चोलीपूजन पंथ की साधना का लक्ष्य मनो-दैहिक परमानंद का विस्फोट है! मनो-दैहिक परमानंद की प्राप्ति भगवद् प्राप्ति का पथ नहीं है। अतः इसे भक्ति का पथ नहीं माना जा सकता। यह तंत्र का अंग है। कहा जा सकता है कि यह पंचमकार साधना का एक प्रकार है।
भारत भूमि पर वेदों की रचना के साथ ही इहलोक एवं परलोक की धारणा विकसित हुई। वैदिक ऋषियों ने मानव जाति को यह विचार दिया कि मनुष्य को ईश्वर की प्रार्थना, स्तुति, यज्ञ, तपस्या आदि के माध्यम से ईश्वर को प्रसन्न करके जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाने का प्रयास करना चाहिए। तपस्या की अवधारणा ही हजारों साल की अवधि में अलग-अलग साधनाओं में बदल गई।
याज्ञिकों ने यज्ञ के माध्यम से, योगियों ने योग के माध्यम से तथा उपासकों ने ईश्वर की भक्ति के माध्यम से जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने का प्रयास किया और इन्हें मोक्ष प्राप्ति का मार्ग कहा गया। इन्हीं अवधारणाओं के चलते भारतीय समाज में एक ओर शुद्ध-सात्विक ईशभक्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ तो दूसरी ओर वाम साधनाएं व्यापक रूप से प्रचलन में आईं।
भारतीय योगी एवं भक्तजन जहाँ दैहिक सुख छोड़कर जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति का मार्ग ढूंढ रहे थे, वहीं वाम साधकों ने मनोदैहिक सुख के चरम बिंदु पर पहुंचकर मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग ढूंढने का प्रयास किया। अघोर पंथ इसी विचारधारा की देन है। अघोरी लोग जलती हुई चिता से मांस निकाल कर खा जाते हैं, उल्टी और शौच भी खा जाते हैं।
कुछ वाम पंथ ऐसे भी विकसित हुए जो स्त्री देह को अपनी साधना का मुख्य आधार बताते थे। इनमें से राजस्थान के कूण्डा पंथ, कांचलिया पंथ तथा चोली पूजन पंथ प्रमुख हैं। राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी हिस्से से लेकर मध्य प्रदेश के सीहोर जिले के काछी, टीमर, मछुआ आदि जातियों में चोली पूजन साधना पद्धति प्रचलित थी। आज भी यह परम्परा कुछ लोगों में प्रचलित हो सकती है।
इन जातियों के अनेक व्यक्ति अघोर तंत्र में आस्था रखते थे और पंचमकारों अर्थात् मद्य और माँस के साथ-साथ मीन, मुद्रा, मैथुन का सेवन करते हुए साधना करते थे। इसलिए निश्चत रूप से चोली पूजन परम्परा अघोर पंथ के सिद्धांतों को लेकर स्थापित की गई किंतु इसमें शक्ति पूजा का समावेश किया गया जिसके कारण यह शैवों के अघोर पंथ से अलग होकर शाक्त सम्प्रदाय की वाममार्गी साधना का हिस्सा बन गई।
चोलीपूजन पंथ की साधना का लक्ष्य अलग-अलग रूपों में भी दिखाई देता है। इसे देवी उपासना का वामाचारी रूप भी कहा जा सकता है। चोली पूजन पंथ की मान्यता के अनुसार जब किसी व्यक्ति या परिवार की कोई मनौती पूरी हो जाती थी तो वह व्यक्ति एवं उसका परिवार, देवी का आभार प्रकट करने के लिए देवी की चोली के पूजन का आयोजन करवाते थे।
चोलीपूजन पंथ की साधना का आयोजन रात्रि के समय किसी एकांत, गुप्त एवं नियत स्थान पर किया जाता था। इसमें भाग लेने वाले लोग सपत्नीक ही हो सकते थे। चोली पूजन की प्रक्रिया इस प्रकार से है-
चोलीपूजन पंथ की साधना में पंचों-मकारों का प्रयोग किया जाता है। आयोजन का पुजारी किसी बड़े पात्र में मदिरा भरकर उसकी पूजा करता है। स्त्री-साधिकाएं अपनी चोली उतारकर पात्र की मदिरा में भिगोकर उससे अपना वक्ष साफ करती हैं। इसके बाद वे अपनी चोली को उसी घड़े में डाल देती हैं।
जब स्त्री साधिकाएं इस क्रिया को सम्पन्न करती हैं, तब तक पुरुष साधक, उस घडे के चारों ओर घेरा बनाकर नाचते हुए शराब पीते हैं।
जब समस्त स्त्री साधिकाएं अपनी चोली उतारकर वक्ष साफ कर लेती हैं तब पुजारी देवी-प्रतिमा की पूजा करके उसे नई चोली धारण करवाता है तथा देवी के समक्ष मेमने की बलि देता है। मेमने का मांस उसी समय पकाकर देवी को भोग लगाया जाता है। इस समय भी मदिरा-पान का दौर जारी रहता है।
देवी की चोली बदलने, मेमने की बलि देने तथा मेमने के मांस का प्रसाद वितरित करने के बाद प्रत्येक पुरुष साधक, मदिरा के घड़े में से एक-एक करके चोली उठाता है तथा जिस महिला की चोली उसके हाथ में आती है, वह उसके पास जाकर खड़ा हो जाता है। जब सभी चोलियों का बंटवारा हो जाता है तब सारे स्त्री-पुरुष देवी की प्रतिमा के समक्ष यौनक्रीड़ा करते हैं।
चोलीपूजन पंथ की साधना का चरम क्या है और इस साधना के माध्यम से किस सिद्धि की प्राप्ति की अभिलाषा की जाती है, यह ज्ञात नहीं है किंतु वाममार्गी तंत्रों के अनुसार अनुमान लगाया जा सकता है कि विभिन्न वामपंथों में मद्य, माँस, मछली, मुद्रा एवं मैथुन आदि क्रियाओं के माध्यम से जिस सिद्धि एवं मोक्ष की कामना की जाती है, कुछ उसी प्रकार का ध्येय चोली पूजन पंथ का रहा होगा।
पंचमकार आधारित समस्त साधनाओं का तत्व चिंतन, ऊर्जा निर्माण एवं एकत्रीकरण पर आधारित है। पाँच मकारों के द्वारा अधिक से अधिक ऊर्जा बनाई जाती है और उस ऊर्जा को कुण्डलिनी जागरण में प्रयुक्त किया जाता है। कुन्डलिनी जागरण करके सहस्र-दल का भेदन किया जाता है और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जाता है। साधक के अन्दर का काम-भाव ऊर्ध्वमुखी होकर उर्जा के रूप में सहस्र-दल का भेदन करता है।
इस अवस्था में कुंडलिनी, सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना से ऊपर की ओर उठती है तथा मार्ग में कई चक्रों को भेदती हुई सिर के शीर्ष में अन्तिम चक्र में प्रवेश करती है और वहाँ यह अपने पति-प्रियतम शिव के साथ हर्षोन्मादित होकर मिलती है। इस प्रकार वाम-साधना में काम-भाव का उच्चतम प्रयोग करके ब्रह्म की प्राप्ति की जाती है।
वाममार्गी तंत्रों के अनुसार भगवती एवं भगवान के पौराणिक संयोजन का अनुभव ‘हर्षोन्मादी-रहस्यात्मक समाधि’ के रूप में ‘मनो-दैहिक’ रूप से किया जाता है, जिसका विस्फोट ही परमानंद कहलाता है। यह परमानंद ही कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानंद के प्रवाह के रूप में पूरे शरीर में नीचे की ओर बहता है।
कूण्डा पंथ, कांचलिया पंथ, ऊंदरिया पंथ, बीसनामी पंथ तथा चोली पूजन पंथों की साधना विधि में कुण्डलिनी जागरण की कोई अवधारणा नहीं है फिर भी अपनी साधना को उच्चतम स्तर पर ले जाकर सिद्धि प्राप्त करने की अवधारणा अवश्य मौजूद रही होगी।
चूंकि इन पंथों के साधना पक्ष को जनसामान्य से अत्यंत गोपनीय रखा जाता था, इसलिए इनके बारे में शेष मानव समाज को अधिक जानकारी नहीं है। इस पंथ के लोग अपने किसी निकटवर्ती परिवार को धीरे-धीरे विश्वास में लेकर उन्हें अपने पंथ में सम्मिलित करते हैं और वह भी इसकी साधना पद्धति को अत्यंत गोपनीय रखता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता