अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध प्रमुख विद्रोह
तुर्की अमीर तो विद्रोही प्रकृति के थे ही, गैर तुर्की अमीर भी कुछ कम नहीं थे। वे सब सुल्तान को अपने-अपने गुट के वश में करने के लिये षड़यंत्र एवं विद्रोह रचते रहते थे। अलाउद्दीन खिलजी की स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुशता की नीति से अमीरों में उसके विरुद्ध अत्यधिक असन्तोष रहता था। इस कारण अलाउद्दीन खिलजी को कई विद्रोहों का सामना करना पड़ा-
(1.) नव-मुसलमानों का विद्रोह: जलालुद्दीन खिलजी के शासन काल में जो मंगोल इस्लाम स्वीकार करके दिल्ली के निकट मंगोलपुरी में बस गये थे, वे नव-मुस्लिम कहलाते थे। ये लोग अब भी अपने को विदेशी समझते थे और सल्तनत के विरुद्ध षड़यन्त्र रचते रहते थे। 1307 ई. में जब नसरत खाँ तथा उलूग खाँ गुजरात से लौट रहे थे, तब नव-मुस्लिम सैनिकों ने उसे मार्ग में लूटने के लिए विद्रोह कर दिया और सुल्तान के भतीजे तथा नसरत खाँ के भाई की हत्या कर दी। इस विद्रोह को बड़ी नृशंसतापूर्वक दबाया गया। नव-मुस्लिमों की जागीरें छीन ली गई। और उन्हें नौकरियों से वंचित कर दिया गया। इससे नव-मुसलमानों का असन्तोष और बढ़ गया और उन्होंने सुल्तान की हत्या करने का षड्यन्त्र रचा। अलाउद्दीन खिलजी को इस षड्यन्त्र का पता लग गया। उसने अपनी सेना को आज्ञा दी कि वे नव-मुसलमानों को समूल नष्ट कर दें। बरनी का कहना है कि इस आज्ञा के पाते ही लगभग तीन हजार ‘नव मुस्लिम तलवार के घाट उतार दिये गये और उनकी सम्पत्ति छीन ली गई।
(2.) अकत खाँ का विद्रोह: दूसरा विद्रोह अकत खाँ का था जो अलाउद्दीन खिलजी का भतीजा था। जब अलाउद्दीन रणथम्भौर जा रहा था तब वह तिलपत नामक स्थान पर कुछ दिनों के लिए रुक गया और आखेट में व्यस्त हो गया। इसी समय अकत खाँ ने अपने सैनिकों को सुल्तान पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। सुल्तान घायल हो गया परन्तु बच गया। सुल्तान ने विद्रोहियों का पीछा किया और अकत खाँ तथा उसके साथियों को पकड़ कर उनका वध करवा दिया। अकत खाँ के भाइयों जिनका इस विद्रोह से कोई सम्बन्ध नहीं था, उनकी सम्पत्ति जब्त करके उन्हें बंदी बना लिया गया।
(3.) अमीर उमर तथा मंगू खाँ का विद्रोह: अमीर उमर तथा मंगू खाँ अलाउद्दीन खिलजी की बहिन के पुत्र थे। जिस समय अलाउद्दीन रणथम्भौर का घेरा डाले हुए था, उन्हीं दिनों इन लोगों ने बदायूँ तथा अवध में विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। ये विद्रोह शीघ्र ही दबा दिए गये और अमीर उमर तथा मंगू खाँ को बंदी बनाकर उनकी आँखें निकलवा ली गईं।
(4.) हाजी मौला का विद्रोह: हाजी मौला अलाउद्दीन खिलजी का एक असन्तुष्ट अधिकारी था। वह काजी अलाउलमुल्क की मृत्यु के उपरान्त दिल्ली का कोतवाल बनना चाहता था परन्तु सुल्तान ने तमर्दी को इस पद पर नियुक्त कर दिया। इससे हाजी मौला को बड़ी निराशा हुई और वह षड्यन्त्र रचने लगा। जब सुल्तान रणथम्भौर के घेरे के दौरान सकंटापन्न स्थिति में था, तब हाजी मौला ने दिल्ली के कोतवाल तमर्दी की हत्या करके राजकोष पर अधिकार कर लिया। इस पर अलाउद्दीन ने उलूग खाँ को उसका दमन करने के लिये भेजा परन्तु उसके दिल्ली पहुँचने के पूर्व ही हमीदुद्दीन नामक राजभक्त अधिकारी ने हाजी मौला को परास्त करके उसका वध कर दिया। हाजी मौला के समस्त सम्बन्धियों तथा समर्थकों की भी निर्दयता पूर्वक हत्या की गई।
विद्रोहों के कारण
यद्यपि अलाउद्दीन विद्रोहों का दमन करने में सफल रहा था परन्तु स्थायी शान्ति स्थापित करने के लिए इन विद्रोहों के वास्तविक कारणों का पता लगाना आवश्यक था जिससे ऐसी व्यवस्था की जाये कि भविष्य में विद्रोहों की सम्भावना नहीं रह जाये। अपने शुभचिन्तकों का परामर्श लेने के उपरान्त सुल्तान इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि विद्रोह के पाँच कारण हैं-
(1.) गुप्तचर विभाग की अयोग्यता: अलाउद्दीन ने अनुभव किया कि उसका गुप्तचर विभाग ढंग से कार्य नहीं कर रहा है। इस कारण सुल्तान को समय रहते षड़यंत्रों तथा साम्राज्य के विभिन्न भागों में घटने वाली घटनाओं की जानकारी नहीं मिल पाती।
(2.) मद्यपान गोष्ठियाँ: अलाउद्दीन ने विद्रोह का दूसरा कारण अमीरों की मद्यपान गोष्ठियों को ठहराया। इन गोष्ठियों में सुल्तान तथा अन्य अमीरों के विरुद्ध षड्यन्त्र रचे जाते थे। अतः मद्यपान को रोकना आवश्यक समझा गया।
(3.) अमीरों की सामाजिक गोष्ठियाँ तथा वैवाहिक सम्बन्ध: अमीरों के परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध एवं उनकी सामाजिक गोष्ठियाँ भी विद्रोहों का कारण समझी गईं। इनके माध्यमों से अमीरों को धड़ेबंदी करने एवं सुल्तान के विरुद्ध संगठित होने का अवसर मिलता था। इस कारण जब कभी किसी एक अमीर के विरुद्ध कार्यवाही की जाती थी तब उसके धड़े के अन्य अमीर भी विद्रोह पर उतर आते थे।
(4.) कुछ अमीरों के पास धन का बाहुल्य: सुल्तानों की कमजोरी एवं उनकी हत्याओं के सिलसिले का लाभ उठाकर कुछ अमीरों ने अत्यधिक धन एकत्रित कर लिया था। इस धन का उपयोग सुल्तान के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने में होता था। धन कमाने की चिंता नहीं होने के कारण अमीरों को विद्रोहों के बारे में सोचने का अवकाश प्राप्त हो जाता था।
(5.) स्थानीय शासकों पर नियंत्रण का अभाव: प्रांतीय एवं स्थानीय शासकों पर सुल्तान का प्रत्यक्ष नियन्त्रण नहीं होने से, उन्हें भी दिल्ली के अमीरों की भांति धन एकत्रित करने तथा उसकी सहायता से विद्रोह करने का अवसर प्राप्त हो जाता था।
(6.) सुल्तान तथा जनता में प्रत्यक्ष सम्पर्क का अभाव: अब तक की शासन पद्धति में सुल्तान का जनता से प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं था। इसके कारण जनता सुल्तान की ओर से उदासीन बनी रहती थी और स्थानीय लोगों के भड़कावे में आकर सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देती थी।
अलाउद्दीन की सुधार योजनाएँ
अलाउद्दीन खिलजी ने सुल्तान के विरुद्ध होने वाले विद्रोहों के कारण का अनुमान लगा लेने के उपरान्त उन कारणों को दूर करने का निश्चय किया। उसने विद्रोहों को रोकने के लिए निम्नलिखित कदम उठाये-
(1.) गुप्तचर-विभाग का संगठन: विद्रोहियों का पता लगाने के लिए सुल्तान ने गुप्तचर-विभाग फिर से संगठित किया। गुप्तचरों को अमीरों तथा राज्याधिकारियों के घरों, कार्यालयों, नगरों तथा गाँवों में नियुक्त किया गया। इससे अमीरों के बारे में छोटी से छोटी सूचना सुल्तान तक पहुँचने लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि अमीरों, राज्याधिकारियों तथा साधारण लोगों की गुप्त बातें समाप्त हो गईं।
(2.) अमीरों की सम्पत्ति का हरण: अलाउद्दीन खिलजी ने उन धनी अमीरों की सम्पत्ति को छीनना आरम्भ किया जो भूमि, लोगों को इनाम अथवा दान के रूप में प्राप्त थी, बहुत से लोगों की पेन्शन छीन ली गई। जिन्हें कर मुक्त भूमि मिली थी, उनकी भूमि पर फिर से कर लगा दिया गया। इससे सुल्तान को पर्याप्त धन प्राप्त हो गया और अमीरों की समृद्धि पर अंकुश लग गया।
(3.) मद्यपान-निषेध: अलाउद्दीन ने स्वयं मद्यपान त्याग दिया और अन्य लोगों को भी शराब पीने से रोक दिया। अलाउद्दीन ने शराब पीने के अपने बहुमूल्य बर्तन तुड़वा दिये और आज्ञा दी कि दिल्ली में जितनी शराब है वह सड़कों पर फैंक दी जाये। सुल्तान की आज्ञा का पालन किया गया और दिल्ली की सड़क शराब से भर गयी। सुल्तान ने यह भी आज्ञा दे दी कि यदि कोई व्यक्ति मद्यपान किये हुए मिले तो उसे दिल्ली के बाहर एक गड्ढे में फिंकवा दिया जाय। सुल्तान की आज्ञा का उल्लंघन करने वालों को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की गई।
(4.) अमीरों की सामाजिक गोष्ठियों तथा पारस्परिक विवाहों का निषेध: अलाउद्दीन खिलजी ने अमीरों की दावतें बन्द करवा दीं और उन्हें एक दूसरे के यहाँ आने जाने तथा गोष्ठी करने से मना कर दिया। बिना सुल्तान की आज्ञा के अमीर लोग परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध भी नहीं स्थापित कर सकते थे। इससे अमीरों का संगठन धीरे-धीरे समाप्त होने लगा।
(5.) प्रान्तों पर कड़ा नियन्त्रण: अलाउद्दीन खिलजी ने प्रांतीय सेना पर अपना सीधा नियन्त्रण रख प्रांतपतियों की शक्ति को कम करने का प्रयत्न किया। उसने प्रान्तों में रहने वाली सेना की नियुक्त तथा सैनिकों का नियन्त्रण, स्थानान्तरण, पद वृद्धि आदि सारे कार्य अपने हाथ में ले लिये। सैनिकों को भूमि देने के स्थान पर नकद वेतन देना आरम्भ किया। उसने इस बात पर जोर दिया कि प्रान्तपति निर्धारित संख्या में सैनिक रखें तथा उन्हें पूरा वेतन दें।
(6.) जलाली अमीरों का दमन: अलाउद्दीन ने उन समस्त जलाली अमीरों को नष्ट कर दिया जिन्होंने धन अथवा पद के प्रलोभन से विरोधियों का साथ दिया था। उनकी सम्पत्ति छीन ली गई और बहुतों की आँखें निकलवा कर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। दूसरे अमीरों को उन्मूलित करने में भी सुल्तान ने संकोच नहीं किया। उसने कई अनेक उच्च पदाधिकारियों तथा उनके सम्बन्धियों को विष दिलवा कर मार डाला।
(7.) हिन्दुओं का कठोरता से दमन: अलाउद्दीन खिलजी ने हिन्दुओं को पूरी तरह निर्धन बनाने का प्रयत्न किया जिससे वे विद्रोह की कल्पना तक नहीं कर सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सुल्तान ने कई कदम उठाये। दोआब बड़ा ही उपजाऊ प्रदेश था और वहाँ के हिन्दू प्रायः विद्रोह खड़ा कर देते थे। अतः सुल्तान ने दो आब के क्षेत्र में उपज का 50 प्रतिशत मालगुजारी के रूप में वसूल करने की आज्ञा दी। जजिया, चुंगी तथा अन्य कर पूर्ववत् हिन्दुओं को देने पड़ते थे। चौधरी और मुकद्दम लोगों को घोड़ों पर चढ़ने, हथियार रखने, अच्छे वस्त्र पहनने, पान खाने से मनाही कर दी गई। इस प्रकार हिन्दुओं की समस्त सुविधाएँ छीन ली गईं और उनके साथ बड़ी क्रूरता का व्यवहार किया गया।
न्याय व्यवस्था में सुधार
अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी मुस्लिम प्रजा के लिये न्याय की समुचित व्यवस्था की। हिन्दुओं के झगड़ों का न्याय भी मुस्लिम काजियों द्वारा किया जाता था किंतु हिन्दुओं के झगड़ों का निबटारा अलग प्रकर से किया जाता था। मुसलमान प्रजा की बजाय हिन्दुओं पर अधिक कड़े दण्ड लगाये जाते थे तथा अधिक कड़ी शारीरिक यातानाएं दी जाती थीं।
(1.) लोक आधारित न्याय व्यवस्था: अलाउद्दीन से पहले, दिल्ली सल्तनत की न्याय व्यवस्था, मुस्लिम धर्म ग्रन्थों पर आधारित थी परन्तु अलाउद्दीन ने उसे लौकिक स्वरूप प्रदान किया। उसने इस्लाम की उपेक्षा नहीं की परन्तु उसने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि परिस्थिति तथा लोक कल्याण के विचार से जो नियम उपयुक्त हों, वही राजनियम होने चाहिए।
(2.) उपयुक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति: सुल्तान ने न्याय करने वाले काजियों की संख्या में वृद्धि कर दी ताकि लोगों को न्याय के लिये अपने झगड़ों का निबटारा करवाने के लिये अधिक दिनों तक नहीं भटकना पड़े तथा अपराधियों को जल्दी से जल्दी सजा दी जा सके।
(3.) न्यायाधीशों की सहायतार्थ पुलिस तथा गुप्तचरों का प्रबन्ध: सुल्तान ने न्यायाधीशों की सहायता के लिए पुलिस की भी समुचित व्यवस्था की। प्रत्येक नगर में एक कोतवाल रहता था जो पुलिस का प्रधान होता था। उसका प्रधान कर्त्तव्य अपराधों का अन्वेषण करना होता था। न्यायाधीश की सहायता के लिए पुलिस के साथ-साथ गुप्तचरों का भी प्रबन्ध किया गया जो अपराधों एवं अपराधियों के अन्वेषण में सहायता करते थे।
(4.) कठोर दण्ड का विधान: अलाउद्दीन का दण्ड-विधान अत्यन्त कठोर था। अपराधी तथा उसके साथियों और सम्बन्धियों को बिना किसी प्रमाण के केवल सन्देह के कारण मृत्यु-दण्ड तक दे दिया जाता था। अपराधियों को प्रायः अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था। कठोर दण्ड विधान से जनता में शासन के प्रति भय बैठ गया। लोग अपराध करने तथा विवाद में पड़ने से डरने लगे।
सेना में सुधार
अलाउद्दीन ने बाह्य आक्रमणों से साम्राज्य की रक्षा करने, साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने तथा साम्राज्य का विस्तार करने के लिये मजबूत सेना का गठन किया तथा उसमें कई सुधार किये-
(1.) सैनिकों की भर्ती करने में सुधार: सुल्तान ने सेना को पूर्ण रूप से अपने नियंत्रण में रखने के लिए सेना के सम्बन्ध में निर्णय लेने का काम अपने तक सीमित कर लिया। उसने सैनिकों को भर्ती करने की व्यवस्था में परिवर्तन किया। सेना का संगठन करने के लिए उसने ‘आरिज-ए-मुमालिक’ की नियुक्ति की। सेना में वही लोग भर्ती किये जाते थे जो घोड़े पर चढ़ना, अस्त्र-शस्त्र चलाना तथा युद्ध करना जानते थे।
(2.) सैनिकों का प्रशिक्षण: उस काल में सेना के प्रशिक्षण एवं परेड आदि की कोई व्यवस्था नहीं थी। सैनिकों का प्रशिक्षण रण क्षेत्र में ही होता था तथा सेना को सक्रिय बनाने रखने के लिए उसे हर समय किसी न किसी युद्ध में नियोजित रखना पड़ता था। शांति काल में सेना को आखेट में व्यस्त रखा जाता था।
(3.) सैनिकों का वर्गीकरण तथा नकद वेतन की व्यवस्था: सुल्तान ने घुड़सवार सैनिकों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया और प्रत्येक श्रेणी के सैनिकों का वेतन निश्चित कर दिया। पहली श्रेणी का सैनिक दो से अधिक घोड़े रखता था, दूसरी श्रेणी का सैनिक केवल दो घोड़े और तीसरी श्रेणी का सैनिक केवल एक घोड़ा रखता था। प्रथम श्रेणी के सैनिक को 234 टंक, द्वितीय श्रेणी के सैनिक को 152 टंक और तृतीय श्रेणी के सैनिकों को 78 टंक वार्षिक वेतन मिलता था। सैनिकों को जागीर देने की प्रथा हटा दी गई और उन्हें नकद वेतन दिया जाने लगा।
(4.) उत्तम अश्वों की व्यवस्था: अलाउद्दीन खिलजी की सेना में घुड़सवार सैनिकों की प्रधानता थी। अतः सुल्तान ने अश्व-विभाग के सुधार पर विशेष रूप से ध्यान दिया। उसने बाहर से अच्छी नस्ल के घोड़ों को मंगाने की व्यवस्था की। प्रायः मंगोलों के परास्त होने पर सुल्तान को लूट में अच्छे घोड़े प्राप्त हो जाते थे। दक्षिण भारत के राजाओं को परास्त करके सुल्तान ने कुछ अच्छे घोड़े प्राप्त किये थे। राज्य ने अच्छी नस्ल के घोड़े उत्पन्न करने की भी व्यवस्था की।
(5.) हुलिया की व्यवस्था: प्रायः लोग सैन्य-प्रदर्शन के समय अथवा रणक्षेत्र में घोड़े तथा सवार लाकर दिखा देते थे जबकि वे घोड़े तथा सवार वास्तव में युद्ध में भाग नहीं लेते थे। इस बेईमानी को रोकने के लिए सुल्तान ने सैनिकों की हुलिया लिखवाने की प्रथा चलाई। फलतः प्रत्येक सैनिक को एक रजिस्टर में अपनी हुलिया लिखवाना पड़ता था।
(6.) घोड़ों को दागने की व्यवस्था: सैनिक सदैव अच्छे घोड़े नहीं रखते थे। सुल्तान ने इसके लिए घोड़ों को दागने की प्रथा चलाई जिससे सैनिक झूठे घोड़े दिखला कर सुल्तान को धोखा न दें।
(7.) अच्छे शस्त्रों तथा सेनापतियों की व्यवस्था: सुल्तान द्वारा लागू की गई नई व्यवस्था में सैनिकों को अच्छे से अच्छे घोड़ों तथा उत्तम हथियारों से सज्जित होकर राज्य की सेवा के लिये सदैव तैयार रहना पड़ता था। सुल्तान ने अपनी सेना के संचालन के लिये योग्य सेनापतियों को नियुक्त किया।
(8.) स्थायी सेना की व्यवस्था: अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने स्थायी सेना की व्यवस्था की। यह सेना राज्य की सेवा के लिये सदैव राजधानी में उपस्थित रहती थी। इस स्थायी सेना में चार लाख पचहत्तर हजार सैनिक होते थे।
(9.) दुर्गों की व्यवस्था: सुल्तान ने उन समस्त किलों की मरम्मत कराई जो मंगोलों के मार्गों में पड़ते थे। उसने बहुत से नये दुर्ग भी बनवाये। इन किलों में उसने योग्य तथा अनुभवी सेनापतियों की अध्यक्षता में सुसज्जित सेनायें रखीं।
आर्थिक सुधार
अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली सल्तनत की आर्थिक व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिये कई आर्थिक सुधार किये-
(1.) व्यक्तिगत सम्पत्ति का अपहरण: अलाउद्दीन खिलजी अमीरों एवं जनता की व्यक्तिगत सम्पत्ति को आन्तरिक उपद्रवों का कारण समझता था। इसलिये उसने अमीरों एवं जनता की व्यक्तिगत सम्पत्ति को उन्मूलित करके उस सम्पत्ति को राजकीय कोष में जमा कर लिया। इस कार्य के लिये उसने साधारण जनता से लेकर अमीरों तक पर अत्याचार किये तथा उनकी हत्याएं करवाईं।
(2.) दान की भूमि का अपहरण: मुसलमानों को मिल्क, इनाम, इशरत (पेंशन) तथा वक्फ (दान) के रूप में जो भूमि प्राप्त थी, उसका सुल्तान ने अपहरण कर लिया। इस प्रकार की कुछ भूमि फिर भी बची रह गई थी परन्तु अधिकांश भूमि छीन ली गई थी।
(3.) जागीरों का अपहरण: सुल्तान ने सैनिकों को जागीर देने की प्रथा बन्द करके नकद वेतन देने की व्यवस्था की। इससे राज्य की आय में वृद्धि हो गई।
(4.) सम्पूर्ण भूमि का खालसा भूमि में परिवर्तन: खालसा भूमि उस भूमि को कहते थे जो सीधे केन्द्र सरकार के अधिकार में होती थी। चूंकि अलाउद्दीन ने जागीरदारी की प्रथा हटा दी, इसलिये अब समस्त भूमि सीधे सरकार के नियन्त्रण में आ गई और खालसा भूमि बन गई।
(5.) भूमि की नाप तथा कर का निर्माण: सुल्तान ने सम्पूर्ण भूमि की नाप करवा कर सरकारी लगान निश्चित कर दिया। जितनी उपजाऊ भूमि होती थी, उसी के हिसाब से लगान देना पड़ता था। वह दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने भूमि की पैमाइश करवाकर लगान वसूल करना आरम्भ किया। इसके लिये एक बिस्वा को एक इकाई माना गया। वह लगान को गलले में लेना पसंद करता था। लगान का निर्धारण तीन प्रकार से किया जाता था-
1. कनकूत- कनकूत से आशय यह था कि जब फसल खड़ी हो तभी लगान का अन्दाजा लगा लिया जाय।
2. बटाई- बटाई से यह तात्पर्य था कि अनाज तैयार हो जाने पर सरकार का हिस्सा निश्चित करके ले लिया जाय।
3. लंकबटाई- लंकबटाई से यह तात्पर्य था कि फसल तैयार हो जाने पर बिना पीटे ही सरकारी हिस्सा ले लिया जाय।
(6.) करों में वृद्धि: अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में किसान की फसल में से 50 प्रतिशत हिस्सा राज्य का होता था। किसानों को चारागाह तथा मकान का भी कर देना पड़ता था। कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि इतना अधिक कर केवल दोआब में लिया जाता था जहाँ की भूमि अधिक उपजाऊ थी और लोग अधिक विद्रोह करते थे।
(7.) हिन्दू राज्याधिकारियों के विशेषाधिकारों का समापन: यद्यपि सुल्तान ने लगान वसूली के लिए अपने सैनिक अफसर नियुक्त कर दिये थे तथापि पुरानी व्यवस्था को वह पूरी तरह नष्ट नहीं कर सका था। लगान वसूली का कार्य अब भी हिन्दू मुकद्दम, खुत तथा चौधरी करते थे जिन्हें कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे। सुल्तान ने उनके समस्त विशेषाधिकारों को समाप्त करके उनका वेतन निश्चित कर दिया। खुत तथा बलहर अर्थात् हिन्दू जमींदारों को नष्ट नहीं किया गया परन्तु उन पर इतना अधिक कर लगाया गया कि वे निर्धन हो गये और कभी भी राज्य के विरुद्ध सिर नहीं उठा सके।
(8.) दोआब में अनाज लेने की व्यवस्था: दोआब के किसानों से लगान के रूप में अनाज लिया जाता था। उस अनाज को जमा करने के लिए सरकारी बखार होते थे। इन बखारों में इतना अधिक अनाज जमा होता था कि अकाल के समय सेना के लिये पर्याप्त होता था।
(9.) दीवान ए मुस्तखराज की स्थापना: अलाउद्दीन खिलजी ने बकाया कर वसूलने के लिये दीवान-ए-मुस्तखराज नामक विभाग की स्थापना की। उसने सम्पूर्ण साम्राज्य को कई भागों में विभक्त करके प्रत्येक भाग को एक सैन्य-अधिकारी के अनुशासन में रख दिया। यह सैन्य अधिकारी जनता से मालगुजारी वसूल करता था और जितनी सेना उसके सुपुर्द की जाती थी, उसका व्यय निकालने के उपरान्त शेष धन राजकोष में भेज देता था।
अलाउद्दीन द्वारा किये गये सुधारों के परिणाम
उपरोक्त सुधारों से राजकीय आय में भारी वृद्धि हो गई। जनता पर करों का बोझ बढ़ गया। करों का अधिकांश बोझ हिन्दुओं पर ही पड़ा जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि था और जिन्हें अन्य करों के अतिरिक्त जजिया भी देना पड़ता था।
अलाउद्दीन द्वारा बाजारों का प्रबन्धन
राज्य में घूसखोरी तथा अनैतिक तरीके से धन संग्रहण की प्रवृत्ति को रोकने के लिये अलाउद्दीन खिलजी ने बाजारों में मूल्य नियंत्रण के लिये कठोर उपाय किये।
(1.) वस्तुओं का सूचीकरण तथा उनका मूल्य निर्धारण: अलाउद्दीन ने उन वस्तुओं की सूचि तैयार करवाई जिनकी उसके सैनिकों को प्रतिदिन आवश्यकता पड़ती थी। यह सूचि ऐसी सावधानी से बनाई गई थी कि प्रतिदिन के प्रयोग की कोई वस्तु छूटी नहीं थी। इन सब वस्तुओं के मूल्य निश्चित कर दिये गये। इन वस्तुओं को कोई भी दुकानदार निर्धारित मूल्य से अधिक मूल्य पर नहीं बेच सकता था।
(2.) वस्तुओं की पूर्ति की व्यवस्था: सुल्तान ने बाजार में वस्तुओं की माँग तथा पूर्ति में संतुलन बनाने के लिये भी राज्य की ओर से व्यवस्था की। वस्तुओं की पूर्ति का उत्तरदायित्व राज्य ने अपने ऊपर ले लिया। जो वस्तुएँ राज्य स्वयं उत्पन्न कर सकता था, उनके उत्पन्न करने की व्यवस्था की गई; जो राज्य के सुदूर प्रान्तों से मँगवाई जाती थीं, वे वहाँ से मँगवाई जाने लगीं और जो वस्तुएँ देश में नहीं मिल सकती थीं, वे विदेशों से मँगवाई जाने लगीं।
(3.) वितरण की व्यवस्था: वस्तुओं की आपूर्ति व्यवस्था के साथ-साथ उनके बाजारों में वितरण की भी समुचित व्यवस्था की गई। दिल्ली में तीन बाजारों की व्यवस्था की गई। एक बाजार सराय अदल कहलाती थी, दूसरी शहना-ए-मण्डी और तीसरे बाजार का नाम अब उपलब्ध नहीं है। तीनों बाजारों में भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएँ प्राप्त होती थीं। प्रत्येक नियन्त्रित दूकान को उतनी ही मात्रा में वस्तुएँ दी जाती थीं जितनी उस दुकान के उपभोक्ताओं की मांग होती थी।
(4.) बाजार के कर्मचारी: अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार में कई श्रेणियों के अधिकारी नियुक्त किये और उन्हें आदेश दिये कि वे बाजारों पर कड़ा नियंत्रण रखें। इस व्यवस्था का प्रमुख अधिकारी दीवाने रियासत कहलाता था। उसे तीनों बाजारों पर नियन्त्रण रखना पड़ता था। दीवाने रियासत के नीचे प्रत्येक बाजार में तीन पदाधिकारी नियुक्त किये गये थे। पहला पदाधिकारी शाहनाह (निरीक्षक), दूसरा बरीद-ए-मण्डी (लेखक) और तीसरा मुन्हीयान (गुप्तचर) कहलाता था। शाहनाह बाजार के सामान्य कार्यों को दख्ेाता था, बरीद घूम-घूम कर बाजार का नियन्त्रण करता था और मुन्हीयान गुप्त एजेन्ट अथवा कारदार होता था। बरीद बाजार की पूरी सूचना शाहनाह के पास, शाहनाह इस सूचना को दीवाने रियासत के पास और दीवाने रियासत सुल्तान के पास भेज देता था। मुन्हीयान को सुल्तान स्वयम् नियुक्त करता था। वह बाजार की अपनी अलग रिपोर्ट तैयार करके सीधे ही सदर दफ्तर में भेजता था। यदि उसकी तथा अन्य पदाधिकारियों की रिपोर्ट में कुछ अन्तर पड़ता था तो गलत रिपोर्ट देने वाले को बड़ा कठोर दण्ड दिया जाता था।
(5.) कठोर दण्ड की व्यवस्था: सुल्तान उन लोगों को बड़े कठोर दण्ड देता था जो बईमानी करते थे और त्रुटियुक्त बाट रखते थे। कहा जाता है कि जो व्यापारी जितना कम तोलता था, उतना ही मांस उसके शरीर से काटने के निर्देश दिये गये थे परन्तु कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जब इस नियम को कार्यान्वित किया गया हो।
(6.) कपड़े के क्रय-विक्रय की व्यवस्था: सुल्तान की ओर से कपड़ों का भी मूल्य निर्धारित किया परन्तु इस मूल्य पर कपड़ा बेचने में व्यापारियों को हानि होने की सम्भावना थी। इसलिये व्यापारियों में कपड़े की दूकानों का अनुज्ञापत्र लेने का साहस नहीं होता था। इसलिये सुल्तान ने कपड़े का व्यापार मुल्तानी व्यापारियों को सौंप दिया। इन व्यापारियों को कपड़ा खरीदने के लिए राजकोष से धन मिलता था और कपड़ा बिक जाने पर इन्हें निर्धारित कमीशन दिया जाता था।
(7.) पशुओं का मूल्य निर्धारण: सुल्तान ने पशुओं के क्रय-विक्रय पर भी राज्य का पूरा नियन्त्रण रखा और उनका मूल्य निर्धारित कर दिया। इस प्रकार प्रथम श्रेणी के घोड़ों का मूल्य 100 से 120 टंक, दूसरी श्रेणी के घोड़ों का 80 टंक और तीसरी श्रेणी के घोड़ों का 65 से 70 टंक निश्चित किया गया। टट्टुओं का मूल्य 10 से 25 टंक निश्चित किया गया। दूध देने वाली गाय का मूल्य तीन-चार टंक और बकरियों का मूल्य 10 से 14 जीतल निश्चित किया गया।
(8.) गुलामों तथा वेश्याओं का मूल्य निर्धारण: बाजार की अन्य वस्तुओं की तरह गुलामों तथा वेश्याओं का भी मूल्य निश्चित किया गया। गुलामों का मूल्य 5 से 12 टंक तथा वेश्या का मूल्य 20 से 40 टंक निश्चित किया गया। कुछ उत्तम गुलामों के दाम 100 से 200 टंक हुआ करते थे। बड़े सुन्दर गुलामों के लड़के 20 से 30 टंक में खरीदे जा सकते थे। गुलाम नौकरानियों का मूल्य 10 से 15 टंक हुआ करता था। घर में कामों के लिये गुलाम 7 से 8 टंक में खरीदे जा सकते थे।
(9.) दलालों का नाश: सुल्तान ने बाजार से दलालों को निकाल दिया तथा उनके नेताओं को कठोर दण्ड दिया।
बाजार प्रबंधन के परिणाम
बाजार के इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि आवश्यक वस्तुएं कम मूूल्य पर मिलने लगीं। सैनिकों के लिये यह संभव हो गया कि वे कम वेतन में भी सुखमय जीवन व्यतीत कर सकें और अपने परिवार का ठीक से पालन कर सकें। दलालों को बाजार से हटा देने से समस्त चीजों के मूल्य राज्य द्वारा निर्धारित मूल्य पर बने रहे तथा बाजार से काला बाजारी जैसे हरकतें समाप्त हो गईं। डॉ. के. एस. लाल ने सिद्ध किया है कि बाजारों का यह नियंत्रण केवल राजधानी तथा उसके आसपास तक ही सीमित था। डॉ. लाल के अनुसार उसकी सफलता भावों को कम करनू में उतनी नहीं है जितनी कि एक लम्बे समय तक भावों को नियंत्रण में रखने में है। बरनी ने लिखा है कि सुल्तान की मृत्युपर्यंत वस्तुओं के भाव एक जैसे ही बने रहे।
सुधारों की सफलता
यह पहले बताया जा चुका है कि सुल्तान के तीन प्रधान लक्ष्य थे- पहला मंगोलों के आक्रमणों को रोकना, दूसरा अमीरों के षड्यन्त्रों तथा विद्रोहों को नष्ट कर आंतरिक शांति तथा सुव्यवस्था स्थापित करना और तीसरा साम्राज्य का विस्तार करना। अलाउद्दीन ने जिन उद्देश्यों से सुधार आरम्भ किये थे उनमें उसे पूर्ण सफलता प्राप्त हुई।
(1.) विशाल तथा सुसंगठित सेना की सहायता से उसने मंगोलों को भगाया और सम्पूर्ण भारत में अपनी राज-सत्ता स्थापित की।
(2.) अमीरों के षड्यन्त्रों तथा विद्रोहों के दबाने में भी उसे अपूर्व सफलता प्राप्त हुई। कड़े नियमों तथा कठोर दण्ड द्वारा अपने अपराधों में कमी कर दी। वस्तुओं का मूल्य गिर जाने से साधारण जनता का जीवन सुखी हो गया और लोग सुल्तान की निरंकुशता के समर्थक बन गये।
(3.) यद्यपि सुल्तान को अपनी आय का अधिकांश भाग युद्धों में ही व्यय करना पड़ता था परन्तु सार्वजनिक हित के भी बहुत से कार्य किये गये। उसने दिल्ली के पास एक सुन्दर महल बनवाया। इस्लामी विद्वानों तथा फकीरों को सुल्तान का आश्रय प्राप्त था।
(4.) सुधारों का सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि केन्द्रीय सरकार की शक्ति बहुत बढ़ गई और सुल्तान की सत्ता सर्व-व्यापी हो गई। सुदूरस्थ प्रान्तों के प्रान्तपति भी सुल्तान की आज्ञाओं का अक्षरशः पालन करने लगे।
(5.) राज्य के समस्त पदाधिकारी बड़ी सतर्कता तथा ईमानदारी के साथ काम करते थे क्योंकि नियमानुसार कार्य न करने वालों को कठोर दण्ड दिये जाते थे।
सुधारों की विफलता
अलाउद्दीन खिलजी की राज्य व्यवस्था सैनिक शक्ति पर आधारित थी। उसके समस्त सुधार सुल्तान की सैनिक शक्ति को बढ़ाने के लिये किये गये थे। ऐसा शासन दीर्घकालीन नहीं हो सकता था। ज्यों-ज्यों सुल्तान की शारीरिक एवं मानसिक शक्ति क्षीण होने लगी, त्यों-त्यों उसकी नीतियों के प्रति असन्तोष भी बढ़ने लगा। बहुत से लोग सुल्तान की योजनाओं से असन्तुष्ट थे। अमीर अपनी जागीरें फिर से प्राप्त करने की ताक में थे। राजपूत जागीरदार एवं पुराने राजवंश अपने खोये हुए राज्यों एवं अधिकारों को फिर से प्राप्त करने के लिये प्रयासरत थे। व्यापारी वर्ग भी सुल्तान की नीतियों से असंतुष्ट था। वस्तुओं के भाव निश्चित कर देने से व्यापारी वर्ग लाभ से वंचित हो गया था। जो व्यापारी दिल्ली से बाहर जाते थे, उनके कुटुम्ब पर शासन द्वारा पूरा नियंत्रण रखा जाता था। इससे उनके परिवारों की सुरक्षा पर हर समय खतरा बना रहता था। किसान और हिन्दू जनता, करों के बोझ से दब गई थी। गुप्तचर विभाग की मनमानी से भी लोगों में असंतोष बढ़ गया था। सुल्तान के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति को शासन के सम्बन्ध में निर्णय लेने और उसे लागू करने का अधिकार नहीं था। ऐसी व्यवस्था तब तक ही चल सकती थी जब तक कि सुल्तान में उसे चलाने की योग्यता रहे। इन सब कारणों से उसकी व्यवस्था स्थायी नहीं हो सकी और उसके आँखें बन्द करते ही यह व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो गई।
अलाउद्दीन के अन्तिम दिवस
अलाउद्दीन खिलजी के शासन में 1312 ई. से 1316 ई. तक का काल प्रतिक्रिया का काल माना जाता है। 1312 ई. तक अलाउद्दीन के समस्त उद्देश्य पूरे हो चुके थे। साम्राज्य विस्तार का कार्य पूरा हो चुका था। मंगोलों को बुरी तरह परास्त किया जा चुका था। उत्तर भारत में स्थानीय शासन पर भी कब्जा कसा जा चुका था तथा दक्षिण भारत में राजाओं से वार्षिक कर लेना स्वीकार करवाकर उन्हें दिल्ली के अधीन बनाया जा चुका था। 1312 ई. के आते-आते सुल्तान वृद्ध होने लगा। उसके कई विश्वस्त अमीर एवं सेनापति भी मर गये। वृद्धावस्था के कारण सुल्तान की मानसिक स्थिति ठीक न रह गयी थी। राज्य की सैनिक शक्ति 1306 ई. से धीरे-धीरे मलिक काफूर के हाथों में चली गई। 1312 ई. के बाद काफूर का सेना पर पूरा नियंत्रण स्थापित हो गया। यद्यपि शाहजादा खिज्र खाँ सुल्तान का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया था परन्तु उसमें इतने विशाल साम्राज्य को सँभालने की योग्यता नहीं थी। दरबार में दो दल बन गये थे। एक दल शहजादे खिज्र खाँ का था जिसे शहजादे की माँ मलिका-ए-जहाँ संभाल रही थी। शहजादे का मामा अल्ला खाँ उसका सहयोग कर रहा था। दूसरा दल मलिक काफूर का था जिसका सेना के ऊपर प्रभाव था। मलिक काफूर की दृष्टि दिल्ली के तख्त पर थी। अतः वह ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने लगा जिससे सम्पूर्ण राजनैतिक शक्ति उसके हाथ में आ जाये।
काफूर ने राजवंश में फूट पैदा करने के लिये सुल्तान को समझाया कि मलिका-ए-जहाँ, खिज्र खाँ तथा अल्प खाँ, सुल्तान की हत्या करवाने का प्रयत्न कर रहे हैं। अलाउद्दीन खिलजी, मलिक काफूर के कहने में आ गया और उसने अपने पुत्र खिज्र खाँ तथा मुबारक खाँ को ग्वालियर के कारागार में डलवा दिया। सुल्तान ने मलिका-ए-जहाँ को पुरानी दिल्ली में कैद कर लिया। अल्प खाँ की हत्या करवा दी। इससे अमीरों एवं राजघराने में सुल्तान के विरुद्ध अंसतोष की अग्नि और अधिक भड़क गई। इन्हीं परिस्थितियों में 1 जनवरी 1316 को अलाउद्दीन की मृत्यु हो गयी। कुछ इतिहासकारों का मत है कि मलिक काफूर ने अलाउद्दीन खिलजी को विष देकर मार डाला।
अलाउद्दीन का चरित्र तथा उसके कार्यों का मूल्यांकन
(1.) निरक्षर होने पर भी बुद्धि की प्रचुरता: बरनी के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी निरा अशिक्षित व्यक्ति था। यद्यपि सुल्तान निरक्षर था परन्तु उसमें बौद्धिक प्रतिभा पूरी थी। उसे योग्य व्यक्तियों की अद्भुत परख थी जिससे वह योग्य व्यक्तियों की सेवाएँ प्राप्त कर सका था। अलाउद्दीन खिलजी ने कवि टेनिसन के कथन को सिद्ध कर दिया कि ‘केवल वही शासन कर सकता है जो पढ़-लिख नहीं सकते।’
(2.) शुष्क व्यवहार एवं क्रूरता की प्रतिमूर्ति: अलाउद्दीन खिलजी शुष्क स्वभाव का व्यक्ति था। इस कारण वह पारिवारिक प्रेम से सदैव वंचित रहा। यद्यपि उसके हरम में अनेक स्त्रियाँ थीं परन्तु उसकी एक भी स्त्री उसके हृदय पर अधिकार नहीं जमा सकी। अलाउद्दीन खिलजी क्रूरता तथा निर्दयता का साक्षात् स्वरूप था। बरनी का कहना है कि उसने फैरोह से भी अधिक निर्दोष व्यक्तियों का रक्तपात किया। जलालुद्दीन का वध, अपने सम्बन्धियों का हत्याकाण्ड, नए मुसलमानों तथा उनके निर्दोष स्त्री-बच्चों की निर्मम हत्या सुल्तान की क्रूरता के परिचायक हैं।
(3.) बर्बर तथा अत्याचारी: वी. ए. स्मिथ का कथन है- ‘अलाउद्दीन वास्तव में बर्बर अत्याचारी था। उसके हृदय में न्याय के लिये तनिक भी स्थान नहीं था…….. उसका शासन लज्जापूर्ण था।’
(4.) प्रतिशोध की भावना: अलाउद्दीन सन्देहशील व्यक्ति था। उसमें प्रतिशोध की भावना कूट-कूट कर भरी थी। यदि उसे किसी की विश्वसनीयता पर सन्देह हो जाता तो उसके प्राण लिये बिना उसका पीछा नहीं छोड़ता था। वह इतना अकृतज्ञ था कि उसने उन्हीं अमीरों का दमन किया जिनके सहयोग से उसने तख्त प्राप्त किया था।
(5.) खेलों से लगाव: सुल्तान को शिकार करने एवं अन्य प्रकार के खेलों से बड़ा लगाव था। उसे कबूतरों तथा बाजों को उड़ाने का बड़ा चाव था जिन्हें पालने एवं उड़ाने के लिए उसने अपनी सेवा में कई बालकों को नियुक्त कर रखा था।
(6.) इस्लाम में दृढ़ विश्वास: अलाउद्दीन खिलजी निरक्षर होने के कारण कुरान का अध्ययन नहीं कर सकता था, न वह रमजान का व्रत रखता था, न नमाज पढ़ता था और न राज्य के शासन में धर्म का हस्तक्षेप ही होेने देता था परन्तु उसका इस्लाम में दृढ़ विश्वास था। वह कभी किसी को अधार्मिक बात नहीं करने देता था। उसकी कठोर नीतियों के कारण बहुसंख्यक हिन्दुओं पर भारी कुठाराघात हुआ।
(7.) सूफी सन्तों के प्रति श्रद्धा: अलाउद्दीन खिलजी की सूफी सन्त निजामुद्दीन औलिया के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। राजवंश के लगभग समस्त सदस्य निजामुद्दीन औलिया के शिष्य बन गए थे।
(8.) महत्वाकांक्षी: अलाउद्दीन अत्यंत महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह सिकन्दर की भांति विश्व विजय करने की कामना रखता था। वह एक नया धर्म भी चलाना चाहता था। काजी अलाउल्मुल्क के समझाने पर उसने उसने इन दोनों योजनाओं को छोड़ दिया तथा सम्पूर्ण भारत विजय की महत्वाकांक्षी योजना तैयार की।
(9.) व्यावहारिक बुद्धि: यद्यपि अलाउद्दीन अत्यंत महत्वाकांक्षी था तथापि उसमें व्यावहारिक बुद्धि थी। हठधर्मी होते हुए भी वह अपने शुभचिन्तकों के परामर्श को स्वीकार कर लेता था। वह वास्तविकता का सदैव ध्यान रखता था और कूटनीति से काम लेता था। किसी भी योजना को कार्यान्वित करने से पूर्व उसकी अच्छी तरह तैयारी करता था। अलाउद्दीन साम्राज्य विस्तार का इच्छुक था किंतु उसने दक्षिण भारत के राजाओें पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त उन्हें मुस्लिम गवर्नरों को न सौंपकर उन्हीं राजाओं को करद बनाकर सौंप दिया था। इससे उसकी व्यावहारिक बुद्धि का परिचय मिलता है।
(10.) कुशल सेनापति: कुछ इतिहासकार अलाउद्दीन की सामरिक विजयों का श्रेय उसके सेनापतियों को देते हैं परन्तु यह निष्कर्ष उचित नहीं है। जलालुद्दीन खिलजी के शासन काल में अलाउद्दीन ने कई बड़ी विजयें प्राप्त कीं जिनसे वह सेना में लोकप्रिय हो गया। उसने मलिक छज्जू के विद्रोह का दमन किया और भिलसा तथा देवगिरि को जीतकर अपने सैनिक गुणों का परिचय दिया। तख्त पर बैठने के उपरान्त भी उसने चित्तौड़ युद्ध सहित कई युद्धों में स्वयं भाग लिया। सुल्तान ने विजय का कार्य अपने सेनापतियों को इसलिए सौंप दिया था कि मंगोलों के आक्रमण एवं अमीरों की षड़यंत्रकारी प्रवृत्ति के कारण वह राजधानी से दूर नहीं जाना चाहता था।
(11.) लक्ष्य पूर्ति के लिये अनैतिक साधनों का प्रयोग: अलाउद्दीन खिलजी अपने लक्ष्य को सदैव सर्वोपरि रखता था और उसकी पूर्ति के लिये वह नैतिक तथा अनैतिक समस्त प्रकार के साधनों का प्रयोग करने के लिये उद्यत रहता था।
(12.) स्वेच्छाचारिता: अलाउद्दीन अत्यंत स्वेच्छाचारी तथा निंरकुश शासक था फिर भी विश्वसनीय परामर्शदाताओं के सुझाव को स्वीकार कर लेता था। उसने काजी अलाउल्मुल्क के परामर्श पर विश्व विजय करने और नया धर्म चलाने का निश्चय त्याग दिया। मलिक काफूर के परामर्श पर उसने अपने पुत्रों को बंदी बना लिया परन्तु जब वह किसी कार्य को करने का निश्चय कर लेता था तब वह किसी की भी नहीं सुनता था। उसके द्वारा किया गया बाजार नियंत्रण उसकी स्वेच्छाचारिता का सबसे बड़ा उदाहरण है।
(13.) कुशल शासक: अलाउद्दीन न केवल एक महान् विजेता, वरन् एक कुशल शासक भी था। उसमें अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की योजनाएं बनाने की शक्ति थी। सैनिकों की प्रत्यक्ष रूप से भर्ती करना, उन्हें नकद वेतन देने की व्यवस्था करना, सैनिकों को हुलिया लिखवाना तथा उनके घोड़ों को दाग लगवाने का विधान बनाना, बाजारों का नियंत्रण तथा वस्तुओं की मांग एवम् आपूर्ति की समुचित व्यवस्था करना, इस बात के द्योतक हैं कि वह एक कुशल शासक था।
(14.) पथ-प्रदर्शक: अलाउद्दीन में अपने अमीरों, सेनापतियों एवं राज्याधिकारियों का पथ प्रदर्शन करने एवं उन्हें नई दिशा देने की प्रतिभा थी। उसके द्वारा किये गये अधिकांश सेना सम्बन्धी सुधारों तथा भूमि-सम्बन्धी सुधारों का अनुसरण आगे चलकर शेरशाह सूरी तथा अकबर दोनों ने किया था।
(15.) इस्लामी विद्वानों का प्रश्रयदाता: यद्यपि अलाउद्दीन स्वयं शिक्षित नहीं था परन्तु वह इस्लामिक विद्वानों का आदर करता था और उन्हें प्रश्रय देता था। अमीर खुसरो तथा हसन उसके समय के बहुत बड़े विद्वान थे। अलाउद्दीन उन्हें बहुत आदर देता था। बहुसंख्य हिन्दू विद्वानों के प्रति उसे कोई लगाव नहीं था।
(16.) स्थापत्य एवं निर्माण से लगाव: आलाउद्दीन को स्थापत्य कला से प्रेम था। उसने बहुत से दुर्गों का निर्माण करवाया जिसमें अलाई का दुर्ग सबसे अधिक प्रसिद्ध था। उसने बहुत सी भग्न मस्जिदों का भी जीर्णोद्धार करवाया। 1311 ई. में उसने कुतुब मस्जिद को विस्तृत करने और सहन में एक नयी मीनार बनवाने का कार्य आरम्भ करवाया। उसने एक बड़े दरवाजे का भी निर्माण करवाया।
(17.) सुल्तान की सफलता: दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन का नाम महत्वपूर्ण है। जिस समय वह तख्त पर बैठा था, उस समय दिल्ली सल्तनत की स्थिति बड़ी डावांडोल थी। मंगोलों के आक्रमण का सदैव भय लगा रहता था, आन्तरिक विद्रोह की सदैव सम्भावना बनी रहती थी, अमीर सदैव अवज्ञा करने को उद्यत रहते थे और अधिकांश जनता असन्तुष्ट थी। इस प्रकार तख्त पर बैठने के समय अलाउद्दीन की स्थिति संकटापन्न थी परन्तु उसने धैर्य तथा साहस से संकटों का सामना किया और 1296 ई. से लेकर 1320 ई. तक पूरे 24 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन किया।
दिल्ली सल्तनत के इतिहास में अलाउद्दीन खिलजी का स्थान
कई इतिहासकारों की दृष्टि में अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के सुल्तानों में सर्वश्रेष्ठ सुल्तान था किंतु कई अन्य इतिहासकार इस बात से सहमत नहीं हैं। स्मिथ ने उसके शासन को सर्वथा गौरवहीन बताते हुए लिखा है कि वह वास्तव में बड़ा ही बर्बर तथा क्रूर शासक था और न्याय का बहुत कम ध्यान रखता था। इसके विपरीत एल्फिन्स्टन के विचार में अलाउद्दीन का शासन बड़ा ही गौरवपूर्ण था।
अलाउद्दीन खिलजी: दिल्ली सल्तनत का सर्वश्रेष्ठ सुल्तान
जो विद्वान अलाउद्दीन को दिल्ली सल्तनत का सर्वश्रेष्ठ सुल्तान मानते हैं वे अपने मत के अनुमोदन में निम्नलिखित तर्क उपस्थित करते हैं-
(1.) उच्चकोटि का सेनानायक: अलाउद्दीन एक वीर सैनिक तथा कुशल सेनानायक था। वह महत्वाकांक्षी, साहसी, दृढ़प्रतिज्ञ तथा प्रतिभावान शासक था। दिल्ली के सुल्तानों में कोई भी ऐसा नहीं है जौ सैनिक दृष्टिकोण से उसकी समता कर सके। सुल्तान में ईश्वर प्रदत्त ऐसे गुण थे कि जो भी लोग उसकी अधीनता में कार्य करते थे, वे उसके अनुगामी हो जाते थे और सदैव सुल्तान के हित-साधन में संलग्न रहते थे।
(2.) भारत में तुर्क साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक: यद्यपि अलाउद्दीन के पूर्ववर्ती तुर्क सुल्तानों ने भी भारत विजय का कार्य किया था परन्तु सम्पूर्ण भारत में तुर्क साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक अलाउद्दीन खिलजी ही था। उसने अपनी महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित होकर साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और एक अत्यन्त विशाल साम्राज्य की स्थापना की। साम्राज्य संस्थापक के रूप में अलाउद्दीन ने दो बड़े कार्य किये थे। पहला कार्य दक्षिण भारत की विजय और दूसरा कार्य पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था। अलाउद्दीन के केवल ये दो कार्य ही उसे दिल्ली के सुल्तानों में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्रदान करने के लिए पर्याप्त हैं।
(3.) शान्ति तथा सुव्यवस्था का शासन काल: अलाउद्दीन ने लगभग बीस वर्ष तक अत्यन्त सफलतापूर्वक शासन किया था। उसके सम्पूर्ण शासन काल में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित रही। राज्य में चोरी, डकैती तथा लूटमार नहीं होती थी। उसका दण्ड विधान इतना कठोर था कि लोगों को अपराध करने तथा झगड़ा करने का साहस नहीं होता था।
(4.) मौलिक तथा रचनात्मक प्रतिभा: अलाउद्दीन में उच्च कोटि की मौलिकता थी। उसके पूर्ववर्ती सुल्तानों ने जो संस्थाएं स्थापित की थीं, अलाउद्दीन उनसे संन्तुष्ट नहीं रहा और उसने उनमें कई बड़े परिवर्तन किये। उसने अपने उद्देश्यों की पूर्ति एवं राज्य कल्याण के लिये नई संस्थाओं की भी स्थापना की। स्थायी सेना की व्यवस्था, भूमि सम्बधी नियमों का निर्माण, बाजारों का प्रबंधन, दक्षिण भारत की विजय आदि ऐसे कार्य थे जो तब तक केवल अलाउद्दीन ने ही किये थे।
(5.) राजनीतिक एकता की स्थापना: अलाउद्दीन दिल्ली का प्रथम सुल्तान था जिसने सम्पूर्ण उत्तरी भारत तथा दक्षिण पर अपनी सत्ता स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार दिल्ली के सुल्तानों में सर्वप्रथम उसी ने राजनीतिक एकता स्थापित की थी। उसने प्रान्तीय शासन को केन्द्रीय शासन के अनुशासन तथा नियंन्त्रण में लाकर शासन में भी एकरूपता स्थापित की।
(6.) लौकिक राज्य की स्थापना: बलबन के बाद अलाउद्दीन दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने राजनीति को धर्म से अलग करने का प्रयास किया। उसने उलेमाओं को राजनीतिक मामलों और राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करने से अलग कर दिया।
(7.) पथ-प्रदर्शन का कार्य: अलाउद्दीन की शासन-व्यवस्था का महत्व इस बात से प्रकट होता है कि शेरशाह सूरी तथा अकबर ने भी अपनी शासन व्यवस्था में उसके सिद्धांतों का समावेश किया।
(8.) साहित्य तथा स्थापत्य को प्रश्रय: अलाउद्दीन स्वयं शिक्षित नहीं था परन्तु वह साहित्य तथा स्थापत्य कला का आश्रयदाता था। उसके दरबार में कई उच्च कोटि के कवि तथा साहित्यकार रहते थे जिनमें अमीर खुसरो तथा अमीर हसन उल्लेखनीय हैं। अलाउद्दीन ने अलाई दरवाजे का निर्माण करवाया जो उस काल के भवनों में भव्य तथा सुन्दर है। उसने बहुत से दुर्गों, मस्जिदों तथा राज्य प्रासादों का भी निर्माण करवाया।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन को सर्वोत्कृष्ट स्थान प्राप्त होना चाहिए।
अलाउद्दीन खिलजी: दिल्ली सल्तनत का सर्वश्रेष्ठ सुल्तान नहीं
जो इतिहासकार अलाउद्दीन खिलजी को दिल्ली के सुल्तानों में सर्वश्रेष्ठ नहीं मानते, वे अपने मत के अनुमोदन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं-
(1.) अस्थायी कार्य: अलाउद्दीन ने कोई ऐसा कार्य नहीं किया जो स्थायी हो सका। अलाउद्दीन के समकालीन शेख वशीर दीवाना ने लिखा है- ‘अलाउद्दीन के राज्य की कोई स्थायी नींव नहीं थी और खिलजी वंश के विनाश का कारण अलाउद्दीन के शासन की स्वाभाविक दुर्बलता थी।’
(2.) एक व्यक्ति का शासन: सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘स्वेच्छाचारी शासन स्वभावतः अनिश्चित तथा अस्थायी होता है।’ अलाउद्दीन का शासन भी स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था। राज्य की सारी शक्तियां केवल सुल्तान में केन्द्रीभूत थीं। इसलिये अलाउद्दीन का शासन अच्छा नहीं माना जा सकता और न ही उसे दिल्ली सल्तनत का सबसे महान सुल्तान माना जा सकता है।
(3.) सैनिक शक्ति पर आधारित शासन: अलाउद्दीन ने अपनी सेना के बल पर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी और सेना के बल पर ही बीस साल तक उस पर शासन किया था। जिस सुल्तान का शासन जनता की इच्छा पर आधारित नहीं होकर सैनिक शक्ति द्वारा चलाया जाये, उसे महान सुल्तान नहीं माना जा सकता।
(4.) क्रूर तथा निर्दयी शासन: अलाउद्दीन का शासन बड़ा ही क्रूर तथा निर्दयी था। वह बर्बरता तथा नृशंसता के साथ लोगों को दण्ड देता था। साधारण अपराधों के लिये भी अंग-भंग तथा मृत्यु दण्ड दे दिया करता था।
(5.) स्वार्थी तथा दुश्चरित्र: सुल्तान का व्यक्तिगत जीवन बड़ा ही घृणित था। वह स्वाभाविक तथा अस्वाभाविक मैथुन का व्यसनी था। वह बड़ा ही स्वार्थी था और अपने हित के लिए अपने निकटतम सम्बन्धियों एवं राज्याधिकारियों की हत्या करने में लेशमात्र संकोच नहीं करता था।
(6.) हिन्दुओं के साथ घृणित व्यवहार: सुल्तान अपनी हिन्दू प्रजा को घृणा तथा सन्देह की दृष्टि से देखता था तथा उसे सब प्रकार से अपमानित तथा पददलित करने का प्रयत्न करता था। हिन्दुओं को दरिद्र तथा विपन्न बनाना उसकी नीति का एक अंग था ताकि वे कभी भी सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह न कर सकें।
(7.) स्वार्थपूर्ण सुधार: अलाउद्दीन की समस्त सुधार योजनाएं सुल्तान तथा सल्तनत की स्वार्थपूर्ति के उद्देश्य से आरम्भ की गई थीं न कि लोक-कल्याण के लिये। उसकी आर्थिक योजनाओं से केवल उसके सैनिकों को लाभ हुआ, जनसाधारण को नहीं। उसकी योजनाओं से सब लोग असंतुष्ट थे। उसकी सारी योजनाएं युद्धकालीन थी जो शान्ति के शासन के समय के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थीं। फलतः वे समस्त अस्थायी सिद्ध हुईं।
(8.) आवश्यकता से अधिक केन्द्रीभूत शासन: यद्यपि अलाउद्दीन ने ऐसे युग में शासन किया था जब केन्द्रीभूत शासन की आवश्यकता थी परन्तु केन्द्रीभूत शासन की भी कुछ सीमाएं होती हैं। अलाउद्दीन इन सीमाओं का उल्लंघन कर गया। उसने केवल थोड़े से व्यक्तियों की सहायता से शासन करने का प्रयत्न किया था, इसलिये उसका शासन लोकप्रिय न बन सका और जब इन सहायकों की मृत्यु हो गई, तब उसका साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।
(9.) सांस्कृतिक कार्यों की उपेक्षा: अलाउद्दीन में साहित्य तथा कला के संवर्द्धन की प्रवृत्ति नहीं थी। उसका सारा ध्यान सेना को प्रबल बनाने तथा राज्य जीतने की ओर रहा। इसलिये सांस्कृतिक दृष्टि से उसका शासन गौरवहीन था।
(10.) निम्नकोटि के लोगों को प्रोत्साहन: अलाउद्दीन अपने अमीरों को नीचा दिखाने के लिये प्रायः निम्न वर्ग के कम योग्य लोगों को प्रोत्साहन देकर उन्हें उच्च पद दिया करता था जिसका राज्य पर बुरा प्रभाव पड़ा और अन्त में साम्राज्य के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ।
(11.) उत्तराधिकारियों की रक्षा की उपेक्षा: अलाउद्दीन ने अपने पुत्रों को उचित शिक्षा नहीं दिलवाई जो उसके केन्द्रीभूत शासन को चला सकते थे। इसलिये उसके मरते ही उसका साम्राज्य ध्वस्त हो गया। उसने अपने उत्तराधिकारियों की रक्षा करने की बजाय उन्हें कारागृह में बंद कर दिया।
उपर्युक्त तर्कांे आधार पर कहा जाता है कि अलाउद्दीन का शासन सर्वथा गौरवहीन था और दिल्ली के सुल्तानों में उसे सर्वश्रेष्ठ स्थान प्रदान नहीं किया जा सकता।
निष्कर्ष
अलाउद्दीन की दुर्बलताएं उस युगीन प्रभाव के कारण थीं। उसकी विफलताएं अक्षम्य नहीं हैं। जिस युग तथा जिन परिस्थतियों में उसे कार्य करना पड़ा, उसके अनुकूल उसने आचरण किया और जिस लक्ष्य को उसने सामने रखा, उसे पूर्ण कर दिखाया, चाहे वह उच्च स्तर का रहा हो अथवा निम्न स्तर का। इसलिये उसकी गिनती दिल्ली सल्तनत के सर्वश्रेष्ठ सुल्तानों में होनी चाहिए। उसके पूर्ववर्ती सुल्तानों में केवल इल्तुतमिश तथा बलबन ही उसकी स्पर्धा कर सकते हैं परन्तु विजेता तथा शासक दोनों ही रूपों में वे न्यूनतर ठहरते हैं। अलाउद्दीन के पश्चवर्ती सुल्तानों में मुहम्मद बिन तुगलक ही उसकी समानता का दावा कर सकता है परन्तु जहाँ अलाउद्दीन को अपने समस्त उद्देश्यों में सफलता मिली, वहीं मुहम्मद बिन तुगलक को अपने समस्त उद्देश्यों में असफलता मिली। यदि केवल एक बिंदु को छोड़ दिया जाये कि उसने बहुसंख्य हिन्दू प्रजा पर भयानक अत्याचार किये तो दिल्ली के सुल्तानों तथा मध्यकाल के इतिहास में अलाउद्दीन को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्रदान किया जाना चाहिए।