश में उपस्थित रोमा को देखा और उसी अद्भुत तीव्रता से पद संचालन करने लगा जिस अद्भुत तीव्रता का परिचय किलात दिया करता था। सैंधव समुदाय श्वांस रोके बैठा रहा। स्वामी किलात के स्थान पर क्षुद्र शिल्पी चंद्रवृषभ बनकर मातृदेवी को गर्भवती बनाने जा रहा है, कहीं अनिष्ट इसी समय तो नहीं घट जायेगा! जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, जनसमुदाय आश्वस्त होता गया कि कहीं कुछ अनिष्ट नहीं घट रहा।
अनुरागी प्रतनु को चन्द्रवृषभ के वेश में मंच पर उपस्थित हुआ देखकर रोमा की देह में मानो तड़ित् का संचार हुआ। वह द्रुत गति से वाद्यों के साथ लय बैठाते हुए नृत्य की अत्यंत जटिल मुद्राओं का प्रदर्शन करने लगी। पद लालित्य एवं हस्त लाघव का ऐसा बेजोड़ संगम रोमा के नृत्य में आज से पहले कभी नहीं देखा गया था। दर्शकों ने अपने हृदय कस कर पकड़ लिये। कलहंसिनी की क्षीण ग्रीवा के सदृश्य लहराती हुई रोमा की भुजायें आठों दिशाओं में आनंद के नवीन वलय निर्मित कर रही थी। नृत्यांगना की देह पर विभूषित मेखलाओं तथा नूपुरों से निकलती हुई सुमधुर ध्वनियाँ संगीत के नवीन प्रमिमान स्थापति कर रही थीं।
उल्लास से नृत्यलीन मातृदेवी के गर्भाधान का दृश्य पूरे कौशल के साथ दर्शाया गया। चंद्रवृषभ ने अनुनय से मातृदेवी को प्रसन्न करना चाहा किंतु मातृदेवी प्रसन्न नहीं हुई। चंद्रवृषभ ने मातृदेवी को ना-ना प्रकार के प्रलोभन दिये किंतु मातृदेवी ने उनकी ओर देखा तक नहीं। चंद्रवृषभ कुपित हुआ और अपने विशाल शृंगों से मातृदेवी पर आघात करने दौड़ा किंतु मातृदेवी भयभीत नहीं हुई, उसने चन्द्रवृषभ का सिर काट दिया। चंद्रवृषभ अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हुआ और पशुपति के रूप में दिखाई दिया। मातृदेवी अपना समस्त गर्व त्यागकर पशुपति के सम्मुख विनीत हुई। पशुपति ने सृष्टि की रचना हेतु मातृदेवी को गर्भवती होने का आदेश दिया जिसे मातृदेवी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
मंच पर नृत्यलीन नृत्यांगनाओं के गुल्म में क्षण भर को अदृश्य रह कर पशुपति प्रजनक देव के रूप में तथा मातृदेवी प्रजनन देवी के रूप में प्रकट हुए। जैसे ही प्रजनन देवी ने प्रजनक देव के साथ रमण के लिये पहला पद आगे बढ़ाया, ठीक उसी क्षण नृत्यांगना रोमा लड़खड़ा कर मंच पर गिर गयी। सैंधवों को जैसे काठ मार गया। यह कैसा व्यवधान था! स्वयं रोमा भी कुछ समझ न सकी। उसने उठने का प्रयास किया किंतु उसके पैरों ने जैसे कार्य करना बंद कर दिया। विपुल प्रयास करने पर भी वह खड़ी न हो सकी।
मातृदेवी के गर्भाधान का अनुष्ठान अपूर्ण रह गया। सृष्टि के निर्माण हेतु दोनों आद्यशक्तियाँ रमण न कर सकीं। मातृदेवी गर्भवती नहीं हुईं। मातृदेवी के गर्भ से नदी-पर्वत, वनस्पति, पशु-पक्षी, सर्प-मत्स्य, मृग-सिंह, नर-नारी प्रकट नहीं हुए। सैकड़ों सैंधव अपने स्थान पर खड़े होकर उत्तेजना से चिल्लाने लगे। महान शक्तियों के स्वामी किलात ही मातृदेवी को गर्भवती कर सकते हैं। एक क्षुद्र सैंधव द्वारा मातृदेवी को गर्भवती बनाने का प्रयास पातक है। तभी तो आज चन्द्रवृषभ मातृदेवी को गर्भवती नहीं बना सका। स्वामी किलात कहाँ हैं ? उन्हें बुलाओ, वे ही मातृदेवी को गर्भवती बना सकते हैं। यदि मातृदेवी गर्भवती नहीं हुई तो सम्पूर्ण सैंधव सभ्यता नष्ट हो जायेगी।
प्रतनु ने चन्द्रवृषभ का सिर उतार कर एक तरफ रख दिया और रोमा को उठाने का प्रयास करने लगा। रोमा के पैरों में लेशमात्र भी शक्ति नहीं रही। उसके पैर मिट्टी के लोथ की तरह निर्जीव हो गये थे। शिल्पी का मन हा-हा-कार कर उठा। क्या वह कठिन परीक्षण में असफल सिद्ध होने जा रहा था!
अचानक मंच के मध्य पर विकरा वेशधारी किलात प्रकट हुआ। उसे देखते ही रोष से चिल्लाते हुए सैंकड़ों कण्ठ मौन हो गये। सैंधव सभ्यता का महान स्वामी किलात उनके मध्य उपस्थित था, जो उन्हें सर्वनाश से बचा सकता था। अब उन्हें किसी बात का भय नहीं था। जो उत्साही युवक किलात के स्थान पर शिल्पी द्वारा नृत्य किये जाने के पक्ष में थे, उन्हें अपनी भूल पर पश्चाताप था। बड़े-बूढ़ों का कहना सत्य था, मातृदेवी को केवल महान स्वामी ही गर्भवती बना सकता है। प्रतनु ने देखा, किलात के चेहरे पर क्रूर मुस्कान खेल रही है। वह विजय गर्व से अपनी स्थूल गर्दन को पूरी तरह उन्नत करके खड़ा है। किलात ने उच्च स्वर में आदेश दिया- ‘दोनों पापियों को बंदी बना लिया जाये।’
– ‘महान् स्वामी किलात की जय।’ सैंकड़ों कण्ठों से निकला हुआ जयघोष दूर-दूर तक फैल गया। नगर रक्षकों ने आगे बढ़कर शिल्पी प्रतनु और महालय की प्रमुख नृत्यांगना रोमा को रस्सियों में जकड़ लिया।
– ‘पापियों को दण्ड दो। मातृदेवी की मर्यादा भंग करने वालों को दण्ड मिलना ही चाहिये।’ सहस्रों कण्ठ फिर से चिल्लाने लगे। चारों और रोष का लावा फूट पड़ा।
राजनीति के चतुर खिलाड़ी किलात ने परख लिया कि यही वह अवसर है जब अपने शत्रु पर भरपूर वार किया जाये। अपनी दोनों भुजायें हवा में उठाकर उसने सैंधवों को शांत होने का संकेत किया और बोला- ‘मातृदेवी को पातकी शिल्पी की बलि चाहिये।’
क्षण भर के लिये पाण्डाल में सन्नाटा छा गया। अचानक एक वृद्ध सैंधव चिल्लाया- ‘मातृदेवी यदि पातकी की बलि चाहती हैं तो फिर देर किस बात की है!’
– ‘हाँ-हाँ, मातृदेवी को प्रसन्न करने के लिये पातकी शिल्पी की बलि चढ़ा देना ही उचित है।’ सहस्रों कण्ठों ने प्रौढ़ सैंधव का समर्थन किया।
ठीक उसी समय सैंधवों ने देखा कि महालय की वृद्धा दासी वश्ती मंच पर खड़ी हो कर सैंधवों को सम्बोधित करके चिल्ला रही है किंतु उसकी आवाज लोगों तक पहुँच नहीं पा रही। दासी की बात सुनने के लिये सैंधव समुदाय मौन हो गया। दासी वश्ती बुरी तरह हांफती हुई बोली- ‘सत्य वह नहीं है जो आप लोगों को बताया गया है। सत्य कुछ और ही है। यदि आप सत्य जानना चाहते हैं तो मेरे साथ महालय में चलिये और सत्य के दर्शन अपनी आँखों से कर लीजिये।’
– ‘मिथ्या प्रलाप करती है यह वृद्धा दासी। रक्षको! इसे भी बंदी बना लो।’ स्वामी किलात ने उच्च स्वर में कहा। नगर रक्षक रस्सियाँ लेकर आगे बढ़े।
– ‘नहीं-नहीं वृद्धा की बात सुने बिना उसे बंदी बनाया जाना उचित नहीं है।’ अनेक सैंधव चिल्ला उठे। नगर रक्षक वहीं ठहर गये।’
– ‘मैं कहता हूँ, बंदी बना लो इस विक्षिप्त दासी को।’ किलात ने फिर नगर रक्षकों को निर्देश दिया।
– ‘नहीं! वृद्धा की बात सुने बिना इसे बंदी नहीं बनाया जा सकता।’ अनेक युवक कूद कर मंच पर जा चढ़े, बोलो माता, आप क्या कहना चाहती हैं, किस सत्य के दर्शन करवाना चाहती हैं ?
– ‘स्वामी किलात ने नृत्यांगना रोमा के साथ छल किया है। अभिचार किया है उस पर।’
– ‘छल! अभिचार!’ सैंकड़ों लोग एक साथ चिल्लाये।
– ‘हाँ-हाँ, छल! अभिचार! आप चलिये मेरे साथ। आपको विश्वास हो जायेगा।’
– ‘हाँ-हाँ, चलकर देखना चाहिये, वृद्धा क्या दिखाना चाहती है!’ एक युवा सैंधव ने वृद्धा का समर्थन किया।
किलात का श्यामवर्णी चेहरा पूरी तरह काला पड़ गया। कुछ युवकों ने उसे घेर लिया ताकि वह भाग नहीं सके। मातृदेवी के वेश में अनावृत्त पड़ी रोमा लज्जा और संकोच से धरती में गढ़ी जा रही थी। प्रतनु ने उसे अपना उत्तरीय प्रदान किया जिसे रोमा ने अपनी देह पर लपेट लिया। कुछ युवकों ने नृत्यांगना रोमा को सहारा दिया। रोमा ने देखा कि इस बार वह किंचित् प्रयास से उठकर खड़ी हो गयी है। क्या चमत्कार है यह! कहीं वश्ती सत्य ही तो नहीं कह रही! कहीं स्वामी किलात ने किसी तरह का अभिचार तो नहीं किया था उस पर! सहस्रों सैंधव नर-नारी वृद्धा वश्ती के पीछे चल पड़े।
सैंधवों ने पशुपति महालय में जाकर देखा तो उनके नेत्र विस्फरित हो गये। शिल्पी प्रतनु द्वारा दो वर्ष पहले बनायी गयी प्रतिमा के दोनों पाँव टूटे पड़े हैं। चारों ओर रक्त, लालपुष्प, लालचूर्ण, यव, मद्य आदि अभिचार सामग्री बिखरी पड़ी है। लगता था जैसे रात्रि भर कोई यहाँ मलिन अनुष्ठान करता रहा है।
– ‘नहीं ऽ ऽ ऽ ऽ!’ अपनी खण्डित प्रतिमा को देखते ही अदम्य पीड़ा से चीख पड़ी रोमा। यह कैसा दण्ड है स्वामी! दण्डित करना था तो आप मुझे करते! इस प्रतिमा से तो आपकी कोई शत्रुता नहीं थी! यह प्रतिमा तो सैंधवों की शिल्पकला के चरम पर पहुँचने की घोषणा थी,, युगो-युगों तक स्मरण रखी जाने वाली कला प्रतिरूप थी। तुमने इसे नष्ट कर दिया! ऐसा क्यों किया स्वामी!’ रोमा विक्षिप्त होकर प्रलाप कर उठी। जिस अदम्य पीड़ा को वह इस समय अनुभव कर रही थी, इतनी पीड़ा तो उसे मंच पर लड़खड़ा कर गिरते समय भी नहीं हुई थी। वह धरती पर गिर गयी और फूट-फूट कर रोने लगी।
परिस्थितियों को परिवर्तित हुआ देखकर नगर रक्षकों ने शिल्पी प्रतनु के बंधन खोल दिये। वह धरती पर गिरी हुई रोमा को चुप करने का प्रयास करने लगा किंतु रोमा लगातार करुण क्रंदन किये जा रही थी। सैंधववासी हत्बुद्धि हो उसे देखने लगे।
रुदन के कारण रोमा की हिचकियाँ बंध गयी। विपुल देर तक रुदन करते रहने के पश्चात् वह पुनः खड़ी हुई और किलात को सम्बोधित करके कहने लगी- ‘दुष्ट किलात तू कैसा स्वामी है! तू तो निर्मम वधिक है। तू सैंधवों का रक्षक कैसे हो सकता है! मुझ पर अभिचार करके और शिल्पी प्रतनु की बलि चढ़ाने का प्रयास करके तूने एक नहीं कई अपराध किये हैं। अपनी वासना की पूर्ति के लिये तूने दो प्रणयी आत्माओं के साथ छल किया है, उन्हें अलग करने की कुत्सित चेष्टा की है। मुझसे नृत्यकला छीनी है।
सैंधवों का शिल्प-गौरव नष्ट किया है। मातृदेवी के गर्भाधान का अनुष्ठान भंग किया है। युगों-युगों से चला आ रहा विश्वास तोड़ा है। तू सैंधवों का संरक्षक नहीं तू तो उन्हें नष्ट करने वाला पिशाच है।’
रोमा का प्रलाप रुकने का नाम नहीं लेता था। ऐसा लगता था मानो वर्षों से संचित पीड़ा आज उसके रोम-रोम से निकल कर बह जाना चाहती हो।
– ‘अपनी जिस शक्ति पर तुझे इतना अभिमान है, उस शक्ति के कारण ही तू नष्ट हो जायेगा। नष्ट हो जायेगी तेरी समस्त सत्ता जिसमें दो प्रणयी आत्माओं को मिलने नहीं दिया जाता। नष्ट हो जायेगा यह मोहेन-जो-दड़ो जहाँ कलाकारों से उनकी कला छीन ली जाती है। नष्ट हो जायेगी सैंधव सभ्यता, जहाँ नारी को निर्वस्त्र कर नृत्य करने पर विवश किया जाता है। नष्ट हो जायेंगे चहुन्दड़ो, पेरियानो, सुत्कोटड़ा झूंकरदड़ो, अमरी और ऐलाना, जहाँ से प्रतिवर्ष सहस्रों की संख्या में नागरिक निर्वसना देवबालाओं का नृत्य देखने आते हैं। सैंधव सभ्यता के समस्त पुरों में शृगाल, श्वान और चमगादड़ नृत्य करेंगे। जिस मातृदेवी के साथ तूने अपघात किया है वह मातृदेवी छोड़ेगी नहीं तुझे। मातृदेवी के कोप से सप्त सिंधुओं का जल सैंधव सभ्यता के प्रत्येक नगर में जा घुसेगा और सारी सभ्यता मिट्टी के टीलों में बदल जायेगी। यह एक प्रणयी आत्मा का श्राप है, एक नृत्यांगना का श्राप है। जा तू नष्ट हो जा, अपने समस्त वैभव और अपनी शक्तियों के साथ। जा नष्ट हो जा अपने समस्त दंभ और अपनी सत्ता के साथ।’
किलात पर घृणायुक्त दृष्टि डालकर रोमा ने मुँह फेर लिया और शिल्पी प्रतनु का हाथ पकड़ कर बोली- ‘आओ शिल्पी हम कहीं और चलें। यह पुर तुम्हारे रहने के योग्य नहीं।’ किलात के भ्रष्ट हो जाने से वह धर्म के बंधन से मुक्त हो गयी थी। अब उसके प्रत्यर्पण के लिये शिल्पी को स्वर्णभार अर्पित करने की आवश्यकता नहीं रही थी। रोमा को जाते हुए देखकर सैंधवों की चेतना जैसे लौट आयी।
– ‘किलात ने सैंधवों के साथ छल किया है। किलात के कारण ही मातृदेवी के गर्भाधान का अनुष्ठान अधूरा रह गया। किलात को दण्ड मिलना चाहिये।’ सैंकड़ों सैंधव युवकों ने किलात को घेर लिया।
– ‘मातृदेवी को शिल्पी की नहीं किलात की बलि चाहिये। एक युवक चिल्लाया।’
– ‘हाँ-हाँ, मातृदेवी को किलात की बलि चाहिये।’ सैंकड़ों कण्ठ एक साथ चिल्लाये।
किलात ने जो सोचा था, उसका ठीक विपरीत हो गया था। स्थिति उसके हाथ से निकल गयी थी। सैंकड़ों सैंधव महान् किलात की बलि देने के लिये आतुर होकर चिल्ला रहे थे- ‘स्वामी को अभी ले चलो, मातृदेवी महालय में। इसने मातृदेवी को गर्भवती नहीं होने दिया, मातृदेवी इसकी बलि लेकर ही संतुष्ट होंगी।’
कुछ युवकों ने किलात को पशु की तरह धकेल दिया और उसे मातृदेवी के मुख्य मंदिर की ओर ले चले। अभी वे कुछ ही दूर चल पाये होंगे कि सामने से कुछ नगर रक्षक दौड़ते हुए आये। ये वे नगर रक्षक थे जो नगर प्राचीर के बाहर नियुक्त रहते हैं। वे अत्यंत वेग से दौड़े चले आ रहे थे। भय से सफेद पड़े हुए उनके चेहरे बता रहे थे कि उन्होंने साक्षात् मृत्यु के ही दर्शन कर लिये हैं।
– ‘सावधान नागरिको! रुक जाओ, आगे मत जाओ। सिंधु का जल अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहा है। सिंधु किसी भी क्षण प्राचीर तोड़कर पुर में प्रवेश कर सकती है। तुरंत सुरक्षित स्थान पर चले जाओ अन्यथा . . . ।’ नगर रक्षक अपनी बात पूरी कह भी नहीं पाया था कि उनके पीछे सिंधु का जल उत्ताल तरंगों पर उछलता-कूदता वहीं आ पहुँचा। समस्त सैंधव स्वामी किलात को छोड़कर विपरीत दिशा में मुड़े किंतु सिंधु तो जैसे रोमा का आह्वान पाकर ही पुर में घुसी थी! एक प्रबल हुंकार के साथ सिंधु की गगनचुम्बी लहरें आगे बढ़ीं और समस्त सैंधवों को अपनी लपेट में ले लिया।
विपुल जल के वलय में घिर गये प्रतनु ने किसी तरह रोमा को पकड़ा किंतु इस प्रयास में वह बहुत सारा जल पी गया। उसने देखा, रोमा जल में डुबकिया लेने लगी है। प्रतनु के अपने फैंफड़ों में भी जल समाता जा रहा था। कुछ ही क्षणों में उसकी आँखों में अंधेरा उतर आया। क्षण भर के लिये प्रतनु को रानी मृगमंदा, निर्ऋति और हिन्तालिका का स्मरण हो आया। वह जल के तीव्र वेग में बहा चला जा रहा था रोमा अब भी उसकी पकड़ में थी। उसने रोमा की देह के चारों ओर अपने बाहु कसकर लपेट लिये किंतु कुछ ही क्षणों बाद उसकी पकड़ रोमा की कलाई से शिथिल हो गयी। अब चारों ओर केवल जल ही जल दिखायी देता था। सिंधु के जल से उत्पन्न सैंधव सिंधु में ही समा गये प्रतीत होते थे।
[1] पूर्व दिशा।