Thursday, November 21, 2024
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मुस्लिम लीग का षड़यंत्र

कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने वायसराय के आमंत्रण पर अंतरिम सरकार में शामिल होना स्वीकार किया किंतु बाद में मुस्लिम लीग सरकार में शामिल नहीं हुई। जब नेहरू की अंतरिम सरकार जोरदार चलने लगी तो जिन्ना को होश आया। उसने सरकार में शामिल होकर सरकार को ठप्प करने का निश्चय किया इसके साथ ही मुस्लिम लीग का षड़यंत्र आरम्भ हो गया।

वीरेन्द्र कुमार बरनवाल ने लिखा है- ‘अंतरिम सरकार में लीग की भागीदारी वस्तुतः जिन्ना की गृहयुद्ध की रणनीति का एक अत्यंत महत्वपूर्ण मंच पर विस्तार था।’

जब मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार में सम्मिलित हुई तो वायसराय लॉर्ड वैवेल ने कांग्रेस को सलाह दी कि वित्त मंत्रालय कांग्रेस के पास रहे तथा सरदार पटेल उसके मंत्री बनें। क्योंकि सरकार चलाने के लिये उन्हें कदम-कदम पर इस मंत्रालय की आवश्यकता होगी।

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पटेल तब तक जिन्ना तथा उसकी मुस्लिम लीग को अच्छी तरह समझ चुके थे कि यह मुस्लिम लीग का षड़यंत्र है इसलिये उन्होंने मुस्लिम लीग को वित्त मंत्रालय देना बेहतर समझा ताकि गृह मंत्रालय और रियासती मंत्रालय अपने पास रख सकें तथा इन मंत्रालयों का उपयोग आजादी के समय देशी रजवाड़ों को भारत में ही बनाये रखने में किया जा सके। मुस्लिम लीग के नेता लियाकत अली खाँ को अंतरिम सरकार में वित्तमंत्री बनाया गया किंतु लियाकत अली खाँ वित्त मंत्रालय मिलने से खुश नहीं था। वह अपने लिये गृह मंत्रालय चाहता था।

चौधरी मोहम्मद अली ने, लियाकत अली को समझाया कि यह पद अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस मंत्रालय के माध्यम से भी मुस्लिम लीग का षड़यंत्र बहुत अच्छी तरह सफल हो सकता है। वह ऐसा बजट बनाये कि कांग्रेस की सहायता करने वाले करोड़पतियों का दम निकल जाये। कांग्रेस अपने आप बिलबिला जाएगी।

चौधरी मोहम्मद अली भारतीय अंकेक्षण और लेखा सेवा का अधिकारी था। उसने लंदन से अर्थशास्त्र तथा विधि में शिक्षा प्राप्त की थी। चौधरी के सुझाव पर लियाकत अली ने वित्तमंत्री बनने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और खर्चे के मदों पर आपत्ति उठाने लगा। ऐसा करके मुस्लिम लीग, सरकार में होते हुए भी सरकार को ठप्प कर देना चाहती थी।

मौलाना अबुल कलाम आजाद ने लिखा है- ‘मंत्रिमण्डल के मुस्लिम लीगी सदस्य प्रत्येक कदम पर सरकार के कार्र्यों में बाधा डालते थे। वे सरकार में थे और फिर भी सरकार के खिलाफ थे। वास्तव में वे इस स्थिति में थे कि हमारे प्रत्येक कदम को ध्वस्त कर सकें। लियाकतअली खाँ ने जो प्रथम बजट प्रस्तुत किया, वह कांग्रेस के लिये नया झटका था। कांग्रेस की घोषित नीति थी कि आर्थिक असमानताओं को समाप्त किया जाये और पूंजीवादी समाज के स्थान पर शनैः शनैः समाजवादी पद्धति अपनायी जाये।

जवाहरलाल नेहरू और मैं भी युद्धकाल में व्यापारियों और उद्योगपतियों द्वारा कमाये जा रहे मुनाफे पर कई बार बोल चुके थे। यह भी सबको पता था कि इस आय का बहुत सा हिस्सा आयकर से छुपा लिया जाता था। आयकर वसूली के लिये भारत सरकार द्वारा सख्त कदम उठाये जाने की आवश्यकता थी। लियाकत अली ने जो बजट प्रस्तुत किया उसमें उद्योग और व्यापार पर इतने भारी कर लगाये कि उद्योगपति और व्यापारी त्राहि-त्राहि करने लगे।

इससे न केवल कांग्रेस को अपितु देश के व्यापार और उद्योग को स्थाई रूप से भारी क्षति पहुंचती। लियाकत अली ने बजट भाषण में एक आयोग बैठाने का प्रस्ताव किया जो उद्योगपतियों और व्यापारियों पर आयकर न चुकाने के आरोपों की जांच करे और पुराने आयकर की वसूली करे। उसने घोषणा की कि ये प्रस्ताव कांग्रेसी घोषणा पत्र के आधार पर तैयार किये गये हैं।

कांग्रेसी नेता उद्योगपतियों और व्यापारियों के पक्ष में खुले रूप में कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थे। लियाकत अली ने बहुत चालाकी से काम लिया था। उसने मंत्रिमण्डल की स्वीकृति पहले ही प्राप्त कर ली थी कि बजट साम्यवादी नीतियों पर आधारित हो। उसने करों आदि के विषय में मंत्रिमण्डल को कोई विस्तृत सूचना नहीं दी थी। जब उसने बजट प्रस्तुत किया तो कांग्रेसी नेता भौंचक्के रह गये। राजगोपालाचारी और सरदार पटेल ने अत्यंत आक्रोश से इस बजट का विरोध किया।’

वित्तमंत्री की हैसियत से लियाकत अली खाँ को सरकार के प्रत्येक विभाग में दखल देने का अधिकार मिल गया। वह प्रत्येक प्रस्ताव को या तो अस्वीकार कर देता था या फिर उसमें बदलाव कर देता था। उसने अपने कार्यकलापों से मंत्रिमण्डल को पंगु बना दिया। मंत्रिगण लियाकत अली खाँ की अनुमति के बिना एक चपरासी भी नहीं रख सकते थे।

लियाकत अली खाँ ने कांग्रेसी मंत्रियों को ऐसी उलझन में डाला कि वे कर्तव्यविमूढ़ हो गये। घनश्यामदास बिड़ला ने गांधीजी और जिन्ना के बीच खाई पाटने के उद्देश्य से लियाकत अली खाँ को समझाने की बहुत चेष्टा की किंतु इसका कोई परिणाम नहीं निकला। अंत में कांग्रेस के अनुरोध पर वायसराय ने लियाकत अली खाँ से बात की और करों की दरें काफी कम करवाईं।

कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच बढ़ती जा रही कड़वाहट को दूर करने के लिए 3-6 दिसम्बर 1946 को लंदन में एक सम्मेलन बुलाया गया जिसमें ब्रिटिश प्रधानमंत्री मि. एटली, वायसरॉय लॉर्ड वैवेल, कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू, मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मुहम्मद अली जिन्ना ने भाग लिया।

यह सम्मेलन भी कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के मतभेदों को दूर करने में असमर्थ रहा। इस सम्मेलन में ब्रिटिश सरकार को भारत का भविष्य पूरी तरह से दिखाई दे गया। ब्रिटिश सरकार ने स्पष्ट संकेत कर दिया कि अब वह भारत के बंटवारे की तरफ बढ़ेगी। मुस्लिम लीग का षड़यंत्र हर हाल में सफल होना ही था!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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