ईसा मसीह का जन्म ईस्वी 4 में होना माना जाता है। वे नासरत के एक यहूदी परिवार में पैदा हुए। उनके जन्म से पहले ही जूलियस सीजर का उत्तराधिकारी प्रिन्सेप्स ऑगस्टस ऑक्टेवियन सीजर ‘महान् रोमन साम्राज्य’ की स्थापना कर चुका था। ईसा मसीह का जन्म स्थल नासरत इसी विशाल रोमन साम्राज्य में स्थित था। ईसाई मानते हैं कि ईसा मसीह ही वह मसीहा है जिसके बारे में यहूदियों के धर्मग्रंथ ‘तनख़’ में लिखा है कि यहूदी धर्म में एक मसीहा जन्म लेगा जो ईश्वर का दूत होगा तथा यहूदियों का उद्धार करेगा।
ईसा मसीह का जन्म ईश्वरीय अनुकम्पा से एक कुंवारी माता के गर्भ से हुआ था। ईसा मसीह ने गैलिली नामक शहर में अपने विचारों का प्रचार आरम्भ किया। मध्य एशिया के बहुत से देशों, भारत के लद्दाख एवं कश्मीर प्रांतों एवं तिब्बत क्षेत्र के निवासियों में मान्यता है कि ईसा मसीह भ्रमण करते हुए उनके यहाँ भी आए थे।
धरती के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए ईसा मसीह तीस वर्ष की आयु के बाद यहूदियों के मुख्य केन्द्र जेरूसलम पहुँचे जहाँ उन्होंने अपने विचारों का प्रचार करना आरम्भ किया। कुछ यहूदियों को आशा बंधी कि यही वह मसीहा है जिसकी प्रतीक्षा यहूदियों को पिछले दो हजार सालों से है।
यहूदियों को अपनी कल्पनाओं के मसीहा से आशा थी कि वह यहूदियों को धन-ऐश्वर्य एवं सुख प्रदान करेगा तथा उन संकटों का निवारण करेगा जिनके कारण यहूदी सदैव दुनिया के अन्य धर्मों के मतावलम्बियों के निशाने पर रहते थे किंतु यीशू ने यहूदियों के काल्पनिक स्वर्ग का विरोध किया तथा उन कहानियों का भी विरोध किया जिनके अनुसार मनुष्यों को स्वर्ग की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व लुटा देना चाहिए।
यहूदियों को यह देखकर निराशा हुई कि ईसा मसीह यहूदी धर्म में प्रचलित कर्मकाण्डों, व्रत-उपवासों तथा अमीरों एवं पाखण्डियों की बातों का विरोध कर रहे हैं। इसलिए उन्होंने यीशू को पकड़कर येरूशमल के रोमन गवर्नर पॉन्टियस पाइलेट के न्यायालय में प्रस्तुत किया तथा उन पर धर्म के प्रति विद्रोह करने का मुकदमा चलाया।
रोमन साम्राज्य बहुत विशाल था तथा उसमें बहुत से धर्मों एवं विश्वासों के लोग रहते थे। इसलिए रेाम के सम्राट धर्म के मामले में संकीर्ण विचारों वाले नहीं थे। यहाँ तक कि यदि कोई व्यक्ति रोमन देवी-देवताओं को गाली देता था तो भी उसे सजा नहीं दी जाती थी। तत्कालीन रोमन सम्राट टाइबेरियस का कहना था कि ‘यदि कोई व्यक्ति देवी-देवताओं का अपमान करता है तो देवी-देवताओं को उनसे स्वयं ही निबट लेने दो।’
इसलिए जब यीशू को पकड़कर रोमन गवर्नर पॉन्टियस पाइलेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया तो उसने इस मामले के धार्मिक पक्ष की बिल्कुल भी चिंता नहीं की। यीशू को जहाँ यहूदी-धर्मावलम्बी धर्म-द्रोही समझते थे, वहीं रोमन साम्राज्य के अधिकारी उन्हें राजनीतिक-विद्रोही तथा यूनानी-धर्मावलम्बी सामाजिक-विद्रोही समझते थे। अतः यीशू पर इन सब मिले-जुले आरोपों के लिए मुकदमा चलाया गया।
रोमन गवर्नर के न्यायालय द्वारा यीशू को मृत्यु-दण्ड की सजा सुनाई तथा गोलगोथा नामक स्थान पर उन्हें सूली पर लटकाया गया। पीड़ा के इन निर्दयी क्षणों में में यीशू के अपनों ने भी उन्हें छोड़ दिया। इस विश्वासघात ने यीशू की पीड़ा को इतना असह्य बना दिया कि उनके मुँह से निकला- ‘मेरे ईश्वर! मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों त्याग दिया है!’
जेरूसलम और रोमन साम्राज्य में ईसा मसीह को दी गई सूली उस समय इतनी महत्त्वहीन थी कि रोमवासियों को तो कुछ पता ही नहीं चला कि उनके साम्राज्य के एक गवर्नर ने ‘प्रभु के पुत्र’ को सूली पर चढ़ाया है। यहाँ तक कि जेरूसलम में भी कोई हलचल नहीं हुई।
तब रोम में कोई भी यह नहीं सोच सकता था कि आने वाली शताब्दियों में रोम ही प्रभु के इस पुत्र के नाम पर भविष्य में चलाए जाने वाले नए धर्म की सबसे बड़ी राजधानी बनेगा तथा रोम के चर्च का एक ईसाई बिशप ही पोप के नाम से विश्व भर के समस्त ईसाई-राजाओं एवं ईसाई-जनता को अनुशासित करेगा तथा उन्हें दण्डित अथवा पुरस्कृत करने की सामर्थ्य रखने वाला होगा।