येरूशलम का धार्मिक महत्त्व
येरुशलम को हिब्रू में जेरूशलम तथा अरबी में अल-कुद्स कहा जाता है। यह संसार के सबसे प्राचीन नगरों में से है। यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम तीनों इसे पवित्र नगरी मानते हैं। आर्मेनियाइयों के लिए भी यह प्रमुख नगर है। इन चारों समुदायों ने इस नगरी के लिए जितना रक्त बहाया है, उतना और किसी नगरी के लिए नहीं बहाया। येरुशलम प्राचीन यहूदी राज्य का केन्द्र और उसकी मुख्य राजधानी रहा है।
किसी समय यहाँ यहूदियों का पवित्र सोलोमन मन्दिर हुआ करता था, जिसे रोमनों ने नष्ट कर दिया था। इसी शहर में ईसा मसीह को सूली पर लटकाया गया था। ईसाइयत, इस्लाम और यहूदी धर्म अपने उद्गम को बाइबल के पात्र अब्राहम से जोड़कर देखते हैं। वर्तमान समय में येरूशलम में 158 गिरिजाघर तथा 73 मस्जिदें हैं। यह नगर चार खण्डों में विभाजित है जिसमें से दो खण्डों में ईसाई, एक में यहूदी तथा एक खण्ड में मुसलमान रहते हैं।
यहूदी खण्ड
यहूदी खण्ड इस नगर का सबसे पुराना खण्ड है। यह हिस्सा कोटेल या पश्चिमी दीवार का घर भी है। यहाँ कभी पवित्र मंदिर खड़ा था। यह दीवार उसी की बची हुई निशानी है। यहाँ के मंदिरों में यहूदियों का सबसे पवित्रतम स्थान ‘होली ऑफ होलीज’ है। यहूदी मानते हैं यहीं पर सबसे पहली उस शिला की नींव रखी गई थी, जिस पर दुनिया का निर्माण हुआ तथा जहाँ अब्राहम ने अपने बेटे इसाक की कुरबानी दी। पश्चिमी दीवार, ‘होली ऑफ होलीज’ की सबसे निकटतम जगह है, जहाँ से यहूदी प्रार्थना कर सकते हैं। इसका प्रबंध पश्चिमी दीवार के रब्बी करते हैं।
आर्मेनियाई खण्ड
ईसाइयों के दो खण्डों में से एक में आर्मेनियाई रहते हैं जो संसार में सबसे पहले ईसाई बनने वाले लोगों के वंशज हैं। उन्होंने जीवित बने रहने के लिए सदियों से कठोर संघर्ष किया है। कहा जाता है कि जेरूसलम का राजा टिरिडेटस (तृतीय) तथा उसकी सम्पूर्ण प्रजा ईसा की चौथी शताब्दी में ईसाई बन गई थी। ऐसा करने वाला यह संसार का पहला राज्य था। कैथोलिक तथा ऑर्थोडॉक्स ईसाई इनके बाद अस्तित्व में आए। आर्मेनियाई खण्ड, येरूशलम नगर के चारों खण्डों में सबसे छोटा है। माना जाता है कि येरूशलम का यह खण्ड, संसार का प्राचीनतम आर्मेनियाई केंद्र है।
ईसाई खण्ड
बड़े ईसाई खण्ड में पवित्र सेपुलकर चर्च है जहाँ ईसा मसीह को सूली पर लटकाया गया था। इसे गोलगाथा भी कहा जाता है। यह विश्व भर के ईसाइयों के आकर्षण का केन्द्र है। यहीं पर वह स्थान भी है जहाँ ईसा फिर से जीवित हो गए थे। इस चर्च का प्रबंध संयुक्त रूप से रोमन कैथोलिक चर्च, आर्मेनियाई पैट्रिआरकट, ग्रीक ऑर्थोडोक्स पैट्रिआरकट, फ्रांसिस्कन फ्रिएर्स आदि ईसाइयों के अलग-अलग संप्रदाय करते हैं। इथियोपियाई, कॉप्टिक्स और सीरियाई ऑर्थोडोक्स चर्च की भी इसमें भूमिका रहती है। यहीं पर ईसा मसीह का खाली मकबरा है।
मुस्लिम खण्ड
मुस्लिम हिस्सा चारों में सबसे बड़ा है। इस हिस्से में गुंबदाकार ‘डोम ऑफ़ रॉक’ यानी क़ुब्बतुल सख़रह और अल-अक्सा मस्जिद स्थित है। यह एक पठार पर स्थित है जिसे मुस्लिम हरम अल शरीफ़ या पवित्र स्थान कहते हैं। मुसलमान मानते हैं कि पैगंबर मुहम्मद अपनी रात्रि-यात्रा में मक्का से यहीं आए थे और उन्होंने आत्मिक तौर पर सभी पैगंबरों से दुआ की थी। क़ुब्बतुल सख़रह से कुछ दूरी पर एक शिला रखी है जिसके बारे में मुसलमान मानते हैं कि मुहम्मद यहीं से स्वर्ग की ओर गए थे।
इस्लाम की आंधी में येरूशलम
अत्यंत प्राचीन काल से येरूशलम यहूदियों का मुख्य केन्द्र था। जब ईसा धर्म अस्तित्व में आया तो यह ईसाइयों के लिए भी महत्त्वपूर्ण हो गया और उन्होंने इसे यहूदियों से छीन लिया। इस कार्य में रोमन सेनाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई। जब ई.632 में हजरत मुहम्मद ने येरूशलम से स्वर्ग को प्रस्थान किया तो मुसलमान भी इस नगर पर अपना अधिकार जताने लगे।
हजरत मुहम्मद की मृत्यु के लगभग 10 साल बाद ई.642 में अरब के मुसलमानों ने फिलीस्तीन तथा उसकी राजधानी जेरूसलम पर अधिकार कर लिया। जेरूसलम के साथ ही ईसा मसीह की समाधि तथा उसके निकट स्थित बड़ा चर्च भी मुसलमानों के अधिकार वाले क्षेत्र में चले गए। पूरा ईसाई समाज इस घटना से सन्न रह गया किंतु कोई कुछ नहीं कर सका। फिर भी ईसाई श्रद्धालु, यीशू मसीह के जीवन प्रसंगों से जुड़े स्थलों को देखने एवं उनकी कब्र पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए जेरूसलम जाते रहे।
7वीं शताब्दी ईस्वी से लेकर 10वीं शताब्दी के समाप्त होने तक जेरूसलम के अरबी मुसलमान शासकों ने ईसाइयों की इन तीर्थ-यात्राओं पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया। न ही कभी इन तीर्थयात्रियों को मुसलमानों द्वारा तंग किया गया।
ईसा की ग्यारहवीं सदी का आरम्भ
ईसा की ग्यारहवीं सदी का अंतिम दशक आरम्भ हो चुका था। इस समय तक ईसाई धर्म को अस्तित्व में आए हुए 1000 साल पूरे हो चुके थे। ईसाइयों की एक पुरानी पुस्तक में लिखा था कि जब ईसाई धर्म 1000 साल का हो जाएगा तो वह पूरी तरह नष्ट हो जाएगा। इस कारण समूचे ईसाई जगत में विचित्र सी बेचैनी व्याप्त थी।
इसी समय दो बड़ी घटनाएं हुईं जिन्होंने यूरोपीय देशों के ईसाइयों को झकझोर कर रख दिया। पहली घटना ई.1071 में सेल्जुक तुर्कों द्वारा कैस्पियन सागर से लेकर जेरूसलम तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लेने के रूप में घटित हुई। सेल्जुक तुर्क भी इस समय तक मुसलमान बन चुके थे और वे जेरूसलम के पूर्ववर्ती अरबी मुसलमानों की अपेक्षा अधिक संकीर्ण विचारों के थे।
उन्होंने जेरूसलम आने वाले ईसाई तीर्थयात्रियों को सताना आरम्भ किया और उन्हें अपमानित करने लगे। क्रोध और अपमान से भरे हजारों ईसाई तीर्थयात्रियों ने यूरोप लौटकर तुर्कों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों का मार्मिक वर्णन किया।
पीटर नाम का एक ईसाई साधु हाथ में लाठी लेकर पूरे यूरोप की यात्रा पर निकल पड़ा और देश-देश घूमकर मुसलमानों द्वारा ईसाई श्रद्धालुओं पर किए जा रहे अत्याचारों का वर्णन करने लगा और ईसाइयों से उनका प्रतिकार करने की पुकार लगाने लगा। वह चाहता था कि संसार के सारे ईसाई एकत्रित होकर जेरूसलम पर धावा बोल दें तथा यीशू मसीह की पवित्र कब्र को जेरूसलम के मुसलमानों से मुक्त करवा लें।
उन्हीं दिनों एक बड़ी घटना और हुई। सेल्जुक तुर्कों ने बड़ी भारी तैयारी के साथ कुस्तुंतुनिया को घेर लिया ताकि पूर्वी रोमन साम्राज्य को जड़ से उखाड़ कर फैंका जा सके। कुस्तुंतुनिया के कमजोर हो चुके ईसाई एम्परर के लिए यह संभव नहीं था कि वह सेल्जुक तुर्कों की विशाल सेना का सामना कर सके। इसलिए उसने तत्काल रोम के पोप ग्रेगरी (सप्तम्) से सहायता की याचना की। कुस्तुंतुनिया का एम्परर इस समय रोम के साथ अपनी पुरानी शत्रुता को भूल गया। रोम ने भी सदाशयता दिखाने में कोई कसर नहीं दिखाई तथा कुस्तुंतुनिया बच गया।
ईसाइयों को लगा कि ईसाई धर्म की स्थापना के 1000 साल बाद इसके नष्ट हो जाने की जो भविष्यवाणी प्राचीन ईसाई ग्रंथ में की गई थी, उसके सत्य सिद्ध होने के लक्षण प्रकट होने लगे थे। पोप उरबान (द्वितीय) ने ईसाई जगत की इस बेचैनी को समझा और इस संकट में ईसाई जगत् का नेतृत्व करने का निर्णय लिया। उसने ई.1095 में दक्षिणी फ्रांस के ‘क्लेरमोंट’ नामक शहर में ईसाई संघ की एक महापरिषद् बुलाई जिसमें ईसाई धर्म के यूनानी और लैटिन सम्प्रदायों सहित अन्य सम्प्रदायों के ईसाई भी सम्मिलित हुए।
इस परिषद् में पोप अरबान (द्वितीय) ने एक जोशीले भाषण में समस्त अच्छे ईसाइयों से आग्रह किया- ‘पवित्र भूमि को दुष्ट जाति से छीन लो तथा उसे अपने कब्जे में ले लो। जो लोग इस अभियान में मारे जाएंगे उनको पापों से तत्काल छुटकारा मिल जाएगा, धर्म-युद्ध शुरू हो गया है।’
पोप के इस निर्णय को आलंकारिक भाषा में हिलाल (मुसलमानों का धार्मिक चिह्न- दूज का चांद) के खिलाफ क्रॉस (ईसाइयों का धार्मिक चिह्न- सूली) का क्रूसेड (धर्मयुद्ध) कहा गया। मुसलमानों के ‘जिहाद‘ के विरुद्ध ‘क्रूसेड’ की घोषणा वस्तुतः मुसलमानों को उनकी ही भाषा में जवाब देने जैसा था। इस महापरिषद् के बाद संसार भर में क्रूसेड आरम्भ हो गए। जिहाद तो इस्लाम के जन्म के समय से चल ही रहा था।
दुनिया के तीन हिस्से
ध्यान से देखा जाए तो इस समय दुनिया तीन हिस्सों में बंट गई थी। पहले हिस्से अर्थात् ईसाइयों के झण्डों में तारे झिलमिला रहे थे, दूसरे हिस्से अर्थात् मुसलामनों के झण्डों में चंद्रमा टेढ़ा होकर बैठा था और तीसरे हिस्से अर्थात् हिन्दुओं एवं बौद्धों के झण्डों पर सूर्य जगमगा रहा था। चंद्रमा वाला हिस्सा एक ओर तारों वाले हिस्से को और दूसरी ओर सूर्य वाले हिस्से को निगल जाना चाहता था।
तारों वाले हिस्से द्वारा क्रूसेड की घोषणा किए जाने के पीछे इसी चाहत को नष्ट करने का संकल्प था। सूरज के झण्डों वाले लोग परस्पर लड़ने में लगे थे, उन्होंने कभी भी संगठित होने की बात नहीं सोची। वे स्वयं को सूर्यवंशी कहते थे किंतु प्रतिहार, परमार, चौलुक्य एवं चौहान आदि राजवंशों में बंटकर एक दूसरे को शत्रुवत् देखते थे। चीन, जापान एवं इण्डोनेशिया आदि में भी सूरज के झण्डों वाले लोग रहते थे किंतु वे चांद के झण्डों वाले लोगों से स्वयं को बहुत दूर समझते थे।
क्रूसेड के अंतर्गत आने वाले युद्ध
यूरोप के ईसाइयों ने ई.1095 से ई.1291 के बीच, फिलिस्तीन और उसकी राजधानी जेरूसलम में स्थित ईसा मसीह की कब्र एवं उसके निकट स्थित बड़े गिरजाघर को मुसलमानों से वापस प्राप्त करने के लिए जो युद्ध किए उनको सलीबी युद्ध, ईसाई धर्मयुद्ध, क्रूसेड अथवा क्रूश-युद्ध कहा जाता है। इतिहासकार कुल सात क्रूसेड घटित होने मानते हैं। इनमें से कुछ तो ईसाइयों के परस्पर संघर्ष ही थे तथा उन संघर्षों का धर्म से कोई लेना-देना नहीं था, वे विशुद्ध राजनीति एवं परस्पर ईर्ष्या-द्वेष की उपज थे।
प्रथम क्रूसेड (ई.1096-1099)
ई.1095 में पोप उरबान (द्वितीय) ने ईसाई संघ के माध्यम से विश्व भर के ईसाई समुदाय को आदेश दिया कि- ‘वे पवित्र नगर के उद्धार के लिए सेनाएं सजाएं।’
पोप के आदेश के साथ ही धर्मयुद्ध आरम्भ हो गए। ये कब और कहाँ जाकर समाप्त होने वाले थे, किसी को कुछ पता नहीं था। ये युद्ध ईसाई जगत के घमण्ड की उपज नहीं थे, उनकी विवशता थे।
यदि वे सलीब के युद्धों का मार्ग नहीं अपनाते तो उस काल में चल रही इस्लाम की आंधी में इतनी बुरी तरह नष्ट हो जाते कि आने वाले कुछ ही दशकों में दुनिया में ईसाइयों का नामोनिशान तक नहीं रह जाता। क्योंकि इस्लाम अब अरबी खलीफाओं के हाथों में नहीं रह गया था जो इस्लाम को अरब तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्रों तक फैला कर विश्राम की मुद्रा में चले गए थे। इस्लाम का झण्डा इस समय तुर्कों के हाथों में था जो अरबी खलीफाओं की अपेक्षा अधिक युद्ध-प्रिय थे तथा कुछ ही समय पहले मुसलमान बनाए जाने के कारण अधिक उत्साह में थे।
क्रूसेड्स के रूप में ईसाइयों की तरफ से धर्म नामक संस्था को दिया गया विश्व का सबसे बड़ा बलिदान था। लगभग ढाई सौ वर्षों तक ईसाई सेनाएं, इस्लामिक सेनाओं से मोर्चा लेती रहीं। बीच-बीच में युद्ध थम भी जाता था किंतु बंद नहीं होता था। लाखों ईसाई परिवारों ने अपने लाड़ले पुत्रों को धर्म की रक्षा करने के लिए भेज दिया।
प्रथम क्रूसेड में दो प्रकार के क्रूशधरों (धर्म-सैनिकों) ने भाग लिया। पहले वर्ग में फ्रांस, जर्मनी और इटली के जन-सामान्य लोग थे जो मार्च 1096 में लाखों की संख्या में पोप और सेंट पीटर की प्रेरणा से अपने बाल-बच्चों के साथ गाड़ियों पर सामान लादकर ‘ईसाई साधु पीटर’ और अन्य ईसाई प्रेरकों के पीछे पवित्र भूमि की ओर थलमार्ग से कुस्तुंतुनिया होते हुए जेरूसलम की ओर चल दिए। कई लाख युवक अपनी इच्छा से ही अपना घर-बार छोड़कर जेरूसलम में लड़ने-मरने चले गए।
उनमें यह उच्च भावना काम कर रही थी कि चाहे जो हो जाए, ईसा की पवित्र भूमि जेरूसलम को विधर्मियों के चंगुल से मुक्त करवाया जाना चाहिए। कुछ लोगों द्वारा जेरूसलम में मृत्यु को गले लगाने के पीछे पोप द्वारा दिया गया यह आश्वासन कार्य कर रहा था कि ईसा की भूमि पर शरीर गंवाने से ईश्वर के दरबार में उनके अपराध क्षमा कर दिए जाएंगे।
ईसाइयों का यह बलिदान ठीक वैसा ही था, जैसा कि बाद में भारत-भूमि पर मुगल बादशाह औरंगजेब के शासन-काल में भारतीय सिक्खों ने धर्म की रक्षा के लिए अपने लाड़ले बेटों को हँसते-हँसते बलिदान कर दिया था।
अधिकांश ईसाई धर्म-सैनिकों में जोश तो था किंतु उनके पास भोजन सामग्री और परिवहन के साधन नहीं थे। इस कारण वे मार्ग में लूट-खसोट और यहूदियों की हत्या करते गए। इन झगड़ों में बहुत से ईसाई-क्रूशधर जेरूसलम पहुँचने से पहले ही मारे गए।
यह लूट-खसोट इतनी भयावह थी कि पूर्वी रोमन साम्राज्य के एम्परर ने इन क्रूशधरों के कुस्तुंतुनिया नगर पहुँचने पर, दूसरे क्रूशधर दलों की प्रतीक्षा किए बिना ही, उन्हें बास्फोरस के पार उतरवा दिया ताकि वे कुस्तुंतुनिया की जनता के साथ लूट-खसोट नहीं करें। ये धर्म सैनिक जब बास्फोरस से आगे बढ़कर तुर्कों के अधिकार-क्षेत्र में प्रविष्ट हुए तो उनमें से बहुत से, तुर्कों द्वारा बेरहमी से मार दिए गए।
वे नेतृत्व विहीन थे और उन्हें पता नहीं था कि सशस्त्र सेनाओं से किस प्रकार लड़ा जाता है! इस कारण ईसाई क्रूशधरों में दिग्भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई कि अब वे क्या करें! ईसाई धर्म-सैनिकों के बीच उत्पन्न दिग्भ्रम की स्थिति में बुइलों गांव का नॉर्मन नामक एक ईसाई युवक सामने आया। उसने जेरूसलम की ओर बढ़ रहे नेतृत्व-विहीन ईसाई युवकों को संगठित एवं अनुशासित किया तथा उन्हें एक व्यवस्थित सेना का रूप दे दिया।
क्रूशधरों का दूसरा दल पश्चिमी यूरोप के कई सामंतों की सेनाओं के रूप में था जो अलग-अलग मार्गों से कुस्तुंतुनिया पहुँचे। इनमें लरेन का ड्यूक गाडफ्रे और उसका भाई बाल्डविन, दक्षिण फ्रांस स्थित तूलू का ड्यूक रेमोंय, सिसिली के विजेता नार्मनों का नेता बोहेमों आदि सम्मिलित थे।
पूर्वी रोमन सम्राट् ने इन सामंती-सेनाओं को मार्ग, परिवहन, रसद इत्यादि की सुविधाएँ और सैनिक सहायता दी तथा बदले में इन सामंतों से प्रतिज्ञा कराई कि पूर्वी रोमन साम्राज्य के वे भूतपूर्व प्रदेश जो तुर्कों ने हथिया लिए थे, ईसाई राजाओं एवं सामंतों द्वारा जीत लिए जाने पर पूर्वी रोमन साम्राज्य को लौटा दिए जाएँगे।
यद्यपि यूरोपीय राजाओं ने इस प्रतिज्ञा का पालन नहीं किया तथा पूर्वी रोमन सम्राट् ने भी यूरोपीय राजाओं को यथेष्ट सहायता नहीं दी तथापि क्रूशधर सेनाओं को इस युद्ध में पर्याप्त सफलता मिली।
जब कई यूरोपीय देशों की सेनाएं एक साथ तुर्कों के अधिकार वाले क्षेत्र में पहुँचीं तो लाखों की संख्या में पहले से ही प्रतीक्षा कर रहे साधारण ईसाई नागरिक भी धर्मसैनिकों के रूप में इनके साथ हो लिए। तुर्कों ने ईसाइयों की इतनी बड़ी संख्या देखकर, बिना लड़े ही निकाया नगर और उससे संबंधित प्रदेश पूर्वी रोमन सम्राट् को दे दिए तथा उससे समझौता करने का प्रयास किया।
चूंकि यह क्रूसेड पूर्वी रोमन साम्राज्य के खोए हुए हिस्सों को फिर से पाने के लिए नहीं हो रहा था, इसका उद्देश्य तो जेरूसलम पर अधिकार प्राप्त करना था। इसलिए ईसाई सेनाएं आगे बढ़ती रहीं और दोरीलियम नामक स्थान पर उन्होंने तुर्कों को परास्त कर दिया।
वहाँ से आगे बढ़कर ये सेनाएं अंतिओक पहुँचीं। अंतिओक पर आठ महीने के घेरे के बाद उसे भी जीत लिया गया। इससे पहले ही बाल्डविन ने अपनी सेना अलग करके पूर्व की ओर अर्मीनिया के अंतर्गत ‘एदेसा’ नामक प्रदेश पर अधिकार कर लिया। यह भी ईसाइयों की एक बड़ी जीत थी।
नवम्बर 1098 में, सम्मिलित ईसाई सेनाएँ अंतिओक से चलकर मार्ग में स्थित त्रिपोलिस, तीर तथा सिजरिया के शासकों से दंड-राशि वसूल करते हुए जून 1099 में जेरूसलम पहुँची। पाँच सप्ताह के घेरे के बाद जुलाई 1099 में यूरोपीय देशों से आई हुई स्थाई सेनाएं तथा धर्म-सैनिक बनकर आए हुए साधारण नागरिकों के समूह एक दिन जेरूसलम में घुस गए और सेलजुक तर्कों पर टूट पड़े। जेरूसलम में भयानक मारकाट मच गई।
दोनों ही तरफ के लोग लड़ने के जोश में थे तथा जेरूसलम को किसी भी कीमत पर हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। अंत में जेरूसलम पर ईसाई सेनाओं का अधिकार हो गया। जेरूसलम में उपस्थित समस्त मुसलमान और यहूदी नागरिकों की, स्त्रियों और बच्चों सहित निर्मम हत्या कर दी गई। इस प्रकार साढ़े चार सौ साल से अधिक समय बाद जेरूसलम को मुसलमानों से मुक्त करवाया जा सका।
एक फ्रैंच ईसाई युवक ने इस युद्ध के आंखों देखे विवरण में लिखा है- ‘मसजिद की बरसाती के नीचे घुटनों तक खून था जो घोड़ों की लगाम तक पहुँच जाता था।’
इस वियज के बाद लरेन का ड्यूक गॉडफ्रे जेरूसलम का राजा बन गया तथा क्रूशधरों ने जीते हुए प्रदेशों में अपने चार राज्य स्थापित कर लिए। इस कारण पूर्वी रोमन सम्राट् उनसे अप्रसन्न हो गया किंतु इन नए राज्यों को वेनिस तथा जेनोआ आदि नौ-सैनिक शक्तियों ने समर्थन एवं सैनिक सहायता दे दी ताकि इन नए ईसाई राज्यों के सहारे वेनिस एवं जेनोआ से लेकर एशिया तक के पुराने वाणिज्यिक मार्ग को पुनः खोला जा सके।
धर्म-सैनिकों के दो दल, जो नाइट्स टेंप्लर्स (मठ-रक्षक) तथा नाइट्स हॉस्पिटलर्स (स्वास्थ्य-रक्षक) के नाम से प्रसिद्ध हैं, भी इन नए राज्यों के सहायक बन गए। नाइट्स टेंप्लर्स एवं नाइट्स हॉस्पिटलर्स नामक धर्म-सैनिक भी पादरियों और भिक्षुओं की तरह पोप से दीक्षा पाते थे और आजीवन ब्राहृचर्य रखने तथा धर्म, असहाय स्त्रियों और बच्चों की रक्षा करने की शपथ लेते थे।
राजाओं और व्यापारियों के उद्देश्य
जहाँ एक ओर ईसाई युवक उच्च भावनाओं के वशीभूत होकर अपने प्राणों एवं परिवारों का बलिदान दे रहे थे, वहीं दूसरी ओर रोम और कुस्तुंतुनिया अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेक रहे थे। रोम का लैटिन ईसाई संघ स्वयं को कुस्तुंतुनिया के यूनानी ईसाई संघ से श्रेष्ठ एवं बड़ा समझता था जबकि कुस्तुंतुनिया का यूनानी ईसाई संघ पोप की सत्ता को उपेक्षा भरी निगाह से देखता था।
क्रूसेड्स की आड़ में लैटिन और यूनानी ईसाई अर्थात् रोम और कुस्तुंतुनिया एक दूसरे से बड़े हो जाने तथा एक दूसरे पर हावी हो जाने का खेल खेलने लगे जो कभी-कभी आम ईसाई युवकों की समझ में भी आ जाता था।
क्रूसेडों के पीछे वेनिस और जेनोआ के उद्देश्य दूसरे ईसाइयों की अपेक्षा अलग थे। सेल्जुक तुर्कों ने जेरूसलम पर अधिकार करने से पहले, यूरोपीय देशों विशेषकर वेनिस एवं जेनोआ के बंदरगाहों से पूर्व की ओर जाने वाले अर्थात् एशियाई देशों को जाने वाले व्यापारिक मार्गों को अवरुद्ध कर दिया था।
इससे वेनिस एवं जेनोआ के व्यापारियों को बड़ा नुक्सान हो रहा था। यदि क्रूसेड्स में ईसाइयों की विजय हो जाती तो सेल्जुक तुर्क पीछे धकेल दिए जाते तथा पूर्व की ओर जाने वाले व्यापारिक मार्ग पहले की भांति खुल जाते।
जब जन-साधारण महान् उद्देश्यों के लिए स्वयं को बलिदान कर रहा होता है, तब राजनीतिक लोग और व्यापारी अपने-अपने लाभ-हानि का गणित कर रहे होते हैं। वे बलिदान के उच्च आदर्शों से शायद ही कभी अनुप्राणित होते हैं। वे जनता को महानता का पाठ पढ़ाते हैं और अपने वास्तविक उद्देश्यों को बड़ी चतुराई से छिपाकर रखते हैं। ऐसा ही कुछ यहाँ भी हो रहा था।
क्रूसेड का घृणित पक्ष
जब जेरूसलम के आसपास लाखों ईसाई स्त्री-पुरुष एवं बच्चे जमा हो गए और दूर-दूर तक उनके खेमे दिखाई देने लगे तो बहुत से चोर-उचक्के और लुटेरे भी आ-आकर जमा होने लगे ताकि अवसर मिलते ही उनका सामान उठाकर भाग सकें। कुछ ईसाई युवक ऐसे भी थे जो इस धर्मयुद्ध की वास्तविक दिशा को नहीं समझ सके।
उन्होंने मार्ग में मिलने वाले यहूदियों पर आक्रमण करके उन्हें मारना शुरु कर दिया। कुछ उद्दण्ड ईसाई युवकों ने मार्ग में पड़ने वाले गांवों एवं खेतों से अन्न, दूध, मांस आदि की लूट मचानी आरम्भ कर दी। इससे जेरूसलम के चारों तरफ के गांवों में आतंक फैल गया और वे इन युवकों को खदेड़ने के लिए संगठित हो गए। इससे क्रूसेड की दशा और दिशा दोनों बिगड़ने लगी। जेरूसलम के चारों ओर लूट, बलवा, हिंसा, बलात्कार, चोरी और हत्याओं का वातावरण बन गया।
पं. जवाहरलाल नेहरू ने क्रूसेडों में सम्मिलित इन युवकों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है- ‘क्रूसेड में शामिल होने वाले लोगों में पुण्यात्मा और धर्मात्मा लोग भी थे और आबादी का वह कूड़ा-कर्कट भी जो हर तरह का जुर्म कर सकता था। इनमें से ज्यादातर ने नीच से नीच और महाघृणित अपराध किए।’
द्वितीय क्रूसेड (ई.1147-1149)
ई.1144 में मोसुल के तुर्क शासक इमादउद्दीन जंगी ने ईसाई शासक से अर्मीनिया के अंतर्गत स्थित ‘एदेसा’ प्रदेश छीन लिया जो ई.1096 से ईसाइयों के अधीन था। एदेसा के ईसाई शासक ने पोप से सहायता मांगी। उस काल के प्रसिद्ध ‘ईसाई संत बर्नार्ड’ ने भी मुसलमान आक्रांता के विरुद्ध क्रूसेड करने के लिए प्रचार किया।
इस पर पश्चिमी यूरोप के दो प्रमुख राजा- फ्रांस का शासक लुई सप्तम् एवं जर्मनी का शासक कोनराड (तृतीय) तीन लाख सैनिकों के साथ थलमार्ग से कुस्तुंतुनिया होते हुए एशिया माइनर पहुँचे। इन राजाओं में परस्पर वैमनस्य और पूर्वी रोमन सम्राट् की उदासीनता के कारण इन्हें कोई सफलता नहीं मिली।
ई.1147 में जर्मन सेना, ‘इकोनियम के युद्ध’ में परास्त हो गई। इसी प्रकार ई.1148 में फ्रांस की सेना भी ‘लाउदीसिया के युद्ध’ में पराजित हो गई। ये सेनाएँ समुद्री मार्ग से अंतिओक होती हुई जेरूसलम पहुँची और वहाँ के ईसाई शासक के सहयोग से दमिश्क पर घेरा डाला परन्तु यहाँ भी इन सेनाओं को कोई सफलता नहीं मिली। इस प्रकार द्वितीय क्रूसेड असफल हो गया तथा ‘एदेसा’ मुसलमानों के ही अधिकार में बना रहा।
तृतीय क्रूसेड (ई.1188-1192)
ई.1187 में मिस्र के सुलतान सलाउद्दीन ने जेरूसलम पर हमला बोल दिया। उसने जेरूसलम के ईसाई राजा को ‘हत्तिन के युद्ध’ में परास्त करके बंदी बना लिया और जेरूसलम पर अधिकार कर लिया। इस कारण पूरे यूरोप में पुनः क्रूसेड भड़क गए। ई.1188 में सुलतान सलाउद्दीन ने फिलीस्तीन के समुद्री तट पर स्थित ‘तीर’ नामक ‘बंदरगाह’ पर आक्रमण किया किंतु वह इस बंदरगाह को ईसाइयों से छीनने में विफल रहा।
अगस्त 1189 में ईसाई सेना ने ‘एकर’ नामक बंदरगाह पर घेरा डाला जो सलाउद्दीन के अधिकार में था। यह घेरा 23 महीने तक चला किंतु इसका कोई परिणाम नहीं निकला। जब अप्रैल 1191 में फ्रांस की सेना और जून 1191 में इंग्लैण्ड की सेना ईसाइयों की सहायता के लिए वहाँ पहुँची तो सलाउद्दीन ने अपनी सेना हटा ली। इस प्रकार जेरूसलम के राज्य में से (जो 1099 में स्थापित चार ईसाई राज्यों में प्रमुख था) केवल समुद्र-तट का वह भाग, जिसमें ये बंदरगाह (एकर तथा तीर) स्थित थे, शेष रह गया।
जेरूसलम में इस बार का क्रूसेड ठीक वैसा ही था जिस प्रकार सोलहवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी के अंत तक हिन्दू धर्मावलम्बियों ने अयोध्या की रामजन्म भूमि को मुक्त कराने के लिए संघर्ष का मार्ग अपनाया एवं हजारों लोगों ने अपने राजाओं सहित बलिदान दिए। आज इक्कीसवीं सदी में भी न तो जेरूसलम पूरी तरह मुक्त हो पाया है और न अयोध्या की रामजन्म भूमि।
इस क्रूसेड के लिए यूरोप के तीन प्रमुख राजाओं ने बड़ी तैयारी की थी पर अपने स्वार्थों एवं अहंकारों के कारण एक-दूसरे से सहयोग नहीं कर सके और विफल रहे। जर्मन सम्राट् फ्रेडरिक (प्रथम) जिसकी आयु 80 वर्ष से अधिक थी और जिसे यूरोप के इतिहास में लालमुँहा (बार्बरोसा) कहा जाता है, ई.1189 के आरंभ में थलमार्ग से एशिया माइनर (जिसे पहले एशिया कोचक कहते थे और अब तुर्की कहते हैं) की ओर रवाना हुआ।
उसने एशिया माइनर के तुर्क अधिकृत क्षेत्र में प्रवेश करके कुछ प्रदेश जीत लिए किंतु फ्रेडरिक (प्रथम) जून 1190 में आर्मीनिया की एक पहाड़ी नदी को तैरकर पार करते समय डूबकर मर गया। उसके बहुत से सैनिक भी मारे गए। जो सैनिक किसी तरह जीवित बचे, वे आर्मीनिया से भागकर सम्राट के पौत्र फ्रेडरिक (द्वितीय) से ‘एकर’ के घेरे में जा मिले।
फ्रांस का राजा फिलिप ओगुस्तू ‘जेनोआ’ के बंदरगाह से अपनी सेना को पानी के जहाजों में भरकर रवाना हुआ किंतु सिसिली पहुँचने पर उसका इंग्लैण्ड के राजा से विवाद हो गया जो कि अब तक उसका परम मित्र रहा था। इस विवाद के कारण फ्रांस का राजा एक वर्ष तक सिसली से आगे नहीं बढ़ सका और अप्रैल 1191 में एकर पहुँच पाया। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मुस्लिम सेनाएं अपनी स्थिति पर्याप्त मजबूत कर चुकी थीं।
इस क्रूसेड का प्रमुख, इंग्लैण्ड का राजा रिचर्ड (प्रथम) था, जो फ्रांस के एक प्रदेश का ड्यूक भी था और अपने पिता के राज्यकाल में फ्रांस के राजा का परम मित्र रहा था। इसने अपनी सेना फ्रांस में ही एकत्र की और वह फ्रांस की सेना के साथ ही समुद्रतट तक गई। इंग्लैण्ड का समुद्री बेड़ा ई.1189 में ही वहाँ से चलकर ‘मारसई’ के बंदरगाह पर पहुँच गया।
इस सेना का कुछ भाग रिचर्ड के साथ इटली होता हुआ सिसिली पहुँचा। यहाँ फ्रांस नरेश से अनबन हो जाने के कारण लगभग एक वर्ष निकल गया। वहाँ से दोनों अलग हो गए और रिचर्ड ने साइप्रस का द्वीप जीतने के बाद थोड़ा समय अपना विवाह करने में व्यय किया। इस कारण वह फ्रांस के राजा से दो महीने बाद ‘एकर’ के बंदरगाह पर पहुँचा। फिर भी एकर मुक्त करा लिया गया किंतु इसके बाद राजाओं में पुनः मतभेद भड़क गया। इससे नाराज होकर फ्रांस का राजा अपने देश लौट गया।
रिचर्ड ने अकेले ही तुर्कों से नौ लड़ाइयाँ लड़ीं। वह जेरूसलम से लगभग 10 किलोमीटर दूर रह गया किंतु जेरूसलम पर घेरा नहीं डाल सका। अतः उसने युद्ध का मैदान छोड़ दिया और वहाँ से लौटकर सितंबर 1192 में समुद्र तट पर स्थित ‘जफ्फा’ में सुल्तान सलाउद्दीन से संधि कर ली जिससे ईसाई यात्रियों को बिना रोक-टोक के जेरूसलम की यात्रा करने की सुविधा दे दी गई और तीन वर्ष के लिए युद्ध-विराम घोषित कर दिया गया।
युद्ध विराम की अवधि बीत जाने पर जर्मन सम्राट् हेनरी (षष्ठम्) ने जेरूशलम पर आक्रमण किया। ईसाई राजाओं की दो सेनाएँ समुद्री मार्ग से उसकी सहायता के लिए आईं किंतु सेनाओं में समन्वय न होने के कारण हेनरी (षष्ठम्) को कोई सफलता नहीं मिली।
क्रूसेड में शामिल होने वाले राजाओं के व्यवहार एवं आचरण पर टिप्पणी करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है- ‘क्रूसेड में शामिल होने वाले बादशाह और एम्परर इस बात पर आपस में ही झगड़ते थे कि बड़ा कौन है और एक दूसरे से ईर्ष्या रखते थे। ये क्रूसेड वीभत्स और क्रूर लड़ाइयों की और अक्सर साजिशों और नीच अपराधों की कहानी हैं।’
क्रूसेड के बीच मानवता के दर्शन
क्रूसेड्स के दौरान दोनों तरफ से होने वाली अमानवीयताओं के बीच कुछ बहुत अच्छे उदाहरण भी देखने को मिले। एक बार इंग्लैण्ड का राजा ‘शेरदिल रिचर्ड’ फिलीस्तीन में युद्ध के मैदान में लू लगने से गंभीर रूप से बीमार हो गया। वह संसार भर के राजाओं में अपने शारीरिक बल, शौर्य एवं उदारता के लिए विख्यात था।
जब सुल्तान सलाउद्दीन को रिचर्ड को लू लगने की जानकारी हुर्ह तो उसने पहाड़ों से बर्फ की बड़ी-बड़ी सिल्लियां कटवाकर मंगवाई और इंग्लैण्ड के राजा के शिविर में भिजवाईं ताकि राजा के शिविर को ठण्डा रखा जा सके। क्रूसेड्स की पृष्ठभूमि पर 18वीं शताब्दी ईस्वी में वॉल्टर स्कॉट नामक एक अंग्रेजी लेखक ने ‘टैलिसमैन’ शीर्षक से एक उपन्यास लिखा जो पूरी दुनिया में विख्यात हुआ।
लैटिन ईसाइयों का कुस्तुंतुनिया पर अधिकार
(चौथा क्रूसेड)
इस क्रूसेड का प्रवर्त्तक रोम का पोप इन्नोसेंट (तृतीय) था। वह ईसाई मत के लैटिन कैथोलिक सम्प्रदाय और यूनानी ऑर्थोडॉक्स सम्प्रदाय को मिलाकर एक करने का प्रबल इच्छुक था। इस कारण वह पूर्वी रोमन साम्राज्य के एम्परर को भी अपने अधीन करना चाहता था। पोप की शक्ति इस समय चरम पर थी।
वह जिस ईसाई राजा को चाहता राज्य दे देता था या राज्य से हटा देता था।। उसकी इस नीति को उस समय के नौसेना और वाणिज्य में सबसे शक्तिशाली राज्य वेनिस और नार्मन जाति की भी सहानुभूति और सहयोग प्राप्त था। संयोगवश पोप को कुस्तुंतुनिया की राजनीति में सीधे-सीधे हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया।
ई.1202 में पूर्वी रोमन साम्राज्य के सम्राट् ईजाक्स को उसके भाई आलेक्सियस ने बंदी बना लिया और उसे अंधा करके स्वयं पूर्वी रोमन साम्राज्य का सम्राट् बन बैठा। इस पर पोप इन्नोसेंट (तृतीय) के आदेश से पश्चिमी रोमन साम्राज्य की सेनाएँ समुद्री मार्ग से कुस्तुंतुनिया पहुँचीं और आलेक्सियस को हटाकर ईजाक्स को फिर से पूर्वी रोमन साम्राज्य की गद्दी पर बैठा दिया।
कुछ समय बाद ईजाक्स की मृत्यु हो जाने पर पश्चिमी-रोमन सेनाओं द्वारा फिर से कुस्तुंतुनिया पर घेरा डाला गया। पश्चिमी-रोमन साम्राज्य की सेनाओं ने कुस्तुंतुनिया पर अधिकार कर लिया तथा कुस्तुंतुनिया को जमकर लूटा। उन्होंने राजकोष से धन, रत्न और कलाकृतियों को निकाल लिया तथा कुस्तुंतुनिया के प्रसिद्ध ‘सेंट साफिया चर्च’ को भी लूट लिया जिसे सम्राट कोंस्टेन्टीन की माता ने बनाया था और जिसकी छत में, कुस्तुंतुनिया के एक एम्परर ने 18 टन सोना लगाया था।
कुस्तुंतुनिया में भी रोमन ईसाई संघ की स्थापना कर दी गई। इसके बाद पोप के आदेश से बैल्जियम के सामंत बल्डिविन को पूर्वी रोमन साम्राज्य का शासक नियुक्त किया गया। इस प्रकार पूर्वी साम्राज्य भी पश्चिमी रोमन साम्राज्य के अधीन हो गया। अगले 60 वर्ष तक यही स्थिति बनी रही। अंत में यूनानी ईसाइयों ने अपनी पुरानी राजधानी पर अधिकार करने का निर्णय लिया और वे संगठित होकर लौट आए। उन्होंने लैटिन ईसाइयों को कुस्तुंतुनिया से मार भगाया। पोप को चुप होकर बैठना पड़ा।
बच्चों का क्रूसेड
क्रूसेड युग की सबसे दुर्दांत घटनाओं में से एक है- ‘बच्चों का क्रूसेड’। प्रत्येक मनुष्य को अपना सम्प्रदाय सच्चे और एक मात्र अनुकरणीय धर्म के रूप में दिखाई देता है। उसके मन में निवास करने वाली यह भावना उसे अपने धर्म को ऊँचा ले जाने तथा दूसरों के मत या सम्प्रदाय को नीचा दिखाने की ओर प्रवृत्त करती है। कभी-कभी यह भावना बच्चों को भी भीतर से जकड़ लेती है। इसी बालसुलभ मनोविज्ञान के चलते बच्चों के क्रूसेड की अत्यंत विनाशकारी दुर्घटना घटित हुई।
हालांकि मानव जाति का इतिहास एक से बढ़कर एक क्रूर घटनाओं से भरा पड़ा है किंतु बच्चों का क्रूसेड इतिहास की उन क्रूरतम घटनाओं में से एक है जिसकी मिसाल अन्यत्र मिलना कठिन है। ई.1212 में फ्रांस और जर्मनी के नागरिकों में जेरूसलम को मुक्त करवाने की भावना अपने चरम पर थी। उन्हीं दिनों फ्रांस में स्तेफाँ नामक एक किसान ने, जो कुछ चमत्कार भी दिखाता था, घोषणा की कि- ‘उसे ईश्वर ने मुसलमानों को परास्त करने के लिए धरती पर भेजा है और यह पराजय बालकों के द्वारा होगी।’
इस प्रकार बालकों के धर्मयुद्ध का प्रचार हुआ। 30,000 बालक-बालिकाएँ, जिनमें से अधिकांश 12 वर्ष से कम अवस्था के थे, क्रूसेड के पवित्र उद्देश्य के लिए सात जहाजों में बैठकर फ्रांस के दक्षिणी बंदरगाह ‘मारसई’ से रवाना हुए। उन्हें विश्वास दिलाया गया कि वे मार्ग में आने वाले अन्य समुद्रों की यात्राओं को पैदल चलकर ही संपन्न कर लेंगे।
दुर्भाग्यवश दो जहाज समस्त यात्रियों सहित समुद्र में डूब गए। शेष जहाजों के यात्री सिकंदरिया में पकड़ लिए गए और दास बनाकर बेच दिए गए। इनमें से कुछ बच्चे 17 वर्ष उपरांत ईसाइयों एवं मुसलमानों में हुई एक संधि के बाद गुलामी से मुक्त हुए।
उसी वर्ष अर्थात् ई.1212 में ही 20,000 बच्चों का दूसरा दल जर्मनी में तैयार किया गया। जब यह दल ‘जेनोआ’ पहुँचा तो वहाँ के चर्च के सबसे बड़े पादरी ने बच्चों को वापस अपने घरों को लौट जाने का परामर्श दिया। जब ये बालक जर्मनी लौट रहे थे तो उनमें से बहुत से बच्चे पहाड़ी-यात्रा की कठिनाइयों के कारण भूख-प्यास एवं बीमारियों से मर गए।
जब फ्रांस और जर्मनी से बालकों के दल क्रूसेड के लिए रवाना हुए तो अन्य ईसाई देशों के बच्चों में भी क्रूसेड के लिए जोश उत्पन्न हुआ और वे भी ईसा मसीह की पवित्र कब्र को मुसलमानों से मुक्त करवाने के लिए फिलीस्तीन के लिए भाग खड़े हुए। उनमें से कितने ही बच्चे मार्ग की कठिनाइयों, भूख-प्यास और बीमारियों से मर गए। कुछ बदमाशों ने फिलीस्तीन की तरफ भाग रहे बच्चों को अगुआ करके गुलामों के रूप में मुस्लिम देशों में भेज दिया।
‘मार्सेल्स’ में इस काम के लिए बड़े गिरोह संगठित हो गए। वे इन बच्चों से वायदा करते थे कि उन्हें फिलीस्तीन पहुँचा दिया जाएगा। जब बच्चे उनके विश्वास में आ जाते तो बदमाशों के गिरोह इन बच्चों को गुलामों के व्यापारियों के हाथों में बेच देते। गुलामों के व्यापारी इन बच्चों को अपने जहाजों में भरकर मिस्र ले जाते जहाँ उनका खतना करके मुसलमान बना दिया जाता और मुस्लिम अमीरों को बेच दिया जाता।
क्रूसेड की बड़ी दुर्घटनाएं
न तो फिलीस्तीन ईसाइयों के हाथ आता था और न क्रूसेड्स का अंत आता था। ईसाई जन-समुदाय यीशू की पवित्र भूमि को पाने के लिए अपना रक्त बहाए जा रहा था। इस दौरान कई बड़ी दुर्घटनाएं भी हुईं। जब इंग्लैण्ड का सम्राट रिचर्ड स्वस्थ होकर वापस अपने देश लौट रहा था तो मार्ग में उसे मुसलमानों ने पकड़ लिया।
उसे बड़ी रकम देकर छुड़ाया गया। फ्रांस के सम्राट को फिलीस्तीन में ही पकड़ लिया गया। उसे भी बड़ी राशि देकर छुड़ाया गया। पवित्र रोमन साम्राज्य का एम्परर फ्रेडरिक (प्रथम) अर्थात् फ्रेडरिक बारबरोसा क्रूसेड में भाग लेने के लिए फिलीस्तीन गया और आर्मीनिया क्षेत्र में तैर कर नदी पार करते हुए मर गया।
मंगोलों की आंधी
बारहवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में, मध्य-एशिया में मंगोलों की आंधी उठी। हिंसक मंगोल लुटेरे टिड्डी दलों की तरह मध्य-एशिया से निकल कर चारों दिशाओं में स्थित दुनिया को बर्बाद कर देने के लिए बेताब हो रहे थे। यही कारण था कि सम्पूर्ण मुस्लिम जगत् एवं सम्पूर्ण ईसाई जगत् इस आंधी की भयावहता को देखकर थर्रा उठे।
मंगोल सेनाएं जिस दिशा में मुड़ जाती थीं, उस दिशा में बर्बादी की निशानियों के अलावा और कुछ नहीं बचता था। इस काल में भारत तथा दक्षिण-पूर्वी ऐशिया के बहुत से हिन्दू राज्य, मध्य एशिया से आए तुर्कों के अधीन थे और पहले से ही भारी विपत्ति में पड़े हुए थे।
जब मंगोल नेता चंगेज खाँ अपने भयानक इरादों के साथ दुनिया पर चढ़ बैठा तो दुनिया का नक्शा तेजी से बदलने लगा। इस क्रूर आक्रांता का नाम सुनते ही यूरोपीय देशों के एम्पररों और अरब देशों के सुल्तानों की घिघ्घियाँ बंध जाती थीं। भारत के तुर्क सुल्तान, मंगोलों का नाम सुनते ही अपनी राजधानी छोड़कर दूर कहीं जाकर किलों में बंद हो जाते थे। ई.1227 में जब चंगेज खाँ मरा तब वह संसार के सबसे बड़े साम्राज्य का स्वामी था।
मंगोलों को ईसाई बनाने के प्रयास
ई.1252 में मंगूखाँ मंगोलों का नेता हुआ। मंगोलों के इतिहास में उसे ‘खान महान’ कहा जाता है। इस काल तक मंगोल लोग किसी धर्म को नहीं मानते थे। मुसलमानों, ईसाइयों तथा बौद्धों में होड़ मची कि किसी तरह मंगूखाँ को प्रसन्न करके उसे अपने धर्म में सम्मिलित कर लिया जाए।
पोप ने भी रोम से अपने एलची भेजे। नस्तोरियन ईसाई भी पूरी तैयारी के साथ मंगोल सरदार के चारों ओर मण्डराने लगे। मुसलमान और बौद्ध प्रचारक भी तेजी से अपने काम में जुट गए किंतु मंगूखाँ को धर्म जैसी चीज में अधिक रुचि नहीं थी
फिर भी वह ईसाई बनने को तैयार हो गया। जब रोम के एलचियों ने मंगूखाँ को पोप तथा उसके चमत्कारों की कहानियां सुनाईं तो मंगूखाँ भड़क गया और उसने कोई भी धर्म स्वीकार करने से मना कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि मंगूखाँ के बाद जो मंगोल सरदार जिस क्षेत्र में राज्य करता था, उसने वहीं के लोगों का धर्म अपना लिया। चीन और मंगोलिया के मंगोल बौद्ध हो गए। मध्य एशिया के मंगोल मुसलमान हो गए। रूस और हंगरी में रह रहे मंगोल ईसाई हो गए।
रोमन सम्राट की मिस्र के बादशाह से संधि
(पाँचवा क्रूसेड, ई-1228-29)
पवित्र रोमन साम्राट का एम्परर फ्रेडरिक (द्वितीय) अपने समय का बहुत प्रभावशाली राजा हुआ। वह फ्रेडरिक (प्रथम) का पौत्र था तथा अपने दादा की ही तरह पोप की बिल्कुल परवाह नहीं करता था। उसके काल में पोप और एम्परर के बीच झगड़ा इतना बढ़ा कि पोप ने ‘एम्परर’ को ईसाई संघ से बाहर निकाल दिया किंतु एम्परर फ्रेडरिक (द्वितीय) ने पोप की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
फ्रेडरिक को संसार का चलता-फिरता आश्चर्य कहा जाता था। वह दुनिया की कई भाषाएं जानता था जिनमें अरबी भी शामिल थी। इन भाषाओं के बल पर वह किसी को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता था।
इस समय तक यद्यपि चंगेज खाँ मर चुका था तथापि दुनिया पर मंगोलों के आक्रमणों का खतरा अभी टला नहीं था। इसलिए फ्रेडरिक (द्वितीय) ने क्रूसेड्स को समाप्त करने के लिए मुसलमानों से युद्ध करने की बजाय सुलह-समझौते का मार्ग अपनाया। पोप उसके विचार से सहमत नहीं हुआ किंतु ई.1228-29 में तुर्कों से सुलह-समझौता करने के लिए फ्रेडरिक स्वयं फिलीस्तीन गया और उसने मिस्र के सुल्तान से भेंट करके अपनी ओर से शांति का प्रस्ताव रखा ताकि उस पवित्र समाधि को प्राप्त किया जा सके जिसे पाने के लिए ईसाई विगत सौ साल से भी अधिक समय से लड़-मर रहे थे।
अंत में दोनों पक्षों में शांति-सुलह हो गई। फ्रेडरिक ने पवित्र भूमि के मुख्य स्थान येरूशलम, बेथलहम, नजरथ, टौर, सिडान तथा उनके आसपास के क्षेत्र प्राप्त कर लिए। इस बार उसने किसी ईसाई देश के सामंत को जेरूसलम की राजगद्दी पर नहीं बैठाया अपितु वह स्वयं ही जेरूसलम की राजगद्दी पर बैठ गया।
छठा क्रूसेड (ई.1248-54)
पोप की ही तरह अधिकांश तुर्कों को भी, मिस्र के सुल्तान एवं ईसाइयों के राजा के बीच हुई यह संधि अच्छी नहीं लगती थी। इसलिए वे फिर से जेरूसलम पर अधिकार करने की तैयारी करने लगे। अंत में ई.1244 में खोबा के शासक जलालुद्दीन ख्वारिज्मशाह ने जेरूसलम पर अधिकार कर लिया।
उसने जेरूसलम के पवित्र स्थानों को क्षति पहुँचाई और जेरूसलम के ईसाइयों की हत्या कर दी। फ्रांस के राजा लुई (नवम्) ने (जिसे संत की उपाधि प्राप्त हुई) ई.1248 और 1254 में दो बार इन स्थानों को फिर से लेने के प्रयास किए किंतु उसे सफलता नहीं मिली।
वह ई.1248 में फ्रांस से समुद्र-मार्ग से रवाना होकर साइप्रस होता हुआ ई.1249 में ‘दमएता’ पहुँचा। उसने दमएता पर विजय प्राप्त कर ली किंतु ई.1250 में ‘मारसई की लड़ाई’ में परास्त हो गया। उसे अपनी पूरी सेना के साथ अपमानजनक आत्मसमर्पण करना पड़ा। लुई (नवम्) ने चार लाख स्वर्ण-मुद्राएं तथा दमएता मुसलमानों को देकर बड़ी कठिनाई से मुक्ति पाई। इसके उपरांत चार वर्ष तक वह ‘एकर बंदरगाह’ को बचाने का प्रयास करता रहा।
सातवां क्रूसेड (ई.1270-72)
जब ई.1268 में तुर्कों ने ईसाइयों से अंतिओक भी छीन लिया, तब फ्रांस के राजा लुई (नवम्) ने एक और क्रूसेड किया। उसे आशा थी कि उत्तरी अफ्रीका में ‘त्यूनास’ का राजा ईसाई हो जाएगा। लुई (नवम्) उत्तरी अफ्रीका पहुँचा किंतु वहाँ पहुँचकर प्लेग से मर गया। इंग्लैण्ड के राजकुमार एडवर्ड ने इस युद्ध को जारी रखा जो आगे चलकर ई.1272 में एडवर्ड (प्रथम) के नाम से इंग्लैण्ड का राजा हुआ।
उसने अफ्रीका में और कोई कार्यवाही नहीं की। वह सिसली होता हुआ फिलिस्तीन पहुँचा। उसने मुलसमानों द्वारा किए गए ‘एकर’ के घेरे को तोड़ डाला और मुसलमानों को दस वर्ष के लिए युद्ध-विराम करने को बाध्य किया। फिलिस्तीन में अब केवल ‘एकर’ बंदरगाह ही ईसाइयों के हाथ में बचा था और अब वही उनके छोटे से राज्य की राजधानी था। ई.1291 में तुर्कों ने उसे भी ले लिया।
तुर्कों का कुस्तुंतुनिया पर अधिकार
इस समय ईसाई जगत् एक ओर तो मुसलमानों से लड़ने के कारण और दूसरी ओर परस्पर झगड़ों के कारण लगातार छीजता जा रहा था जबकि मुसलमानों का राज्य पूरी दुनिया में तेजी से विस्तार पाता जा रहा था। अंत में ई.1453 में तुर्कों ने यूनानी ईसाइयों को परास्त करके कुस्तुंतुनिया से उनका सफाया कर दिया और कुस्तुंतुनिया हमेशा के लिए मुसलमानों के अधिकार में चला गया जिसका वर्णन हम पूर्व में कर चुके हैं।
बीसवीं सदी में जेरूसलम के एक हिस्से पर ईसाइयों का अधिकार
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ई.1918 में इंग्लैण्ड के एक सेनापति ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर तुर्कों से जेरूसलम छीन लिया। वर्तमान समय में जेरूसलम के एक हिस्से पर मुसलमानों का, दूसरे हिस्से पर यहूदियों का, तीसरे हिस्से पर आर्मेनियन ईसाइयों का तथा चौथे हिस्से पर कैथोलिक ईसाइयों का अधिकार है।