ई.1943 में क्रिप्स मिशन को भारत भेजा गया ताकि वह भारत की आजादी की एक सर्वसम्मत योजना बना सके किंतु जब मुसलमान अपनी मांगों पर अड़े रहे तो क्रिप्स मिशन की असफलता तय हो गई। भारत की देशी रियासतों के राजा भी नहीं चाहते थे कि देश आजाद हो और अंग्रेजों का स्थान कांग्रेसी नेता ले लें। कांग्रेस भी क्रिप्स के प्रस्तावों से सहमत नहीं हुई।
क्रिप्स योजना में प्रावधान किया गया था कि यदि भारत की आजादी के बाद भी भारतीय राज्य, भारत संघ में सम्मिलित नहीं होते और ब्रिटिश क्राउन के सहयोगी बने रहते हैं तो गोरी सरकार ई.1818 में देशी-राज्यों के साथ की गई संधियों के तहत उन राज्यों की रक्षा करने के लिए उन राज्यों में इम्पीरियल ट्रूप्स (साम्राज्यिक सेना) रखेगी।
योजना में प्रावधान किया गया था कि यदि कोई देशी-राज्य संविधान सभा में भाग लेता है किंतु संविधान निर्माण के पश्चात संघ में सम्मिलित नहीं होता है तो वह राज्य फिर से अपनी वर्तमान स्थिति को प्राप्त कर लेगा किंतु उसे नवीन संघ के साथ रेलवे, डाक और तार जैसे सामुदायिक महत्व के विषयों पर समायोजन करने पड़ेंगे। क्रिप्स का कहना था कि ब्रिटिश सरकार की यह इच्छा है कि सभी देशी-राज्य भारत संघ में सम्मिलित हों किंतु सरकार, संधि-दायित्वों को भंग करके उनसे जबर्दस्ती ऐसा करने को नहीं कहेगी।
क्रिप्स ने देशी राज्यों को सलाह दी कि छोटे राज्यों को पहला कदम यह उठाना चाहिए कि वे अपने समूह बनायें अथवा संघीय सम्बन्ध स्थापित करें ताकि सहकारिता पर आधारित समूहों की भावना को बड़ी इकाईयों तक विस्तारित किया जा सके। एक राजा ने क्रिप्स से पूछा कि क्या नवीन परिस्थितियों में राजाओं को ब्रिटिश-भारत के राजनीतिक दलों से सम्पर्क करना चाहिये? इस सवाल के जवाब में क्रिप्स ने कहा कि मेरी सलाह है कि राज्यों के शासक, ब्रिटिश-भारत के नेताओं से सम्पर्क स्थापित करें ताकि भविष्य में होने वाले संवैधानिक परिवर्तनों के दौरान राजाओं को सुविधा रहे।
2 अप्रेल को क्रिप्स ने तीन नरेशों को, जो उनसे मिलने आए थे, गुस्से में आकर कहा- ‘उन्हें अपना फैसला कांग्रेस या गांधी से करना होगा क्योंकि हम तो अब बिस्तर बोरिया बांधकर भारत से कूच करने वाले हैं।’
इस प्रस्ताव के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने पहली बार भारत की स्वाधीनता के दावे को स्वीकार करते हुए कहा कि भारत को स्वतंत्र उपनिवेश का दर्जा दे दिया जाएगा। ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में रहना उसकी इच्छा पर निर्भर करेगा। योजना का सबसे विवादित बिंदु यह था कि भारत का कोई भी प्रांत अपना संविधान बनाकर स्वतंत्र हो सकता था। ऐसा पाकिस्तान की मांग को ध्यान में रखकर किया गया था। क्रिप्स-मिशन में औपनिवेशिक स्वराज्य देने की कोई अवधि निश्चित नहीं की गई थी। इसका स्वरूप अस्पष्ट और अनिश्चित था।
क्रिप्स मिशन में मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की माँग को एक कदम और आगे बढ़ा दिया गया। इसमें देशी राज्यों और मुस्लिम लीग को प्रसन्न रखने के लिए उन राज्यों और प्रान्तों को यह छूट दी गई कि वे स्वेच्छानुसार भारतीय संघ में सम्मिलित हो सकते हैं। मुस्लिम-बहुल प्रान्तों को भारतीय संघ से अलग रहने का अधिकार प्राप्त हो गया।
देशी राज्यों में जनता की राय जानने को कोई महत्त्व नहीं दिया गया था। देशी नरेशों को उनके राज्यों के प्रतिनिधियों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया। इस प्रकार संविधान-निर्मात्री परिषद् में चौथाई सदस्य अप्रजातांत्रिक ढंग से आते और वे रुढ़िवादी होने के कारण प्रगतिशील सुधारों का विरोध करते।
ब्रिटिश प्रान्तों को संघ में सम्मिलित होने या न होने का अधिकार देकर सरकार ने साम्प्रदायिक तत्त्वों को प्रोत्साहन दिया। मुस्लिम लीग पाकिस्तान बनाने की माँग पर अड़ी रही किंतु पंजाब के सिक्खों ने मुस्लिम लीग की इस मांग का घोर विरोध किया। मुस्लिम लीग द्वारा मांगे जा रहे पाकिस्तान में पूरा पंजाब शामिल था किंतु पंजाब के सिक्ख किसी भी कीमत पर भारत से बाहर किसी अन्य देश में जाने को तैयार नहीं थे। क्रिप्स-मिशन ने अल्पसंख्यकों के हितों और उनके अधिकारों की रक्षा की बात तो की किंतु उनकी स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत नहीं की।
दलित एवं पिछड़े वर्ग के लोग भी क्रिप्स-मिशन की रिपोर्ट से असंतुष्ट थे। उनका कहना था कि क्रिप्स-योजना में उनके हितों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। क्रिप्स मिशन ने भारत की रक्षा का दायित्व भारतीयों के हाथ में न देकर ब्रिटिश सरकार के पास रखने का प्रावधान किया।
यह बात कांग्रेस को मान्य नहीं थी। इस प्रकार सभी पक्ष क्रिप्स-प्रस्ताव से असंतुष्ट हो गए। कांग्रेस, हिंदू-महासभा और मुस्लिम लीग ने इन प्रस्तावों को मानने से अस्वीकार कर दिया।
क्रिप्स प्रस्ताव में ब्रिटिश-प्रांतों एवं देशी रियासतों को तो अपना पृथक संघ बनाने या संघ से अलग रहने की आजादी थी परन्तु यदि उन्हें ऐसा करने दिया जाता तो भारत में बाल्कन-राष्ट्र जैसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती। पूरा देश अनुभव कर रहा था कि क्रिप्स के इस प्रस्ताव में व्यावहारिकता का अभाव था क्योंकि देश के समस्त रजवाड़ों की सीमा ब्रिटिश-भारत के क्षेत्र से संलग्न थी। अतः इस तरह का कोई संघ कैसे काम कर सकता था!
11 अप्रेल को कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने क्रिप्स प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। 22 अप्रेल 1942 को क्रिप्स लंदन चले गए। उनका मिशन असफल हो गया जिससे राजाओं ने चैन की सांस ली। राजाओं की इस दोहरी चाल से कांग्रेस को विशेष निराशा हुई। उन्होंने राजाओं के विरुद्ध वक्तव्य दिए। नेहरू ने उन लोगों की पीठ थपथपाई जो राजाओं को धूर्त, झक्की अथवा मूर्ख कहते थे।
क्रिप्स कमीशन असफल होकर लौट गया किंतु क्रिप्स मिशन की असफलता वस्तुतः ब्रिटिश सरकार की सबसे बड़ी कूटनीतिक सफलता थी। योजना में किसी संशोधन तथा आश्वासन के प्रति निस्पृह रहने के लिए चर्चिल ने क्रिप्स को हार्दिक बधाई दी। चर्चिल कतई नहीं चाहता था कि भारत को आजादी दी जाए।
क्रिप्स मिशन की असफलता पर विंस्टन चर्चिल ने मित्र राष्ट्रों को सूचित किया- ‘कांग्रेस की मांगों को मानने का एक ही अर्थ होता कि हरिजनों तथा अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक हिंदुओं की दया पर छोड़ दिया जाता। चर्चिल ने अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट को समझा दिया कि भारतीय नेता परस्पर एकमत नहीं हैं।’
क्रिप्स मिशन की असफलता पर यह शक किया जाने लगा कि या तो क्रिप्स की पीठ में ब्रिटिश सरकार ने छुरा भौंक दिया है अथवा डीक्वेंस के शब्दों में- ‘चालाक क्रिप्स महज धोखेबाजी, छल कपट, विश्वासघात और दुहरी चालों से काम ले रहे थे और उन्हें इस पर जरा भी पश्चाताप नहीं था!’
लॉर्ड वैवेल ने 27 जुलाई 1943 को अपनी डायरी में लिखा- ‘प्रधानमंत्री चर्चिल भारत और उससे सम्बन्धित हर बात से घृणा करता है। … भारत को स्वतंत्र करने के विचार मात्र से ब्रिटिश साम्राज्यवाद का वह उपासक पागल हो जाता था।’
गांधीजी के अनुसार क्रिप्स मिशन की असफलता इसलिए हुई क्योंकि ‘क्रिप्स योजना आगे की तारीख का चैक था जिसका बैंक खत्म होने वाला था।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता