गियासुद्दीन बलबन द्वारा दिल्ली के निकट रहने वाले मेवों, गंगा-यमुना दो-आब के किसानों और अवध तथा कटेहर के हिन्दुओं के विरुद्ध क्रूरता पूर्वक कार्यवाही करके राज्य में शांति स्थापित करने का प्रयास किया गया किंतु शीघ्र ही उसने अनुभव किया कि चालीसा मण्डल के अमीरों तथा मुस्लिम प्रांतपतियों के विरुद्ध भी कठोर कार्यवाही किए जाने की आवश्यकता है।
बलबन ने अनुभव किया कि सुल्तान की निरंकुशता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा तुर्की अमीर थे जिनका नेतृत्व चालीसा मण्डल के हाथों में था। प्रमुख तुर्की अमीरों के इस मण्डल ने पूर्ववर्ती सुल्तानों को अपने हाथों की कठपुतली बना लिया था। बलबन ने सुल्तान तथा उसके उत्तराधिकारियों का भविष्य सुरक्षित करने के लिये चालीस सरदारों के इस मण्डल को नष्ट करने का निश्चय किया।
बलबन ने अपने व्यक्तिगत सेवकों का नया दल बनाया और उन्हें ऊँचे पदों पर नियुक्त किया। उसने रक्त की शुद्धता तथा तुर्कों की श्रेष्ठता को आधार बनाकर उन लोगों को दरबार से निकाल बाहर किया जिन्होंने हिन्दू-धर्म का परित्याग करके और इस्लाम ग्रहण करके राज्य में ऊँचे पद प्राप्त कर लिये थे।
बलबन ने ऐसे लोगों को भी हटा दिया जिनके वंश के विषय में किसी प्रकार का सन्देह था। उसने चालीसा मण्डल के अमीरों में से जो दुर्बल तथा अयोग्य हो गए थे, उन्हें गुजारा-भत्ता देकर घर बैठा दिया। अमीरों की विधवाओं तथा उनके बच्चों के लिए भी गुजारा-भत्ता निश्चित कर दिया। बलबन ने केवल युवकों को ही राज्य की सेवा में रखा और कार्य तथा योग्यता के अनुसार उनका वेतन निश्चित किया। चालीसा मण्डल की समाप्ति बलबन की सबसे बड़ी सफलता कही जा सकती है जिसके कारण वह लगभग 21 साल तक दिल्ली पर निर्विघ्न शासन कर सका।
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दिल्ली के चालीसा मण्डल के अमीरों पर नियन्त्रण करने के उपरान्त बलबन ने सल्तनत के मुस्लिम प्रान्तपतियों की ओर ध्यान दिया। उसने विद्रोही प्रांतपतियों को नष्ट कर दिया। शम्सी सरदारों में उन दिनों सबसे अधिक प्रबल शेर खाँ सुंकर था जो सीमान्त प्रदेश का शासक था। बलबन की ‘शम्सी विरोधी नीति’ से वह अत्यन्त शंकित तथा आतंकित हो गया और सुल्तान से मिलने के लिए दिल्ली नहीं आया।
बलबन ने शेर खाँ सुंकर को दरबार में उपस्थित होने के लिये आदेश भेजा। शेर खाँ चार वर्ष तक आनाकानी करता रहा। अन्त में बलबन ने उसे विष दिलवाकर उसकी हत्या करवा दी। बलबन ने शेर खाँ के स्थान पर बंगाल के हाकिम तातार खाँ को और तातार खाँ के स्थान पर तुगरिल बेग को बंगाल का सूबेदार नियुक्त कर दिया।
सीमान्त प्रदेश के दुर्गों के शासकों में परस्पर विद्वेष था। बलबन ने उन्हें यह आरोप लगाकर बंदीगृह में डाल दिया कि उन्होंने अपने कार्य में असावधानी बरती है। अवध का इक्तादार अमीन खाँ बंगाल के आक्रमण में विफल होकर लौटा तो बलबन ने उसे मृत्युदण्ड देकर उसका शव अयोध्या के फाटक पर लटकवा दिया।
इसी प्रकार अवध के इक्तादार हैबात खाँ को अपने एक गुलाम की हत्या कर देने के अपराध में बलबन ने उसे 500 कोड़े लगावाये। सुल्तान के आदेश से बदायूं के सूबेदार मलिक बकबक को जनसाधारण के सम्मुख कोड़ों से पीटा गया क्योंकि उसने एक गुलाम को कोड़ों से पीट-पीटकर मार डाला था।
बलबन ने रजिया सुल्तान की ही भांति प्रबल हिन्दू राजाओं से दूर रहने की नीति अपनाई ताकि वह अपने अमीरों पर कड़ाई से नियंत्रण रख सके, मंगोलों के विरुद्ध पूरी शक्ति झौंक सके और मेवों, गंगा-यमुना के दो-आब के विद्रोही किसानों, कटेहर के हिन्दू विद्रोहियों, अवध के विद्रोही हिन्दू सामंतों तथा बंगाल के विद्रोही मुस्लिम शासकों के विरुद्ध कार्यवाही कर सके।
बलबन जानता था कि यदि उसने इतने सारे शत्रुओं के रहते बड़े राजपूत राजाओं से भी छेड़खानी की तो वह अपने किसी भी शत्रु का दमन नहीं कर पाएगा तथा उसका राज्य लड़खड़ा जाएगा। बलबन पूरी जिंदगी इसी नीति पर चलता रहा किंतु उसका चित्तौड़ अभियान इसका अपवाद था। उसने ई.1267-68 में चित्तौड़ के विरुद्ध अभियान किया। तत्कालीन लेखक ऐसामी ने इस अभियान का उल्लेख तो किया है किंतु इसके परिणामों का उल्लेख नहीं किया है। इससे प्रतीत होता है कि इस अभियान में बलबन को विफलता हाथ लगी थी तथा चित्तौड़ के गुहिलों ने एक बार फिर दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों में कसकर मार लगाई थी।
पाठकों को स्मरण होगा कि चित्तौड़ का शासक रावल जैत्रसिंह भी इल्तुतमिश में तगड़ी मार लगा चुका था जिसके कारण इल्तुतमिश ने राजस्थान और गुजरात की तरफ देखना बंद कर दिया था।
बलबन के चित्तौड़ अभियान का वास्तविक कारण यह था कि बलबन वस्तुतः गुजरात पर अभियान करना चाहता था ताकि वहाँ की सम्पदा लूटकर सल्तनत की आर्थिक स्थिति सुधार सके। दिल्ली से गुजरात जाने के लिए चित्तौड़ होकर जाना सुगम था, इसलिए बलबन को चित्तौड़ पर अभियान करना पड़ा किंतु चित्तौड़ के रावल समरसिंह ने बलबन की सेना में कसकर मार लगाई और उसे दिल्ली की तरफ भाग जाने पर विवश कर दिया।
संभवतः इसी अभियान को इसामी ने चित्तौड़ अभियान लिखा जबकि रावल समरसिंह के आबू शिलालेख में इसे म्लेच्छ सेना का गुजरात अभियान लिखा गया है। संभवतः इसी पराजय के बाद बलबन ने यह नीति अपनाई कि वह राजपूताने के राजपूत राजाओं से उलझने की बजाय अपनी सल्तनत के उन हिस्सों पर मजबूती पर शिकंजा कसे, जो कुतुबुद्दीन ऐबक एवं इल्तुतमिश के समय में दिल्ली सल्तनत के अधीन हो चुके थे।
इस काल में चंदेल इतने शक्तिशाली नहीं थे फिर भी बलबन ने कई बार अपनी सेना कालिंजर के दुर्ग पर भेजी किंतु बलबन की सेना चंदेलों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकी तथा कालिंजर दुर्ग हिन्दुओं के पास बना रहा। नरवर के जज्वपेल शासक भी बलबन से लड़ते रहे तथा बलबन की सेना नरवर के राजपूतों पर भी निर्णायक विजय प्राप्त नहीं कर सकी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता