खानखाना के समझाने पर खुर्रम ने बादशाह के पास क्षमा याचना की कई अर्जियाँ भिजवाईं किंतु बादशाह ने उन पर कोई विचार नहीं किया। जो भी वकील अर्जी लेकर बादशाह के सामने हाजिर होता था, बादशाह उसी को कैद कर लेता था। नूरजहाँ की सलाह पर जहाँगीर ने बंगाल से परवेज को बुलाया और उसे खुर्रम पर आक्रमण करने के लिये भेजा। परवेज विशाल सेना लेकर खुर्रम तथा खानखाना के पीछे लग गया।
इस समय खुर्रम के पास बीस हजार सिपाही थे जबकि परवेज के पास चालीस हजार सिपाही थे। फिर भी खानखाना का खुर्रम की ओर होना ही जीत की निशानी थी।
जब परवेज चाँद के घाटे से उतर कर मालवे में आया तो खानखाना के मरहूम पुत्र शाहनवाजखाँ का बेटा मनूंचहर खुर्रम का साथ छोड़कर परवेज के पास चला गया। खानखाना के लिये यह बड़ा झटका था। खानखाना की समझ में नहीं आ रहा था कि जीवन के रंगमच पर आखिर ईश्वर ने उसके लिये क्या भूमिका निश्चित की है। वह किसके लिये लड़े और किससे लड़े? यदि युद्ध के मैदान में उसका सामना मनूंचहर से हो गया तो खानखाना क्या करेगा? तलवार उठायेगा या गिरा देगा?
इस नवीन परिस्थिति में खानखाना के लिये एक तरफ खुर्रम और एक तरफ परवेज न रह गये अपिुत उसके लिये तो यह ऐसी लड़ाई हो गयी थी जिसमें एक तरफ उसकी पौत्री थी तो दूसरी ओर पौत्र।
खानखाना पशोपेश में पड़ गया लेकिन फिर भी उसने नियति के निर्णय को स्वीकार कर लिया कि वह जिस स्थान पर खड़ा था, उसी स्थान पर रहे अतः उसने खुर्रम का साथ नहीं छोड़ा। जब परवेज और खुर्रम की सेनाएं आमने-सामने हुई तो खुर्रम की सेना खुर्रम को छोड़कर परवेज से जा मिली। इससे खुर्रम खानखाना तथा दाराबखाँ को अपने साथ लेकर किसी तरह नर्मदा पार करके दक्खिन को भाग गया।