भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. चन्द्रशेखर वेंकटरमन विश्व भर के भौतिक-विज्ञानियों में विशेष स्थान रखते हैं। वे प्रथम भारतीय वैज्ञानिक थे जिन्हें विश्व के सर्वोच्च ‘नोबल पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
चन्द्रशेखर वेंकटरमन का जन्म 7 नवम्बर 1888 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली नगर के पास तिरूवालेक्कावाल गांव में में हुआ। उनके पिता चन्द्रशेखर अय्यर भौतिकी के प्राध्यापक थे तथा माता पार्वती अम्मल सुसंस्कृत परिवार की महिला थीं। चन्द्रशेखर वेंकटरमन की प्रारम्भिक शिक्षा विशाखापत्तनम में हुई। वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य और विद्वानों की संगति ने चन्द्रशेखर वेंकटरमन को बहुत प्रभावित किया।
चन्द्रशेखर वेंकटरमन ने बारह वर्ष की आयु में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। उन्हीं दिनों चन्द्रशेखर वेंकटरमन को श्रीमती एनी बेसेंट के भाषण सुनने और लेख पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चन्द्रशेखर वेंकटरमन ने रामायण, महाभारत आदि धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया। इससे उनके हृदय में भारत के गौरवशाली अतीत के बारे में चेतना उत्पन्न हुई।
ई.1903 में उन्होंने चेन्नई के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। वेंकटरमन शरीर से बहुत दुबले-पतले थे किंतु उनका मस्तिष्क अत्यंत प्रतिभा-सम्पन्न था। उनके अध्यापक उनकी योग्यता से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें कक्षाओं में उपस्थित होने से छूट मिल गई। इस समय का उपयोग वे प्रयोगशाला एवं पुस्तकालय में करते थे। वे बी. ए. की परीक्षा में विश्वविद्यालय में अकेले ही प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उन्हें भौतिकी में स्वर्णपदक मिला तथा अंग्रेजी निबंध पर भी पुरस्कृत किया गया।
ई.1907 में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से गणित में प्रथम श्रेणी में एम. ए. की डिग्री विशेष योग्यता के साथ प्राप्त की। उन्होंने इस विषय में इतने अंक प्राप्त किए जितने पहले किसी विद्यार्थी ने नहीं लिए थे। स्नातकोत्तर परीक्षा उतीर्ण करने के बाद वे उच्च-शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड जाना चाहते थे।
भौतिक विज्ञान के प्राध्यापकों की अनुशंसा पर भारत सरकार ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर इंग्लैण्ड भेजना स्वीकार कर लिया किन्तु कुछ यूरोपीय डॉक्टरों ने शारीरिक दृष्टि से अत्यन्त कमजोर होने के कारण उन्हें इंग्लैण्ड जाने से रोक दिया।
शोध कार्य
ई.1906 में 18 वर्ष की अल्पायु में उनका प्रकाश विवर्तन पर पहला शोधपत्र- ‘आयताकृत छिद्र के कारण उत्पन्न असीमित विवर्तन पट्टियाँ’ लंदन की फिलॉसोफिकल पत्रिका में प्रकाशित हुआ। यह शोध-पत्र ध्वनि-विज्ञान के क्षेत्र में उनकी मौलिक खोज पर था। जब प्रकाश की किरणें किसी छिद्र में से अथवा किसी अपारदर्शी वस्तु के किनारे पर से गुजरती हैं तथा किसी पर्दे पर पड़ती हैं, तो किरणों के किनारे पर मंद-तीव्र अथवा रंगीन प्रकाश की पट्टियां दिखाई देती हैं।
यह घटना ‘विवर्तन’ कहलाती है। विवर्तन प्रकाश का सामान्य लक्षण है। इससे पता चलता है कि प्रकाश तरगों में निर्मित है। इसके दूसरे वर्ष उनका एक और शोधपत्र ‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ, जो ‘प्रकाश-विज्ञान’ से सम्बन्धित था। इस अन्तराल में उन्होंने भौतिक विज्ञान पर कई ग्रन्थ लिखे।
चन्द्रशेखर वेंकटरमन की पारिवारिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इसलिए उन्होंने नौकरी पाने के लिए भारत सरकार के वित्त विभाग की प्रतियोगिता परीक्षा दी जिसमें वे प्रथम आए और जून 1907 में वे असिस्टेंट एकाउटेंट जनरल बनकर कलकत्ता चले गए। उन्हीं दिनों उनका विवाह कृष्णस्वामी की पुत्री त्रिलोक सुन्दरी से हुआ।
एक दिन जब वे कार्यालय से लौट रहे थे, उन्होंने एक साइन बोर्ड देखा जिस पर लिखा था ‘वैज्ञानिक अध्ययन के लिए भारतीय परिषद (इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन आफ़ साईंस)’। वे उसी समय ट्राम से उतरकर परिषद् कार्यालय में पहुँच गए और परिषद् की प्रयोगशाला में प्रयोग करने की अनुमति प्राप्त की।
कुछ समय बाद उनका स्थानांतरण पहले रंगून और फिर नागपुर हुआ। उन्होंने अपने घर में ही प्रयोगशाला बना ली और समय मिलने पर उसी में प्रयोग करने लगे। ई.1911 में उनका स्थानांतरण पुनः कलकत्ता हो गया। वे फिर से परिषद् की प्रयोगशाला में प्रयोग करने लगे।
ई.1917 तक वे प्रयोग करते रहे। इस अवधि में उन्होंने ‘ध्वनि के कम्पन और कार्य का सिद्धान्त’ विषय पर कार्य किया। ई.1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्राध्यापक का पद स्वीकृत हुआ, कुलपति आशुतोष मुखर्जी ने चन्द्रशेखर वेंकटरमन को यह पद स्वीकार करने के लिए आमंत्रित किया। चन्द्रशेखर वेंकटरमन ने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर यह पद स्वीकार कर लिया।
चन्द्रशेखर वेंकटरमन ने कुछ वर्षों तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में ‘वस्तुओं में प्रकाश के चलने’ का अध्ययन किया। इनमें किरणों का पूर्ण समूह बिल्कुल सीधा नहीं चलता है। उसका कुछ भाग अपनी राह बदलकर बिखर जाता है।
आशुतोष मुकर्जी ने उन्हें विदेश जाकर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने का सुझाव दिया किंतु उन्होंने विदेश जाने से यह कहकर मना कर दिया कि- ‘ज्ञान का समस्त भण्डार तो भारत ही है, इसलिए पश्चिम में ज्ञान प्राप्त करने की कोई बात नहीं है। भारत विश्व को ज्ञान देता आया है और आज भी वह विश्व को ज्ञान प्रदान करने की क्षमता रखता है।’
ई.1919 तक वेंकटरमन भारतीय वैज्ञानिक अनुसंघान परिषद के उप-सभापति थे किंतु संस्था के प्रधान डॉ. अृतलाल सरकार की मृत्यु हो जाने के कारण वेंकटरमन को संस्था का अवैतनिक प्रधान बनाया गया। ई.1921 में ब्रिटिश साम्राज्य के विश्वविद्यालयों का लन्दन में एक सम्मेलन आयोजित किया गया, उसमें उन्हें कलकता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने भेजा गया।
वहाँ जब अन्य प्रतिनिधि लंदन में दर्शनीय स्थलों को देखकर अपना मनोरंजन कर रहे थे, तब चन्द्रशेखर वेंकटरमन सेंट पॉल गिरजाघर में उसके फुसफुसाते गलियारों का रहस्य समझने में लगे हुए थे। ई.1924 में उन्हें रॉयल सोसायटी लंदन का फैलो बनाया गया।
रमन प्रभाव
प्रो. रमन की रुचि ध्वनि-विज्ञान के साथ-साथ प्रकाश-विज्ञान में भी थी। वे प्राकृतिक रंगों से अत्यधिक आकर्षित होते थे। इंग्लैण्ड की यात्रा करते समय समुद्र की अद्भुत नीलिमा एवं दूधियापन ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। ब्रिटिश वैज्ञानिक लॉर्ड रैले ने समुद्र के नीला दिखने का कारण एक प्रकार का प्रकीर्णन बताया था जिससे प्रोफेसर वेंकटरमन सन्तुष्ट नहीं थे।
कलकत्ता लौटने पर उन्होंने इस पर शोध आरम्भ किया। चन्द्रशेखर वेंकटरमन लगभग सात वर्ष तक प्रकाश तरंगों का अध्ययन करते रहे। ई.1927 में उनका ध्यान इस बात पर गया कि जब एक्स किरणें प्रकीर्णित होती हैं तो उनकी तरंग लम्बाइयाँ बदल जाती हैं। उन्होंने विचार किया कि साधारण प्रकाश में भी ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए? उन्होंने स्पेक्ट्रोस्कोप में पारद आर्क के प्रकाश का स्पेक्ट्रम बनाया।
वेंकटरमन ने इन दोनों के मध्य विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थ रखे तथा पारद आर्क के प्रकाश को उनमें से गुजार कर अलग-अलग स्पेक्ट्रम बनाए। उन्होंने देखा कि प्रत्येक स्पेक्ट्रम में अन्तर पड़ता है और प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी प्रकार का अन्तर डालता है। स्पेक्ट्रम चित्रों को मापकर उनकी सैद्धान्तिक व्याख्या की गई तथा यह प्रमाणित किया गया कि यह अन्तर पारद-प्रकाश की तरंग-लम्बाइयों में परिवर्तित होने के कारण पड़ता है।
चन्द्रशेखर वेंकटरमन ने यह प्रमाणित किया कि समुद्र का पानी सूर्य के प्रकाश के कारण नीला दिखाई देता है। केवल पारदर्शक द्रव्यों में ही नहीं अपितु बर्फ और स्फटिक जैसे ठोस पारदर्शक पदार्थो में भी अणुओं की गति के कारण प्रकाश का परिपेक्षण होता है। इसी सिद्धांत को ‘रमन प्रभाव’ के नाम से जाना गया।
29 फरवरी 1928 को चन्द्रशेखर वेंकटरमन ने अपनी इस खोज को सार्वजनिक कर दिया। 31 मार्च 1928 को ‘नेचर’ पत्रिका में उनकी शोध पर आधारित एक शोध-पत्र- ‘ए न्यू टाइप ऑफ ए सैकण्डरी रेडिएशन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। चन्द्रशेखर वेंकट रमन ने 28 फरवरी को रमन प्रभाव की खोज की थी, इसकी स्मृति में भारत में इस दिन को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
वाद्य-यन्त्रों की ध्वनियों का अध्ययन
चन्द्रशेखर वेंकटरमन वीणा वादन में अत्यंत निपुण थे। उन्होंने ‘कम्पन्न’ विषय पर अनुसंधान के दौरान विभिन्न वाद्य-यंत्रों की ध्वनियों का अध्ययन किया तथा संगीत और वाद्य-यंत्रों के सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने वाद्ययंत्रों की विभिन्न प्रकार की संगीत-ध्वनियों के अध्ययन हेतु अनेक नवीन यंत्रों का आविष्कार भी किया।
वाद्यों की भौतिकी का उन्हें इतना गहरा ज्ञान था कि ई.1927 में जर्मनी में प्रकाशित बीस खण्डों वाले भौतिकी विश्वकोश के आठवें खण्ड के लिए वाद्ययंत्रों की भौतिकी का आलेख चन्द्रशेखर वेंकटरमन ने ही तैयार किया था। इस कोश में वे अकेले गैर-जर्मन वैज्ञानिक थे।
पुरस्कार एवं उपाधियां
चन्द्रशेखर वेंकटरमन को ई.1930 में रमन प्रभाव की खोज के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया। इससे रमन प्रभाव के अनुसंधान के लिए नया क्षेत्र खुल गया। ब्रिटिश सरकार ने चन्द्रशेखर वेंकटरमन को ‘नाइट’ की उपाधि से अलंकृत किया जिसे उन्होंने गुलामी का प्रतीक कहकर अस्वीकार कर दिया। उन्हें इटालियन साइन्स कौंसिल द्वारा मटुची पदक, ह्यूज पदक एवं विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा मानद उपाधियों से सम्मानित किया गया।
ई.1948 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने रमन शोध संस्थान बैंगलोर की स्थापना की और इसी संस्थान में शोध करने लगे। स्वाधीन भारत की सरकार ने ई.1949 में उन्हें सर्वप्रथम ‘राष्ट्रीय प्रोफेसर’ बनाया और ई.1954 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया। ई.1957 में उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय लेनिन पुरस्कार प्राप्त हुआ।
ऑपथैलोमोस्कोप का आविष्कार
ई.1960 में चन्द्रशेखर वेंकटरमन ने आंख के रेटिना को देखने के लिए ‘ ऑपथैलोमोस्कोप’ यंत्र का आविष्कार किया जिससे आंख के अन्दर की रचना और क्रियाएं आसानी से देखी जा सकती हैं। इतना ही नहीं आपने रेटिना में तीन रंगों की भी खोज की तथा इन रंगों के कार्य और प्रभाव का भी पता लगाया।
प्रो. रमन अत्यन्त ही शान्त प्रकृति के व्यक्ति थे तथा अपने कार्य में आने वाली बाधाओं से विचलित नहीं होते थे। व कहते थे- ‘हम उस समय तक के लिए प्रयत्नशील हैं जब तक कि हम पूर्व के ज्ञान की ज्योति से पश्चिमी जगत् को प्रकाशित न कर दें।’ 2 अक्टूबर 1970 को उन्होंने विज्ञान अकादमी के तत्त्वावधान में गांधी स्मारक व्याख्यान दिया जो उनका अन्तिम व्याख्यान था। 21 नवम्बर 1970 को उनका निधन हो गया।
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