दारा शिकोह को जिस कासिम खाँ पर पूरा विश्वास था, उसी कासिम खाँ की नमकहरामी ने महाराजा जसवंतसिंह को पराजय और मृत्यु के कगार पर पहुंचा दिया। इससे दारा शिकोह की पराजय निश्चत हो गई।
एक जमाने में कासिम खाँ बहुत छोटा सा सिपाही हुआ करता था किंतु शहजादे दारा की मेहरबानियों से तरक्की करता हुआ अच्छा खासा मनसब पा गया था। दारा ने अपना विश्वसनीय आदमी जानकर ही उसे शाही सेना देकर औरंगज़ेब और मुरादबक्श की संयुक्त सेनाओं का रास्ता रोकने में महाराजा जसवंतसिंह की सहायता करने भेजा था।
कुछ ही दिनों में कासिम खाँ, शाही सेना लेकर महाराजा जसवंतसिंह की सेनाओं से जा मिला। महाराजा को स्पष्ट आदेश दिया गया था कि उसे क्षिप्रा नदी के उत्तरी तट पर टिके रहना है, क्षिप्रा पार नहीं करती है तथा कासिम खाँ को आदेश दिया गया था कि उसे महाराजा जसवंतसिंह के कहने के मुताबिक रहकर लड़ाई लड़नी है, अपनी तरफ से कोई योजना नहीं बनानी है।
हालाांकि कासिम खाँ पर दारा के बहुत अहसान थे तथा उन अहसानों के बदले में यदि कासिम खाँ अपनी खाल उतरवाकर दारा के लिए जूतियां बनवाता तो भी कम था किंतु कासिम खाँ नमक हराम किस्म का आदमी था। भाग्य का साथ मिलने से तथा निरंतर तरक्की करते रहने से उसके हौंसले जरूरत से ज्यादा बुलंद हो गए थे। उसे शहजादे दारा का यह आदेश पसंद नहीं आया कि वह महाराजा जसवंतसिंह के मुताबिक रहकर लड़ाई लड़े।
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कासिम खाँ चाहता था कि जीत का सेहरा हर हाल में कासिम खाँ के सिर पर ही बंधे इसलिए महाराजा जसवंतसिंह को चाहिए था कि महाराजा, कासिम खाँ के नियंत्रण में रहकर लड़ाई लड़े लेकिन शाही आदेश जारी होने के कारण कासिम खाँ इन आदेशों में बदलाव नहीं कर सकता था। इसलिए कासिम खाँ ने महाराजा से झगड़ा करने की योजना बनाई ताकि असफलता का ठीकरा महाराजा जसवंतसिंह के सिर पर फोड़ा जा सके।
कासिम खाँ ने शाही सेना का असला-बारूद, क्षिप्रा के रेतीले तट पर अपने शिविर के पीछे की धरती में छिपा दिया तथा महाराजा को सुझाव दिया कि अभी औरंगज़ेब तथा मुरादबक्श की सेनाएं क्षिप्रा के उस पार नहीं आई हैं, इसलिए हम नदी पार करके वहाँ मोर्चा बांधते हैं। कासिम खाँ की योजना थी कि महाराजा को बहला-फुसला कर नदी के उस पार ले जाया जाए तथा ऐन वक्त पर पाला बदल कर औरंगज़ेब से मेल कर लिया जाए। तब महाराजा को कैद करने में आसानी रहेगी।
महाराजा जसवंतसिंह अनुशासन पसंद व्यक्ति थे। उन्होंने शाही आदेशों के खिलाफ जाने तथा कासिम खाँ के सुझाव को मानने से इन्कार कर दिया। इस पर दुष्ट कासिम खाँ ने मन ही मन एक योजना बनाई जिससे दारा शिकोह तथा महाराजा जसवंतसिंह दोनों से एक साथ पीछा छूट जाए।
आखिर औरंगज़ेब तथा मुरादबक्श की सेनाएं क्षिप्रा के उस तट पर आ पहुँचीं। महाराजा जसवंतसिंह तथा कासिम खाँ की सेनाओं को देखकर औरंगज़ेब को पसीने आ गए।
औरंगज़ेब ने महाराजा जसवंतसिंह को अपने पक्ष में आने का निमंत्रण भिजवाया। महाराजा किसी भी कीमत पर बादशाह से धोखा नहीं करना चाहता था। बादशाह शाहजहाँ तथा वली-ए-अहद दारा शिकोह ने जीवन भर महाराजा से मित्रता निभाई थी तथा सम्मानपूर्वक व्यवहार किया था जबकि धूर्त औरंगज़ेब का व्यवहार और उसके इरादे किसी भी तरह महाराजा से छिपे हुए नहीं थे। इसलिए महाराजा ने औरंगज़ेब के पक्ष में जाने से इन्कार कर दिया।
तीसरी रात जब कासिम खाँ, अमावस्या के अंधेरे का लाभ उठाकर चुपचाप क्षिप्रा नदी पार करके औरंगज़ेब से मिला तो औरंगज़ेब की बांछें खिल गईं। उसे उम्मीद था कि महाराजा जसवंतसिंह औरंगज़ेब का प्रस्ताव स्वीकार कर लेगा तथा दारा की रहमतों पर पला-बढ़ा कासिम खाँ कभी भी औरंगज़ेब के पक्ष में नहीं आएगा किंतु हुआ बिल्कुल उलटा ही था। महाराजा अपनी जगह पर अडिग था और नमक हराम कासिम खाँ, औरंगज़ेब के खेमे में था।
कासिम खाँ ने औरंगज़ेब को बताया कि क्षिप्रा के उस तट पर महाराजा अपनी सेनाओं के साथ अकेला पड़ा है तथा शाही सेना का असला-बारूद रेत में दबा हुआ है। अतः जब इस ओर से तोपें छोड़ी जाएंगी तो वे रेत में दबे हुए असले बारूद को भी सुलगा कर दोगुना विध्वंस मचाएंगी।
औरंगज़ेब ने मुराद को अपने खेमे में बुलाया और उससे बात करके मुगल सेना को उसी समय महाराजा जसवंतसिंह पर धावा बोलने का आदेश दे दिया।
कासिम खाँ की नमकहरामी मुगलिया सल्तनत के लिए खूनी जाल बिछाने में सफल हो गई। होती हुई दिखाई देने लगी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता