चूड़ामन जाट का अंत पारिवारिक क्लेश की दुखद दास्तान है। उसके दो बेटों में हुए सम्पत्ति के झगड़े को निबटाने में असफल रहने के कारण चूड़ामन जाट ने आत्महत्या कर ली। इस प्रकार चूड़ामन जाट का अंत वैसा नहीं हुआ जैसा कि उसके जैसे योद्धा का होना चाहिए था!
ई.1712 में मुगल बादशाह जहांदारशाह ने नेता चूड़ामन जाट को आगरा के लाल किले में बुलाकर 1500 जात तथा 500 सवार का मनसब दिया तथा उसे शाही नौकरी में रख लिया था। जब ई.1713 में जहांदारशाह तथा फर्रूखसियर के बीच युद्ध हुआ तब चूड़ामन, जहांदारशाह की ओर से लड़ने के लिये युद्ध के मैदान में पहुंचा।
जैसे ही जहांदारशाह की सेना भारी पड़ने लगी, चूड़ामन और उसके सैनिक लड़ाई करना छोड़कर फर्रूखसियर का शिविर लूटने में लग गये किंतु फर्रूखसियर ने जाटों की तरफ ध्यान देने की बजाय युद्ध में ही ध्यान बनाए रखा और अंत में फर्रूखसियर को विजय प्राप्त हो गई।
जब फर्रूखसियर दिल्ली के तख्त पर बैठा तब चूड़ामन उसके दरबार में उपस्थित हुआ। चूड़ामन ने बादशाह फर्रूखसियर को सोने की इक्कीस मोहरें तथा दो घोड़े भेंट किए। इस समय फर्रूखसियर को नए दोस्तों की जरूरत थी इसलिए उसने युद्ध क्षेत्र में हुई घटनाओं को भुलाकर चूड़ामन को राव बहादुर की उपाधि दी। इसके साथ ही चूड़ामन को बादशाह की तरफ से एक हाथी दिया गया और उसके मनसब का दर्जा बढ़ा दिया गया।
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उस काल में जाटों के समूह आगरा, मथुरा, दिल्ली तथा ग्वालियर तक के क्षेत्र में व्यापारिक एवं शाही काफिलों को लूटते थे इसलिए फर्रूखसियर ने चूड़ामन को ही दिल्ली से चम्बल तक की राहदारी सौंप दी। चूड़ामन को राहदार बनाए जाने पर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार कानूनगो ने लिखा है- ‘एक भेड़िये को भेड़ों के झुण्ड का रक्षक बना दिया गया।’
चूड़ामन ने इतनी कठोरता से राहदारी वसूलनी आरम्भ की कि चारों ओर हा-हाकार मच गया। उसने थूण परगने के प्रत्येक मनसबदार तथा जागीरदार से नजराना वसूलना आरम्भ कर दिया। अब वह जागीरदारों के मामलों में भी बेखटके हस्तक्षेप करने लगा। उसकी टोलियों ने मथुरा और फतहपुर सीकरी के परगनों के गांवों को लूटना आरम्भ कर दिया। चूड़ामन ने गुप्त रूप से अस्त्र-शस्त्र बनवाये और गढ़ियों को मजबूत कर लिया।
जब चूड़ामन का आतंक बढ़ गया तब बादशाह फर्रूखसियर ने जयपुर नरेश सवाई जयसिंह को विपुल धन एवं विशाल सेना देकर चूड़ामन के विरुद्ध भेजा। चूड़ामन बीस वर्ष की खाद्य सामग्री एकत्रित करके थूण दुर्ग में बंद हो गया। मुगल सेनाओं के संभावित हमले को देखकर आस-पास के तमाम व्यापारियों ने भी अपने परिवारों एवं मालमत्ते के साथ थूण दुर्ग में शरण ली। जब सवाई जयसिंह, कोटा के महाराव भीमसिंह तथा बूंदी के महाराव बुधसिंह को लेकर थूण दुर्ग के निकट पहुंचा तो चूड़ामन ने दुर्ग में स्थित व्यापारियों से कहा कि वे अपना धन एवं सामग्री किले में छोड़कर किले से बाहर चले जायें। यदि युद्ध के बाद वह जीता तो उनके सामान की भरपाई कर देगा। व्यापारियों के पास चूड़ामन की बात मान लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था। इस प्रकार व्यापारी बुरी तरह लुट-पिटकर थूण किले से बाहर निकल आये।
कच्छवाहा राजा सवाई जयंिसंह, हाड़ा राजा महाराव भीमसिंह तथा हाड़ा राजा महाराव बुधसिंह की सेनाएं सात माह तक थूण का दुर्ग घेरे रहीं किंतु चूड़ामन को किले से बाहर नहीं निकाल सकीं। इस पर मुगल साम्राज्य की पूरी ताकत थूण के विरुद्ध झौंक दी गई तथा थूण के चारों ओर का जंगल काटकर साफ कर दिया गया।
इस प्रकार दो वर्ष बीत गये और इस अभियान पर शाही खजाने के दो करोड़ रुपये खर्च हो गये। अंत में ई.1718 में जाटों और मुगलों में एक समझौता हुआ। इस समझौते से महाराज जयसिंह को जानबूझ कर दूर रखा गया। इस समझौते के अनुसार बादशाह ने चूड़ामन को क्षमा करके फिर से शाही नौकरी में रख लिया और उसे अपनी पत्नी, पुत्र तथा भतीजों सहित मुगल दरबार में उपस्थित होने के आदेश दिए गए। बादशाह ने डीग तथा थूण के किलों को नष्ट करने की आज्ञा दी।
जब कुछ समय बाद फर्रूखसियर को गद्दी से उतारा गया तो चूड़ामन ने सैयद बंधुओं का साथ दिया। जब सैयद बंधुओं ने बादशाह का फर्रूखसियर महल घेर लिया तब दिल्ली के लाल किले तथा उसके भीतर स्थित शाही महल की सारी चाबियां चूड़ामन ने ले लीं और बादशाह को अंधा करके कैद में डाल दिया।
फर्रूखसियर के स्थान पर शहजादे रफीउद्दरजात को तख्त पर बैठाया गया। इसके कुछ दिन बाद ही आगरा के किलेदार बीरबल ने आगरा के लाल किले में बंद शहजादे नेकूसीयर को जेल से बाहर निकालकर उसे बादशाह घोषित कर दिया।
इस पर चूड़ामन नेकूसीयर के पास गया और उसने गंगाजल हाथ में उठाकर कसम खाई कि नेकूसीयर को सुरक्षित रूप से जयपुर नरेश के राज्य में पहुंचा देगा। नेकूसीयर पचास लाख रुपये तथा अपने भतीजे मिर्जा असगरी को साथ लेकर चूड़ामन के साथ चल पड़ा। चूड़ामन ने नेकूसीयर को तो रफीउद्दरजात को सौंप दिया तथा रुपये अपने पास रख लिये।
इस प्रकार चूड़ामन ने अन्य कई अवसरों पर भी बहुत से व्यक्तियों के साथ विश्वासघात किया तथा उन्हें लूट-खसोट कर दुर्भाग्य के हवाले कर दिया। चूड़ामन ने जाटों के विख्यात नेता एवं अपने भतीजे बदनसिंह को बंदी बना लिया। चूड़ामन के इस कुकृत्य से समस्त जाट, चूड़ामन से नाराज हो गये और वे चूड़ामन का साथ छोड़कर बदनसिंह के साथ हो लिये।
उन्हीं दिनों चूड़ामन के पुत्र मोहकमसिंह ने अपने किसी सम्बन्धी की काफी बड़ी सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया। इस सम्पत्ति में से चूड़ामन के दूसरे पुत्र जुलकरण ने भी हिस्सा मांगा। इस बात पर दोनों भाइयों में झगड़ा हो गया तथा दोनों एक दूसरे को मारने के लिये तैयार हो गये। इस पर चूड़ामन ने मोहकमसिंह से कहा कि वह जुलकरण को कुछ सम्पत्ति दे दे। इस पर मोहकमसिंह चूड़ामन को भी मारने के लिये तैयार हो गया। इस पर चूड़ामन ने दुःखी होकर जहर खा लिया। इस प्रकार बहुत ही दुखद पस्थिति में चूड़ामन जाट का अंत हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता