ब्रिटिश-भारत में साम्प्रदायिक राजनीति ब्रिटिश भारत में साम्प्रदायिक राजनीति की शुरुआत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय से ही हो गई थी। जैसे-जैसे गोरों का शासन आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे भारत में साम्प्रदायिक राजनीति भी गाढ़ी होती चली गई। यहाँ तक कि यह न केवल देश के विभाजन का अपितु हिन्दू संस्कृतिं के विनाश का मुख्य कारण बन गई।
ब्रिटिश-भारत और रियासती-भारत
ब्रिटिश-भारत में साम्प्रदायिक राजनीति का इतिहास जानने से पहले हमें यूरोपीय जातियों के भारत में आगमन का इतिहास जानना होगा। ई.1498 में पहली बार पुर्तगाली व्यापारी वास्कोडिगामा के नेतृत्व में भारत आए। इन व्यापारियों ने भारत से इतना धन कमाया कि यूरोप के अन्य देश भी भारत आने के लिए लालायित हो उठे।
पुर्तगालियों के बाद हॉलैण्ड (नीदरलैण्ड) से डच, इंग्लैण्ड से अंग्रेज और फ्रांस से फ्रांसीसी व्यापारी भारत आए। डचों की गतिविधियां व्यापार करने तथा व्यापार के लिए कुछ भू-भागों पर अधिकार करने तक सीमित रहीं।
जब इंग्लैण्ड की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ई.1608 में भारत में प्रवेश किया तब इंग्लैण्ड पर महारानी एलिजाबेथ (प्रथम) का तथा भारत पर मुगल बादशाह जहाँगीर का शासन था। ई.1615 में अंग्रेजों का दूत सर टामस रो जहाँगीर के दरबार में उपस्थित हुआ तथा उसने कम्पनी के लिए कुछ व्यापारिक सुविधाएं प्राप्त कीं। ई.1644 में फ्रांसीसी व्यापारी भारत आए। इससे अंग्रेजों एवं फ्रांसीसियों के बीच भारत में व्यापारिक एवं राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता आरम्भ हो गयी किंतु ई.1760 में वैण्डीवाश के युद्ध के बाद भारत में फ्रैंच शक्ति परास्त हो गई।
ब्रिटिश-भारत का निर्माण
ई.1765 में बक्सर के मैदान में अंग्रेजों एवं मुगल बादशाह के बीच एक युद्ध लड़ा गया जिसमें मुगल बादशाह शाहआलम हार गया। इसके बाद मुगल बादशाह एवं अंग्रेजों के बीच एक संधि हुई जिसे इलाहाबाद की संधि कहा जाता है। इस संधि के बाद मुगल बादशाह को पेंशन देकर शासन के काम से अलग कर दिया गया तथा उसके क्षेत्रों पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दीवानी एवं फौजदारी अधिकार प्राप्त हो गए। अर्थात् अंग्रेज उत्तर-भारत के हरे-भरे मैदानों के प्रत्यक्ष स्वामी बन गए।
कम्पनी द्वारा समय-समय पर जीते गए पूर्वी भारत का असम एवं बंगाल, दक्षिण भारत का मद्रास, पश्चिमी भारत का बम्बई तथा उत्तर-पश्चिम के बिलोचिस्तान एवं सिंध आदि क्षेत्र भी अंग्रेजों के प्रत्यक्ष नियंत्रण में थे जिन्हें मुगलों से लिए गए क्षेत्रों के साथ मिलाकर ब्रिटिश-भारत का निर्माण किया गया।
अंग्रेजों ने ब्रिटिश-भारत को 11 प्रांतों में बांटा जिनमें अलग-अलग गवर्नरों की नियुक्ति की गई- (1) बंगाल, (2) पंजाब, (3) सिंध, (4) उड़ीसा, (5) असम, (6) मद्रास, (7) बम्बई, (8) यूनाइटेड प्रोविंस, (9) बिहार, (10) सेण्ट्रल प्रोविन्स, (11) नॉर्थ-वेस्ट फ्रण्टीयर प्रोविन्स। इन ग्यारह प्रांतों के अतिरिक्त अंग्रेजों ने भारत में छः चीफ-कमिश्नरेट भी स्थापित कीं जिनके नाम इस प्रकार थे- (1) अजमेर-मेरवाड़ा, (2) अण्डमान एण्ड निकोबार आइलैण्ड्स, (3) बिलोचिस्तान, (4) कुर्ग, (5) दिल्ली, (6) पांठ-पीपलोदा।
ई.1769 में कम्पनी ने ब्रिटिश-प्रांतों में जिलों का गठन करके कलक्टरों की नियुक्ति की तथा जनता को बंदूक से चलने वाले कठोर शासन में जकड़ लिया। ई.1773 में रेग्यूलेटिंग एक्ट के माध्यम से भारत में गवर्नर जनरल की नियुक्ति की गई तथा कम्पनी को ब्रिटिश सम्राट के अधीन कर दिया गया। भारत के गवर्नर जनरल पर नियत्रंण रखने के लिए चार सदस्यों की एक एक्जीक्यूटिव काउंसिल गठित की गई।
इस प्रकार भारत में एक ऐसी संस्था की स्थापना की गई जो शीघ्र ही न केवल भारत सरकार कहलाने वाली थी अपितु बिलोचिस्तान से लेकर असम तथा काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के क्षेत्र में रहने वाले करोड़ों भारतीयों के जीवन पर शिकंजा जकड़ने में सक्षम सिद्ध होने वाली थी।
इलाहाबाद की संधि के बाद मुगल-शासित उत्तर भारत में तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सत्ता स्थापित हो गई किंतु मध्य भारत, राजपूताना, मराठवाड़ा, कर्नाटक, हैदराबाद आदि क्षेत्र असंरक्षित रह गए। इसे रियासती भारत कहा जाता था। रियासती-भारत में लगभग 550-600 देशी रियासतें थीं जिनकी संख्या घटती-बढ़ती रहती थी। भारत की आजादी के समय देश में 118 सैल्यूट स्टेट्स एवं 448 नॉन सैल्यूट स्टेट्स थीं।
जब अंग्रेजों ने मुगलों को सत्ता से बाहर कर दिया तब उनके सैनिक बेरोजगार होकर डकैत बन गए जिन्हें भारतीय इतिहास में पिण्डारी कहा गया। इसी प्रकार दक्षिण भारत में मराठों ने अपनी शक्ति का प्रसार कर लिया तथा वे नर्मदा नदी को पार करके राजपूताना, दिल्ली एवं पंजाब तक धाड़े मारते थे। कुछ समय बाद मराठों एवं पिण्डारियों में गठजोड़ हो गया तथा उनकी संयुक्त सेनाओं ने सम्पूर्ण 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में उत्तर भारत के देशी राज्यों एवं अंग्रेजी क्षेत्रों में हाहाकार मचा दिया।
इस पर ई.1817-1818 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारतीय राज्यों से सहायता की अधीनस्थ संधियां करके उन्हें संरक्षण प्रदान किया जिसके कारण देशी राज्यों के रक्षा एवं वैदेशिक मामलों का दायित्व ईस्ट-इण्डिया कम्पनी के पास चला गया और देशी राजा अपने राज्यों का आंतरिक प्रशासन करने तक सीमित हो गए।
ई.1857 में जब ब्रिटिश-भारत एवं राजपूताना रियासतों में सशस्त्र सैनिक क्रांति हुई तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस क्रांति को बलपूर्वक कुचल दिया किंतु ब्रिटेन के लोगों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध आवाजें उठानी शुरू कीं जिससे प्रेरित होकर ई.1858 में ग्रेट-ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की सरकार ने ‘ब्रिटिश-भारत’ का शासन अपने हाथों में ले लिया। इसके साथ ही, ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने राजपूताना की रियासतों सहित देश की 40 प्रमुख रियासतों से जो ‘सहायता की अधीनस्थ संधियां’ कर रखी थीं वे भी ज्यों की त्यों ब्रिटिश क्राउन को स्थानांतरित हो गईं।
इस प्रकार ब्रिटिश-क्राउन के अधीन भारत के दो टुकड़े थे। पहला टुकड़ा ‘प्रत्यक्ष-ब्रिटिश-शासित-क्षेत्र‘ था जिसे ‘ब्रिटिश-इण्डिया’ अथवा ‘आंग्ल-भारत’ कहा जाता था। दूसरा टुकड़ा ‘देशी-राजाओं द्वारा शासित क्षेत्र’ था जिसे ‘इण्डियन-इण्डिया’ अथवा ‘रियासती-भारत’ कहा जाता था।
ब्रिटिश-क्राउन भारत के पहले टुकड़े पर गवर्नर जनरल के माध्यम से शासन करता था तो दूसरे टुकड़े पर वायसराय के माध्यम से शासन किया जाता था। व्यावहारिक रूप में इन दोनों पदों को एक ही व्यक्ति संभालता था। वायसराय के नीचे एक काउंसिल गठित की गई जिसके सदस्य वायसराय द्वारा मनोनीत किए जाते थे। ईस्वी 1858 के आगे भी यही व्यवस्था चलती रही। ब्रिटिश संसद ने इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं किया।
अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दृष्टिकोण
ब्रिटिश जाति स्वयं को उच्च एवं भारतीयों को नीच जाति के रूप में देखती थी। लैरी कांलिन्स एवं दॉमिनिक लैपियर ने लिखा है-
‘अंग्रेजों के मन में यह विश्वास जमता गया कि गोरी अंग्रेज जाति श्रेष्ठ और ऊंची है। काले भारतीय नीच और मूर्ख हैं। उन पर शासन करने की जिम्मेदारी ईश्वर नामक रहस्यमय शक्ति ने अंग्रेजों के ही कंधों पर रखी है। अंग्रेज वह जाति है जो केवल जीतने एवं शासन करने के लिए पैदा होती है।
….. भारतीयों पर शासन चलाने के लिए अंग्रेजों ने इण्डियन सिविल सर्विस की स्थापना की जिसमें 2000 अंग्रेज अधिकारी नियुक्त हुए। 10,000 अंग्रेज अधिकारियों को भारतीय सेना सौंप दी गई। तीस करोड़ की जनसंख्या को अनुशासन में रखने के लिए साठ हजार अंग्रेज सिपाही आ धमके। उनके अतिरिक्त दो लाख भारतीय सिपाही भारतीय सेना में थे ही।’
ब्रिटिश-भारत में साम्प्रदायिक राजनीति का आधार
हिन्दू एवं मुसलमान पिछले लगभग सात सौ सालों से पूरे देश में फैले हुए थे तथा इनके बीच हर जगह लगभग एक जैसी साम्प्रदायिक समस्या थी। ई.1858 से पहले तक अंग्रेज भारतीय मुसलमानों एवं हिन्दुओं के झगड़ों को बलपूर्वक दबाते थे किंतु जैसे ही भारत की आजादी की लड़ाई आरम्भ हुई वैसे ही अंग्रेजों ने भारत की साम्प्रदायिक समस्या को अपनी ढाल के रूप में प्रयुक्त करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने हिन्दुओं एवं मुसलमानों को राजनीतिक स्तर पर उकसाना प्रारम्भ किया। अंग्रेज चाहते थे कि ये दोनों जातियां परस्पर झगड़ती रहें तथा अपने लिए आजादी की मांग नहीं करें।
अंग्रेजों की शह पाकर कुछ मुसलमान नेताओं ने साम्प्रदायिकता को ही अपनी राजनीति का आधार बना लिया। उनके विरोध में हिन्दू-प्रतिरोध ने भी सिर उठाया और देखते ही देखते ब्रिटिश-भारत में साम्प्रदायिकता ही राजनीति का एकमात्र आधार हो गई।
अंग्रेजों ने देश में साम्प्रदायिकता की आग तो लगा दी किंतु उन्हें मालूम नहीं था कि इस आग की लपटें इतनी ऊँची उठेंगी कि मुसलमान अपने लिए एक अलग राष्ट्र की मांग करने लगेंगे तथा अंग्रेजों के लिए इस देश पर शासन करना असम्भव हो जाएगा। आगे चलकर ब्रिटिश-भारत में साम्प्रदायिक राजनीति ही अंग्रेजों के सर्वनाश का कारण बनी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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