Thursday, November 21, 2024
spot_img

20. आर्य सुरथ का चिंतन

दिन भर के संग्राम के पश्चात् जहाँ अन्य आर्य गाढ़ी निद्रा में सोये हुए हैं, गोप सुरथ को नींद नहीं आ रही। आज के अग्निहोत्र में असुरों ने अचानक आक्रमण कर विध्वंस मचाया। जाने कहाँ से वे अकस्मात् प्रकट हुए और अग्निहोत्र में पशुओं का रक्त डाल कर अट्टहास करने लगे। आज से पहले तक असुर छिपकर ही आर्यों को हानि पहुँचाते रहे हैं। आर्य सुरथ की स्मृति में यह पहला अवसर था जब रक्त पिपासु असुरों का दल आर्यवीरों के भय की चिंता न करके जन तक चला आया था। इस दुःसाहस का क्या अर्थ है ? क्या उनकी संख्या और बल इतने बढ़ गये है कि अब उन्हें आर्यों से सम्मुख युद्ध करने में भी संकोच नहीं होता।

गोप सुरथ के मस्तिष्क में विचारों की आँधी सी उमड़ रही है। असुरों के बढ़ते दुःसाहस और शत्रु-भाव को लेकर चिंतित हैं वे। कैसे किया जाये इनका दमन ? इनके कारण किसी समय जन पर बड़ा संकट आ सकता है।

जब एक बार वैमनस्य उत्पन्न हो जाता है तो उसे समाप्त करना प्रायः संभव नहीं होता। एक ही प्रजापति की संतान होने के उपरांत भी दुष्ट असुर, देव प्रजा से अकारण वैमनस्य रखते थे। जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया देवों और असुरों का यह वैर पुष्ट होता गया जिसके कारण सहस्रों वर्षों तक देवासुर संग्राम चलते रहे। इन संग्रामों के कारण असुरों को भले ही कुछ लाभ नहीं हुआ किंतु देव प्रजा का बल निरंतर क्षीण होता रहा।

इतिहास के कई प्राचीन पृष्ठ खुल रहे हैं गोप सुरथ के विचारों में। प्रजा को संत्रास देने के लिये जब असुर वृत्र ने वरुण को बांध लिया तो प्रजा की रक्षा के लिये इन्द्र ने वृत्र को मारकर वरुण को असुरों के प्रभाव से मुक्त करवाया और उसे देवत्व प्रदान दिया। तब देवों ने भी पुरानी बातों को भूलकर वरुण को अपना मित्र घोषित किया था किंतु वरुण पुत्र ‘बल’ और वरुण पुत्री वारुणि [1] ने देवों से वैमनस्य समाप्त नहीं किया। बल और वारुणि के प्रभाव से असुरों का अधर्म और भी बढ़ गया।

महा-जलप्लावन के बाद जब देव प्रजा अपने सम्पूर्ण बल और वैभव के साथ समाप्त हो गयी तब मृत्यु के मुख में जाने से शेष रहे वैवस्वत मनु ने प्रजापति बनकर मनुष्य समाज का निर्माण किया। कम से कम तब तो असुरों को अपना वैरभाव और दुराचरण त्याग देने चाहिये थे। देव नहीं रहे हैं किंतु उनके अंशों से उत्पन्न मनुष्यों से भी असुरों ने उसी प्रकार का शत्रु भाव बनाये रखा है। वे अकस्मात् आक्रमण करके गौओं का वध कर देते हैं। सोम उजाड़ देते हैं। स्त्रियों और बालकों को उठा ले जाते हैं और उनकी बलि चढ़ा देते हैं। उन्हीं के कारण मनुपुत्रों को अपने ग्रामों का संयोजन कर जनों का निर्माण करना पड़ा है।

समस्या केवल असुरों की ही नहीं है। आर्य कुल परस्पर भी प्रतिद्वंद्विता रखने लगे हैं। वे अपना सम्पूर्ण बल एकत्र करके असुरों का दमन करने के स्थान पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। कुछ समझ नहीं पाते आर्य सुरथ। क्या अंत है इस समस्या का! मनु ने प्रजा का संगठन करते समय कभी नहीं सोचा होगा कि उनके वंशज परस्पर युद्धों में लग जायेंगे और असुरों को अपनी मन-मानी करने का अवकाश मिल जायेगा।

आर्य सुरथ ने सुना है कि सिंधु के निचले तटों पर स्थित दिल्मुन, मगन तथा मेलुह्ह [2] आदि पुरों में भी असुरों का प्रभाव बढ़ने लगा है। उनमें सुरा और मांस भक्षण का प्रचलन बढ़ गया है। पणियों के प्रभाव से उनमें हिरण्य संचय करने और वस्तुओं के क्रय-विक्रय करने की संस्कृति का खूब प्रसार हो गया है। उन्होंने विशाल भवनों का निर्माण करके बड़े-बड़े पुर स्थापित कर लिये हैं। सैंधव अग्नि की पूजा नहीं करते। न ही यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों में उनकी रुचि है। वे असुरों की ही भांति अग्नि को नहीं वरुण को सबसे बड़ा देवता समझते हैं। वे भी असुरों की भांति अपने शीश पर शृंग धारण करते हैं। प्रजापति के स्थान पर प्रजननदेव की पूजा करते हैं। गौओं के स्थान पर ऊंचे कूबड़ वाले वृषभों की पूजा करते हैं। आर्य सुरथ ने तो यह भी सुना है कि वे आसुरि प्रवृत्ति के विशाल आयोजन करते हैं जिनमें सैंधव स्त्रियाँ सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र होकर नृत्य करती हैं।

बेचैनी के कारण शैय्या त्याग कर उठ खड़े होते हैं आर्य सुरथ। उन्होंने तो यहाँ तक सुना है कि सैंधवों ने स्त्रियों की नग्न प्रतिमायें बनाकर उनका पूजन प्रारंभ कर दिया है। उनके अधर्म का अंत यहाँ तक ही नहीं हो जाता। वे तो शिश्न और योनि की भी पूजा करने लगे हैं। शिश्न और योनियों का अभिषेक सरिताओं के पवित्र जल, मधु और गौओं के दुग्ध से करने लगे हैं।

व्यथित हो उठते हैं आर्य सुरथ। प्रजापति मनु ने जो स्वप्न देखा था, क्या वह मानव सभ्यता के इस प्रथम चरण में ही नष्ट हो जायेगा! प्रजापति ने चाहा था कि सम्पूर्ण सैंधव क्षेत्र में आर्य प्रजा का प्रसार हो। जहाँ-जहाँ तक दिशाओं की सीमा है, वहाँ-वहाँ तक ऋचाओं की मंगल ध्वनियाँ गूंजें और सम्पूर्ण पृथ्वी-लोक, अंतरिक्ष-लोक और द्यु-लोक यज्ञ धूम्र से आप्लावित हो जायें। देवताओं को निरंतर सोम और बलिभाग प्राप्त होता रहे ताकि परिपुष्ट और संतुष्ट देवता मानवों के कल्याण हेतु प्रकृति को मानवों के अनुकूल रखें। क्या हुआ उस मंगल कामना का! सोम नष्ट हो चुका है। देवता क्षीण हो गये हैं। अनाचार और व्यभिचार बढ़ रहे हैं। असुर तेजी से अपनी प्रजा का प्रसार कर रहे हैं।

यदि यही स्थिति रही तो सम्पूर्ण सप्तसैंधव क्षेत्र एक दिन असुरों, यातुधानों, दैत्यों, दानवों, दस्युओं और द्रविड़ों से आप्लावित हो जायेगा। आर्यों को पैर धरने के लिये भी स्थान उपलब्ध नहीं रहेगा। तब हर प्रकार से पुष्ट और बलिष्ठ हुए शत्रु आर्यों के समूल विनाश के लिये आतुर हो उठेंगे। तब उनके वेग को रोक सकना आर्यों के लिये संभव नहीं रह जायेगा।

क्या करें गोप सुरथ! क्या उन्हें भी इंद्र की तरह असुरों के संहार के लिये सैन्य संगठित करनी होगी! क्या उन्हें भी प्रजापति बनकर नवीन प्रजा की रचना करनी होगी! क्या वे भी वैवस्वत मनु की तरह जीवन भर युद्ध की विभीषिकाओं से जूझते रहेंगे!

कुछ न कुछ तो करना ही होगा। आर्यों के विशृंखलित जन इन दस्युओं का उच्छेदन करने में समर्थ नहीं हैं। इन्हें संगठित होना होगा। जिस प्रकार प्रजापति मनु ने इन्हें जन के रूप में संगठित किया था उसी प्रकार मैं इन्हें जनपदों में संगठित करूंगा। जनपदों की संगठित शक्ति न केवल असुरों से अपनी रक्षा करने में समर्थ होगी अपितु असुरों का दमन भी कर सकेगी। इन्हीं विचारों में डूबते उतरते जाने कब गोप सुरथ की आँख लगी उन्हें पता ही नहीं चला।


[1] सुरा।

[2] मेसोपोटामिया के विभिन्न स्थलों से कीलाक्षर लिपि में लिखी हुई मृत्पट्टिकायें मिली हैं जिनमें वहां के व्यापारियों द्वारा तीन देशों- दिल्मुन, मगन तथा मेलुह्ह से हस्तिदांत, ताम्बे की सामग्री, काली लकड़ी, लाल पत्थर तथा मणिये (माला में पिरोने के मनके) आयात किये जाने का उल्लेख है। ये प्रदेश सूर्याेदय के देश, साफ-सुथरे नगरों वाले तथा लोकोत्तर स्वर्ग के रूप में वर्णित हैं। इस आधार पर इन प्रदेशों की पहचान सिंधु सभ्यता के नगरों से की गयी है। सिंधु सभ्यता के प्रमुख तीन नगर हड़प्पा, कालीबंगा और मोहेन-जो-दड़ो के रूप में पहचाने गये हैं। अतः संभव है कि दिल्मुन, मगन तथा मेलुह्ह सिंधु सभ्यता के यही तीन नगर रहे हों। यूरोपीय विद्वान अल्चिन ने संस्कृत शब्द ‘म्लेच्छ’ से मेलुह्ह का साम्य माना है। म्लेच्छ का अर्थ होता है-अनार्य। पर्याप्त संभव है कि उस काल के आर्य मोहेन-जो-दड़ो को मेलुह्ह के नाम से जानते हों।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source