शिवाजी का राज्याभिषेक एक युगांतरकारी घटना थी। औरंगजेब के जीवित रहते यह संभव नहीं था किंतु शिवाजी ने औरंगजेब सहित तीन मुसलमान बादशाहों और सुल्तानों से लड़कर अपने राज्य का निर्माण किया तथा स्वयं को स्वतंत्र राजा घोषित किया। उस समय उत्तर भारत में केवल महाराणा राजसिंह तथा दक्षिण भारत में छत्रपति शिवाजी ही ऐसे राजा थे जिनकी मुगलों से किसी तरह की अधीनता, मित्रता या संधि नहीं थी।
शिवाजी का राज्य अब काफी बड़ा हो गया था। शिवाजी की तलवार के घाव खा-खाकर मुगल सेनाएं दक्षिण भारत में पूरी तरह जर्जर हो चुकी थीं। बीजापुर तथा गोलकुण्डा के पुराने सुल्तान मर चुके थे और नए सुल्तानों में प्रतिरोध की शक्ति शेष नहीं बची थी। इसलिए शिवाजी अब अपने राज्य का प्रभुत्व-सम्पन्न स्वामी था।
जीजाबाई की इच्छा
जन सामान्य भी शिवाजी को मराठों का राजा मानता था किंतु शिवाजी का राज्याभिषेक नहीं हुआ था। इसलिए माता जीजाबाई ने शिवाजी से राज्याभिषेक करवाने के लिए कहा। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार एक राजा ही प्रजा पर कर लगा सकता है और अपनी प्रजा को न्याय तथा दण्ड दे सकता है।
राजा को ही भूमि दान करने का अधिकार प्राप्त है। शिवाजी ने भी राजनीतिक दृष्टि से ऐसा करना उचित समझा ताकि वे अन्य राजाओं के समक्ष स्वतंत्र राजा का सम्मान और अधिकार पा सकें। ई.1674 में शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि धारण करने का निर्णय किया।
भौंसले परिवारों का विरोध
कुछ भौंसले परिवार जो कभी शिवाजी के ही समकक्ष अथवा उससे अच्छी स्थिति में थे, शिवाजी की सफलता के कारण ईर्ष्या करते थे तथा शिवाजी को लुटेरा कहते थे जिसने बलपूर्वक बीजापुर तथा मुगल राज्य के इलाके छीन लिए थे। बीजापुर राज्य शिवाजी को एक जागीरदार के विद्रोही पुत्र से अधिक नहीं समझता था।
ब्राह्मणों की मान्यता थी कि शिवाजी किसान का पुत्र है इसलिए उसका राज्याभिषेक नहीं हो सकता। इसलिए शिवाजी ने अपने मंत्री बालाजी अम्बाजी तथा अन्य सलाहकारों को काशी भेजा ताकि इस समस्या का समाधान किया जा सके।
गागा भट्ट
बालाजी तथा अम्बाजी ने काशी के पण्डित विश्वेश्वर से सम्पर्क किया तथा जिसे गागा भट्ट भी कहा जाता था। वह राजपूताने के कई राजाओं के राज्याभिषेक करवा चुका था। शिवाजी के मंत्रियों ने गागा को शिवाजी की वंशावली दिखाई। गागा ने शिवाजी की वंशावली देखने से मना कर दिया।
शिवाजी के मंत्री कई दिनों तक उसके समक्ष प्रार्थना करते रहे। एक दिन गागा, शिवाजी की वंशावली देखने को तैयार हुआ। उसने पाया कि शिवाजी का कुल मेवाड़ के सिसोदिया वंश से निकला है तथा विशुद्ध क्षत्रिय है।
उसने शिवाजी के राज्याभिषेक की अनुमति प्रदान कर दी। इसके बाद यह प्रतिनिधि मण्डल राजपूताने के आमेर तथा जोधपुर आदि राज्यों में गया तथा वहाँ जाकर राज्याभिषेक के अवसर पर होने वाली प्रथाओं तथा रीति-रिवाजों की जानकारी ली।
गागा भट्ट की अनुमति मिलते ही पूना में राज्याभिषेक की तैयारियां होने लगीं। बड़ी संख्या में सुंदर एवं विशाल अतिथि-गृह एवं विश्राम-भवन बनवाने आरम्भ किए गए ताकि देश भर से आने वाले सम्माननीय अतिथि उनमें ठहर सकें। नए सरोवर, मार्ग, उद्यान आदि भी बनाए गए ताकि शिवाजी की राजधानी सुंदर दिखे।
गागा से प्रार्थना की गई कि वह स्वयं पूना आकर राज्याभिषेक सम्पन्न कराए। गागा ने इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। काशी से महाराष्ट्र तक की यात्रा में गागा का महाराजाओं जैसा सत्कार किया गया। उसकी अगवानी के लिए शिवाजी अपने मंत्रियों सहित सतारा से कई मील आगे चलकर आया तथा उसका भव्य स्वागत किया।
राजधानी में तैयारियाँ
भारत भर से विद्वानों एवं ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया। 11 हजार ब्राह्मण शिवाजी की राजधानी में आए। स्त्री तथा बच्चों सहित उनकी संख्या 50 हजार हो गई। लाखों नर-नारी इस आयोजन को देखने राजधानी पहुंचे। सेनाओं के सरदार, राज्य भर के सेठ, रईस, दूसरे राज्यों के प्रतिनिधि, विदेशी व्यापारी भी राजधानी पहुंचने लगे। चार माह तक राजा की ओर से अतिथियों को फल, पकवान एवं मिठाइयां खिलाई गईं तथा उन लोगों के राजधानी में ठहरने का प्रबन्ध किया गया।
ब्रिटिश राजदूत आक्सिनडन ने लिखा है कि प्रतिदिन के धार्मिक संस्कारों और ब्राह्मणों से परामर्श के कारण शिवाजी राजे को अन्य कार्यों की देखभाल के लिए समय नहीं मिल पाता था।
जीजाबाई की प्रसन्नता
जीजाबाई इस समय 80 वर्ष की हो चुकी थी। शिवाजी के राज्याभिषेक से वही सबसे अधिक प्रसन्न थी। उसका पुत्र शिवा आज धर्म का रक्षक, युद्धों का अजेय विजेता तथा प्रजा पालक था।
जिस दिन राज्याभिषेक के समारोह आरम्भ हुए, उस दिन शिवाजी ने अपने गुरु रामदास तथा माता जीजाबाई की चरण वंदना की तथा चिपलूण के परशुराम मंदिर के दर्शनों के लिए रवाना हो गया।
ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा
वहाँ शिवाजी ने अपनी कुल देवी तुलजा भवानी की प्रतिमा को सवा मन सोने का छत्र भेंट किया जिसका मूल्य उस समय लगभग 56 हजार रुपए था। वापस लौटकर शिवाजी ने अपने कुल पुरोहित के निर्देशन में महादेव, भवानी तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा की। 28 मई को शिवाजी से उपवास एवं प्रायश्चित करवाया गया क्योंकि इतनी आयु हो जाने पर भी उसका जनेऊ संस्कार नहीं हुआ था।
इसके बाद शिवाजी की दोनों जीवित पत्नियों से शिवाजी का फिर से विवाह करके उन्हें शुद्ध किया गया ताकि वे राज्याभिषेक में सम्मिलित होने की अधिकारिणी हो सकें। ब्राह्मणों तथा निर्धनों को विपुल दान दक्षिणा दी गई। मुख्य पुरोहित गागा भट्ट को 7000 होन तथा अन्य ब्राह्मणों को 1700-1700 होन दिए गए।
शिवाजी द्वारा जाने-अनजाने में किए गए पापों एवं अपराधों के प्रायश्चित के लिए उसके हाथों से सोना, चांदी, तांबा, पीतल, शीशा आदि समस्त धातुओं, अनाजों, फलों, मसालों आदि से तुलादान करवाया गया। इस तुलादान में शिवाजी ने एक लाख होन भी मिलाए ताकि ब्राह्मणों में वितरित किए जा सकें।
धन के लोभी कुछ ब्राह्मण इससे भी संतुष्ट नहीं हुए उन्होंने शिवाजी पर 8 हजार होन का अतिरिक्त जुर्माना लगाया क्योंकि शिवाजी ने अनेक नगर जलाए थे तथा लोगों को लूटा था। शिवाजी के लिए यह राशि बहुत छोटी थी इसलिए उन्होंने ब्राह्मणों की यह बात मान ली।
इस प्रकार भारी मात्रा में स्वर्ण दान लेकर ब्राह्मणों ने शिवाजी को पाप-मुक्त, दोष-मुक्त एवं पवित्र घोषित कर दिया। अब शिवाजी का राज्याभिषेक हो सकता था। 5 जून का दिन शिवाजी ने आत्म-संयम और इंद्रिय-दमन में व्यतीत किया। उसने गंगाजल से स्नान करके, गागा भट्ट को 5000 होन दान दिए तथा अन्य प्रसिद्ध ब्राह्मणों को सोने की 2-2 मोहरें दान में दीं और दिन भर उपवास किया।
राज्याभिषेक
6 जून 1674 को शिवाजी का राज्याभिषेक कार्यक्रम आयोजित किया गया। शिवाजी ने मुंह अंधेरे उठकर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ गंगाजल से स्नान किया। कुल देवताओं की पूजा की तथा अपने कुलपुरोहित बालम भट्ट, राज्याभिषेक के मुख्य पुरोहित गागा भट्ट तथा अन्य प्रसिद्ध ब्राह्मणों के पैर छूकर उन्हें दान दिए तथा उनके आशीर्वाद लिए।
फिर श्वेत वस्त्र धारण करके फूलों की माला पहनी तथा इत्र लगाकर एक ऊंची चौकी पर बैठा। उसके बाईं ओर राजमहिषी सोयरा बाई ने आसन ग्रहण किया। उसकी साड़ी का एक छोर राजा के दुपट्टे से बांधा गया। युवराज सम्भाजी इन दोनों के पीछे बैठा।
शिवाजी के अष्ट प्रधान अर्थात् आठ मंत्रियों ने देश की प्रसिद्ध नदियों के जल से भरे हुए कलश लेकर राजपरिवार का जलाभिषेक किया। इस पूरे समय वैदिक मंत्रोच्चार होता रहा तथा मंगल वाद्य बजते रहे। इसके बाद छः सधवा ब्राह्मणियों ने स्वच्छ वस्त्र धारण करके, स्वर्ण थालों में पांच-पांच दिए रखकर राजपरिवार की आरती उतारी।
जलाभिषेक के बाद शिवाजी ने लाल रंग के जरीदार वस्त्र पहने, रत्नाभूषण एवं स्वर्णाभूषण धारण किए, गले में हार एवं फूलों की माला पहनी और एक राजमुकुट पहना जिसमें मोती जड़े हुए थे तथा मोती की लड़ियां लटक रही थीं। शिवाजी ने अपनी तलवार, तीर कमान तथा ढाल की पूजा की और पुनः ब्राह्मणों एवं वयोवृद्ध लोगों के समक्ष सिर झुकाकर उनका आशीर्वाद लिया।
ज्योतिषियों द्वारा सुझाए गए शुभ-मुहूर्त पर शिवाजी ने राजसिंहासन के कक्ष में प्रवेश किया। यह कक्ष 32 शुभ चिह्नों तथा विभिन्न प्रकार के शुभदायी पौधों से सजा हुआ था। मोतियों की वंदनवार से युक्त इस कक्ष की सजावट बहुत ही भव्य विधि से की गई थी जिसके केन्द्र में एक भव्य राजसिंहासन रखा था।
हेनरी आक्सिनडन ने लिखा है कि सिंहासन बहुत मूल्यवान और शानदार था। उस पर सोने का पत्तर मंढा हुआ था तथा उसके आठ स्तम्भों पर बहुमूल्य रत्न तथा हीरे जड़े हुए थे। स्तम्भ के ऊपर मण्डल था जिसमें सोने की कारबोची का काम किया गया था तथा मोतियों की वंदनवारें लटक रही थीं।
सिंहासन पर व्याघ्रचर्म बिछाया गया था जिसके ऊपर मखमल पड़ा हुआ था। जैसे ही शिवाजी उस सिंहासन पर बैठे वहाँ उपस्थित प्रजा पर रत्नजड़ित कमल-पुष्प तथा सोने-चांदी के पुष्प बरसाए गए। सोलह सधवा स्त्रियों ने राजा की आरती उतारी। ब्राह्मणों ने उच्च स्वर से मंत्रोच्चार किए तथा राजा को आशीर्वाद दिया।
प्रजा ने शिवाजी की जय-जयकार की। मंगल वाद्य बजने लगे, गवैये गाने लगे। ठीक इसी समय राज्य के प्रत्येक किले से एक-एक तोप दागी गई। मुख्य पुरोहित गागा भट्ट ने आगे बढ़कर शिवाजी के ऊपर सोने के काम और मोतियों की झालर वाला छत्र ताना तथा ‘शिवा छत्रपति’ कहकर उसका आह्वान किया।
ब्राह्मणों ने शिवाजी राजे को आर्शीवाद दिया। राजा ने ब्राह्मणों को, गरीबों को तथा भिखारियों को दान, सम्मान एवं उपहार दिए। सोलह प्रकार के महादान भी दिए। इसके पश्चात् मंत्रियों ने सिंहासन के समक्ष उपस्थित होकर राजा का अभिवादन किया। शिवाजी ने उन्हें भी हाथी, घोड़े, रत्न, परिधान, हथियार आदि उपहार में दिए।
शिवाजी ने आदेश दिया कि भविष्य में मंत्रियों की पदवी के लिए फारसी शब्दों का प्रयोग न करके संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया जाए। युवराज सम्भाजी, मुख्य पुरोहित गागा भट्ट तथा प्रधानमंत्री पिंघले को भी उच्च आसानों पर विराजमान करवाया गया जो राजा के सिंहासन से थोड़े नीचे थे।
अन्य मंत्री राजा के दायीं तथा बाईं ओर दो-दो पंक्तियों में खड़े हुए। अन्य सब दरबारी तथा आगंतुक अपनी-अपनी सामाजिक स्थिति के अनुसार आसनों पर बैठे।
अंग्रेजों द्वारा अभ्यर्थना
प्रातः 8 बजे नीराजी पंत ने अंग्रेजों के दूत हेनरी आक्सिनडन को शिवाजी के सम्मुख प्रस्तुत किया। उसने पर्याप्त दूरी से राजा का अभिवान किया तथा दुभाषिए की सहायता से अंग्रेजों की तरफ से हीरे की एक अंगूठी भेंट की। दरबार में कई और विदेशी भी उपस्थित थे, उन्हें भी राजा ने अपने निकट बुलाया तथा उनका यथोचित सम्मान किया और परिधान भेंट किए।
इसके साथ ही दरबार की कार्यवाही पूरी हो गई तथा छत्रपति शिवाजी सिंहासन से उतर कर एक शानदार एवं सुसज्जित अश्व पर सवार हुआ और जगदीश्वर के मंदिर में भगवान के दर्शनों के लिए गया। वहाँ से आकर उसने वस्त्र बदले और एक उत्तम हाथी पर सवार होकर जुलूस के साथ राजमार्ग पर निकलने वाली शोभायात्रा में सम्मिलित हुआ।
राजमार्ग से निकलकर वह राजधानी की गलियों में होता हुआ प्रजा के बीच से निकला। स्थान-स्थान पर गृहस्वामिनियों ने शिवाजी की आरती उतारी तथा उस पर धान की खील, फल, कुश आदि न्यौछावर किए। इस यात्रा में वह राजगढ़ की पहाड़ी पर स्थित मंदिरों के दर्शन करने भी गया और वहाँ भेंट आदि अपर्ति करके पुनः अपने महलों को लौट आया।
अगले दिन अर्थात् 7 जून को वह पुनः दरबार में उपस्थित हुआ तथा वहाँ बधाई देने आए देशी-विदेशी अतिथियों एवं भिखारियों को दान देता रहा। दरबार में आने वाले प्रत्येक साधारण जन को 3 रुपए से 5 रुपए तथा स्त्रियों एवं बच्चों को 1 से 2 रुपए दिए गए। पूरे बारह दिन तक दान-पुण्य का यह क्रम चलता रहा।
जीजाबाई का निधन
8 जून को राजा ने बिना कोई अतिरिक्त धूमधाम किए अपना चौथा विवाह किया। 18 जून को अचानक जीजाबाई का निधन हो गया। इस कारण राज्य दरबार में शोक रखा गया। अतः शिवाजी छः दिन बाद, 24 जून को पुनः अपने दरबार में उपस्थित हुआ। इसके कुछ दिन बाद, शिवाजी की एक पत्नी का निधन हो गया।
विधि-विधान से राज्याभिषेक
इस प्रकार राज्याभिषेक के कुछ दिनों में ही राजपरिवार के दो महत्वपूर्ण सदस्यों का निधन हो गया। इसलिए तांत्रिकों को पण्डितों की चुगली करने का अवसर मिल गया। निश्चल पुरी नामक एक तांत्रिक ने शिवाजी से कहा कि गागा भट्ट ने अभिषेक के विधि-विधान में कई कमियां छोड़ दी हैं, इसीलिए राजमाता का निधन हुआ है तथा इस दौरान होने वाली छोटी-मोटी अशुभ घटनाएं घटित हुई हैं।
उसने शिवाजी को सुझाव दिया कि इन कमियों की पूर्ति के लिए एक बार पुनः तांत्रिक विधि-विधान से राज्याभिषेक होना चाहिए। शिवाजी ने इसकी अनुमति दे दी। 24 सितम्बर 1674 को पुनः एक लघु राज्याभिषेक का आयोजन किया गया जिसमें ब्राह्मणों के साथ-साथ तांत्रिकों को भी दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न किया गया।
दूसरे राज्याभिषेक के ठीक एक वर्ष पश्चात् प्रतापगढ़ के मंदिर पर बिजली गिरी। इस कारण कई मूल्यवान हाथी और घोड़े मर गए तथा अन्य हानि भी हुई।
यह एक शानदार राज्याभिषेक था। तब तक इस तरह के भव्य आयोजन भारत में कम ही हुए थे। शिवाजी के राज्याभिषेक समारोह पर 1 करोड़ 42 लाख रुपए व्यय हुए थे। जिनकी तुलना आज की किसी भी धन राशि से करना कठिन है। इस व्यय में वे पक्के भवन, मार्ग, सरोवर, उद्यान आदि भी सम्मिलित हैं जो राज्याभिषेक के लिए ही विशेष रूप से करवाए गए थे।
मुद्रा एवं संवत का प्रचलन
अपने राज्याभिषेक के पश्चात् शिवाजी ने अपने नाम से सिक्के ढलवाए तथा नए संवत का भी प्रचलन किया। भारतीय आर्य राजाओं में यह परम्परा थी कि जब कोई राजा अपने को स्वतंत्र सम्राट या चक्रवर्ती सम्राट घोषित करता था तो उसके प्रतीक के रूप में नवीन मुद्रा तथा संवत् का प्रचलन करता था। शक संवत, गुप्त संवत तथा विक्रम संवत इसी प्रकार की घटनाओं के प्रतीक हैं।
-डॉ. मोहन लाल गुप्ता