भारत में ताम्र बस्तियों की खोज
भारत में ताम्र निर्मित सामग्री सबसे पहले गंगा-यमुना के दोआब में उपलब्ध हुई थी। गुनेरियां नामक स्थान से ताम्बे एवं कांसे की वस्तुओं का विशाल भण्डार मिला है। इस सामग्री में कुल्हाड़ियां, तलवारें, कटारें, हार्पून एवं छल्ले प्रमुख हैं। इतिहासकार मि. पिगट ने इस क्षेत्र से प्राप्त कुल्हाड़ियों को पांच भागों में बांटा है। तलवारें प्रायः एक जैसी हैं। इन तलवारों के ब्लेड पत्ती के समान हैं एवं मुठिया तथा धार के साथ समूची तलवार एक ही सांचे में ढाली गई है। कटार का निर्माण भी इसी प्रकार से किया गया है। यह समग्र सामग्री सिंधु घाटी से प्राप्त सामग्री से भिन्न है।
प्रमुख ताम्र-पाषाणिक बस्तियाँ
भारत में प्रमुख ताम्र-पाषाणिक बस्तियों का प्रसार लगभग ई.पू.2150 से ईस्वी 600 (वैदिक-काल से लेकर गुप्तकाल) तक रहा। दक्षिण भारत में नवपाषाणिक अवस्था एकाएक ताम्र-पाषाणिक अवस्था में बदल गई। इसलिए इन संस्कृतियों को नवपाषाणिक ताम्र-पाषाणिक नाम दिया गया है। दूसरे भागों, विशेषतः पश्चिमी महाराष्ट्र और राजस्थान के लोग सम्भवतः उपनिवेशिक थे परन्तु तिथिक्रमानुसार, मालवा और मध्य भारत की कुछ बस्तियां, जैसे कि कायथा और एरण की बस्तियां, सबसे पुरानी थीं। पश्चिमी महाराष्ट्र में ताम्र-पाषाणिक बस्तियां कालांतर में स्थापित हुईं। पश्चिमी बंगाल में ताम्र-पाषाणिक बस्तियों की स्थापना सम्भवतः सबके अंत में हुई।
(1.) कायथा संस्कृति (ई.पू. 2150 से ई.पू.1400): कायथा संस्कृति की बस्तियां मध्यप्रदेश में कालीसिंध नदी के किनारे स्थित हैं। कायथा टीले से 12 मीटर मोटा सांस्कृतिक जमाव मिला है जिसमें ताम्रपाषाणिक संस्कृति से लेकर गुप्त राजवंश के काल तक के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ से मृदभाण्ड बनाने की तीन परम्पराएं मिली हैं। प्रथम पात्र परम्परा हल्के गुलाबी रंग की है जिस पर बैंगनी रंग की चित्रकारी मिलती है।
दूसरी पात्र परम्परा पाण्डुरंग की है। बर्तनों पर लाल रंग से चित्रण अभिप्राय संजोये गए हैं। तीसरी परम्परा अलंकृत लाल रंग की मृद्भाण्ड परम्परा है जिन पर कंघी की तरह के किसी उपकरण से आरेखण किया गया है।
(2.) आहड़ संस्कृति (ई.पू.1900 से ई.पू.1200): यह बस्ती राजस्थान के उदयपुर नगर से 4 किलोमीटर दूर आहड़ नामक स्थान पर मिली है। आहड़ का प्राचीन नाम ताम्रवती है। इस स्थान को अब धूलकोट कहते हैं। यहाँ पर कायथा की तुलना में ताम्र उपकरण अधिक मिले हैं। इस संस्कृति के लोग सुखाई गई कच्ची ईंटों की सहायता से भवन बनाते थे। मकानों में दो-तीन मुंह वाले चूल्हे भी मिले हैं।
यहाँ से बड़े-बड़े भाण्ड तथा अन्न पीसने के पत्थर मिले हैं। कपड़़ों पर छपाई के ठप्पे भी प्राप्त हुए हैं। इस संस्कृति में शवों को गाड़ते समय शव का मस्तक उत्तर की ओर तथा पैर दक्षिण की ओर रखे गए हैं। आहड़ संस्कृति को बनास संस्कृति भी कहते हैं क्योंकि इस सभ्यता का प्रसार सम्पूर्ण बेड़च, बनास एवं चम्बल के कांठे में पाया गया है।
(3.) गिलूण्ड संस्कृति (1700 ई.पू. से 1300 ई.पू.): आहड़ के निकट गिलूण्ड से भी ताम्रपाषाणिक बस्ती मिली है। यहाँ से चूने के प्लास्टर एवं कच्ची दीवारों के प्रयोग की जानकारी मिलती है। यहाँ से लाल एवं काले मृदभाण्डों की ही संस्कृति प्राप्त हुई है। यहाँ से 100 गुणा 80 फुट आकार के ईंटों से बने विशाल भवन के अवशेष प्राप्त हुए हैं। ऐसे भवन आहड़ में देखने को नहीं मिलते।
(4.) नवदाटोली संस्कृति (1500 ई.पू. से 1200 ई.पू.): मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में मिलने के कारण इसे मालवा संस्कृति भी कहा जाता है। यह नर्बदा नदी के बायें किनारे पर स्थित है। यहाँ से मिले मृदभाण्ड गुलाबी रंग के हैं। इन पात्रों पर काले रंग से चित्रण किया गया है। यहाँ से ताम्र उपकरण बहुत कम संख्या में प्राप्त हुए हैं। यहाँ से स्वर्ण, ताम्र, मृदा, शंख एवं सेलखड़ी पत्थर से बने आभूषण प्राप्त हुए हैं। कुछ अग्निकुण्ड भी मिले हैं जिनसे अनुमान होता है कि इस संस्कृति में अग्नि पूजा भी होती थी।
(5.) जोरवे संस्कृति (1400 ई.पू. से 700 ई.पू.): पश्चिमी महाराष्ट्र में प्रवर नदी तट पर स्थित जोरवे नामक गांव से इस संस्कृति के अवशेष मिले हैं। बाद में नासिक, नेवासा, इनामगांव, दैमाबाद आदि स्थलों से भी इस संस्कृति के अवशेष मिले। इस संस्कृति में बस्तियां बसाने का काम योजनाबद्ध तरीके से होता था। जोर्वे संस्कृति का प्रत्येक गांव 35 से भी अधिक गोलाकार अथवा आयताकार भवनों की एक सुगठित बस्ती होती थी। घरों के बीच एक से दो मीटर चौड़ी गलियां छोड़़ी गई हैं। यहाँ से कुम्हार, सुनार, हाथीदांत के शिल्पकारों के औजार मिले हैं जो बस्ती की पश्चिमी सीमा पर रहते थे।
समृद्ध किसान गांव के बीच में रहते थे। दस्तकारों के मकानों का आकार, समृद्ध किसानों के घरों के आकार की तुलना में छोटा है। यहाँ से अल्प मात्रा में ताम्बे के उपकरण पाए गए हैं। मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं जिनमें मातृदेवी एवं वृषभ की मूर्तियाँ विशेष हैं। इस संस्कृति में खेती के लिए नहरों एवं बांधों का निर्माण किए जाने के प्रमाण मिले हैं। दैमाबाद से कांसे की वस्तुएं बड़ी संख्या में मिली हैं। दैमाबाद से ताम्बे से निर्मित- रथ चलाते हुए मनुष्य, सांड, गैंडे तथा हाथी की मूर्तियाँ मिली हैं।
(6.) पूर्वी भारत की बस्तियां (2000 ई.पू.): पूर्वी भारत से चावल पर आधारित एक विस्तृत ताम्र-पाषाणिक ग्राम संस्कृति का पता चला है। यह 2000 ई.पू. के आसपास अस्तित्त्व में रही होगी। उड़ीसा तथा बंगाल प्रांत के वीरभूम, बर्दवान, मिदनापुर, बांकुरा, पांडु राजार ढिबी, महिषदल आदि में इस संस्कृति की बस्तियां मिली हैं। यहाँ गारे और सरकण्डे से निर्मित घरों के साथ-साथ चावल तथा मूंग सहित तरह-तरह की फसलों का समृद्ध संग्रह देखने को मिलता है।
(7.) ऊपरी गंगा घाटी और गंगा-यमुना दो-आब की बस्तियां (1500 ई.पू. से 1000 ई.पू.): इन क्षेत्रों से गेरुए रंग के मृदभाण्डों वाली बस्तियां मिली हैं। उत्तर प्रदेश के बदायूँ जिले के बसौली तथा बिजनौर जिले के राजपुर परसू से नई किस्म के बर्तन प्राप्त हुए हैं। ये दोनों ही स्थान ताम्र भण्डार क्षेत्र में स्थित हैं। इस संस्कृति में अतरंजीखेड़ा का प्रमुख स्थान है। यहाँ से धूसर भाण्ड वाली बस्तियां मिली हैं। सहारनपुर से लेकर इटावा तक इस संस्कृति के लगभग 110 स्थल मिले हैं जिन्हें गेरुए रंग के मृदभाण्डों की संस्कृति कहते हैं।
(8.) ऐतिहासिक कालों की बस्तियां: उत्तर भारत में ताम्र पाषाणिक संस्कृति, जनपद युग एवं मगधीय साम्राज्य (600 ई.पू. से 300 ई.पू.) तथा शुंग, कुषाण एवं गुप्त काल (300 ई.पू. से 600 ई.) तक अस्तित्त्व में रहीं जबकि पश्चिमी भारत में 3500 ई.पू. के आसपास ताम्रकांस्य संस्कृति जन्म ले चुकी थी।
(9.) सिंधु नदी घाटी क्षेत्र में ताम्र-पाषाण-कालीन बस्तियाँ: सिंधु नदी घाटी में भी ताम्बे एवं कांसे की अनेक वस्तुएं प्राप्त हुई हैं किंतु यहाँ पर तलवार एवं हार्पून का अभाव है। इस क्षेत्र से मिले इस काल के हथियार साधारण कोटि के हैं। यहाँ पर धातु के साथ-साथ पाषाण सामग्री का उपयोग भी चलता रहा।
कांस्य की खोज
पाषाण की तुलना में ताम्बा अधिक उपयोगी था किंतु मुलायम होने के कारण इससे कठोर कार्य नहीं लिया जा सकता था। इसलिए मनुष्य ताम्बे से अधिक कठोर धातु की खोज में जुटा तथा उसने कांसे को खोज निकाला। यह मिश्रित धातु थी जो ताम्बे में टिन के मिश्रण से तैयार की जाती थी। दो धातुओं के मिश्रण से तीसरी धातु बनाने की क्षमता अर्जित कर लेना, इस युग के मानव की बौद्धिक परिपक्वता का प्रमाण है।
ताम्र-कांस्य युगीन बस्तियाँ
आज से कुछ हजार वर्ष पहले, सिंध और बलोचिस्तान के जो प्रदेश आज की तरह रेगिस्तान नहीं थे। इन क्षेत्रों में अच्छी वर्षा होती थी तथा घने जंगलों से परिपूर्ण थे। जल और जंगल के कारण इन क्षेत्रों में मानव सभ्यता ने अच्छा विकास किया। ई.पू.4000 में भी इस क्षेत्र में ग्रामीण बस्तियां थीं।
इन बस्तियों में पाषाण युग के बाद ताम्र युग का विकास हुआ। इन बस्तियों के लोगों का पश्चिम एशिया में स्थित मानव बस्तियों से सम्पर्क होने का भी अनुमान है। क्योंकि सिंध एवं बलोचिस्तान जैसे उपकरण पश्चिम एशियाई बस्तियों में भी प्राप्त हुए हैं। इतिहासकार मि. पिगट ने इन बस्तियों को चार भागों में विभक्त किया है-
(1) क्वेटा संस्कृति: बोलन के दर्रे में प्राप्त अवशेषों के आधार पर),
(2) अमरी-नल संस्कृति: सिंध में अमरी नामक स्थान पर तथा बलोचिस्तान में नल नदी की घाटी में उपलब्ध अवशेषों के आधार पर,
(3) कुल्ली संस्कृति: बलोचिस्तान में कोल्बा नामक स्थान से प्राप्त अवशेषों के आधार पर तथा
(4) झोब संस्कृति: उत्तरी बलोचिस्तान की झोब घाटी में उपलब्ध अवशेषों के आधार पर।
राजस्थान की ताम्र-कांस्य युगीन बस्तियाँ
राजस्थान में भी पाषाण काल के अंतिम वर्षों में ताम्रकाल आरंभ हो गया था। राजस्थान के पुरातत्त्व विभाग ने भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग के सहयोग से कालीबंगा, आहड़, बागौर, रंगमहल, बैराठ, गिलूण्ड, नोह आदि स्थानों पर उत्खनन किया। इन उत्खननों में हमें सिंधु सभ्यता से भी प्राचीन एवं सिंधु सभ्यता के समकक्ष सभ्यताओं के अवशेष प्राप्त हएु हैं।
ताम्र-पाषाणिक एवं ताम्र-कांस्य संस्कृति में अंतर
ताम्र-पाषाणिक संस्कृति का मानव पकी हुई ईंटों से घर बनाना नहीं जानता था जबकि ताम्र-कांस्य संस्कृति का मानव पकी हुई ईटों से घर बनाता था। ताम्र-पाषाणिक संस्कृति का मानव ताम्र औजारों के साथ-साथ प्रस्तर निर्मित औजारों का प्रयोग करता था जबकि ताम्र-कांस्य संस्कृति का मानव ताम्र एवं कांस्य से बने औजारों का प्रयोग करता था।
ताम्र-पाषाणिक बस्तियां पूर्वी भारत, उत्तरी भारत, मध्य भारत एवं महाराष्ट्र में नासिक तक प्राप्त हुई हैं जबकि ताम्र-कांस्य बस्तियां बिलोचिस्तान एवं सिंध क्षेत्र में अधिक प्राप्त हुई हैं। ताम्र-पाषाण-कालीन मानव धातुओं के मिश्रण की कला अर्थात् कांसा बनाने की विधि से अपरिचित था जबकि ताम्र-कांस्य कालीन मानव धातुओं के मिश्रण की कला से अच्छी तरह परिचित हो गया था।
यह एक आश्चर्य की ही बात है कि सिंधु सभ्यता जो कि ताम्र-पाषाण काल से भी पुरानी है, में कांसे का प्रयोग होता था। इससे अनुमान होता है कि ताम्र-पाषाणिक अवस्था में जी रहे लोगों का उन क्षेत्रों से सम्पर्क नहीं था जो उनके समकालीन होते हुए भी कांस्य का उपयोग कर रहे थे।