इस धारावाहिक की पिछली कड़ी में हमने त्वष्टा के यज्ञ से उत्पन्न वृत्रासुर की चर्चा की थी जिसने त्वष्टा के कहने पर इन्द्र पर आक्रमण कर दिया। ब्रह्माजी ने इन्द्र को सलाह दी कि वृत्रासुर को मारने हेतु वज्र बनाने के लिए वह दधीचि ऋषि की अस्थियों को प्राप्त करे।
वैदिक ग्रंथों में जिन ऋषियों का उल्लेख हुआ है, उनमें दधीचि ऋषि का नाम भी बहुत आदर से लिया जाता है। दधीचि वैदिक युग के ऋषि थे। विभिन्न ग्रंथों में इनके जन्म के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं।
यास्क द्वारा लिखित निरुक्त के अनुसार दधीचि की माता का नाम चित्ति और पिता का नाम अथर्वा था। माता चित्ति से ही इन्हें दधीचि नाम मिला। कुछ पुराणों के अनुसार ऋषि दधीचि कर्दम ऋषि की कन्या शांति एवं अथर्वा के पुत्र थे जबकि कुछ पुराणों में दधीचि को शुक्राचार्य का पुत्र तथा भगवानन शिव का भक्त बताया गया है।
महर्षि दधीचि की तपस्या के सम्बन्ध में भी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। पुराणों में आए प्रसंगों के अनुसार दधीचि का आश्रम नैमिशायरण्य में स्थित था। कुछ लोग आधुनिक बिहार के सिवान जिले में स्थित मिश्रिख तीर्थ को महर्षि दधीचि की तपोभूमि मानते हैं। कुछ प्राचीन ग्रंथों में इस स्थान को दध्यंच कहा गया है।
दधीचि की पत्नी का नाम गभस्तिनी था। महर्षि दधीचि वेदों के ज्ञाता और अत्यंत दयालु स्वभाव के ऋषि थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट रहते थे, जहाँ उनका आश्रम था। कुछ ग्रंथों के अनुसार दधीचि का आश्रम गंगा के तट पर स्थित था। महर्षि दधीचि के आश्रम में जो भी अतिथि आता, महर्षि तथा उनकी पत्नी उसकी श्रद्धापूर्वक सेवा करते थे।
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महर्षि दधीचि इस ब्रह्माण्ड में अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें ब्रह्मविद्या का ज्ञान था। इसलिए देवराज इन्द्र एक बार महर्षि दधीचि से ब्रह्मविद्या प्राप्त करने आया। महर्षि ने देखा कि इन्द्र अहंकार से भरा हुआ है तथा ब्रह्मविद्या प्राप्त करने के उपयुक्त नहीं है। इसलिए महर्षि ने इन्द्र को ब्रह्मविद्या देने से मना कर दिया।
अहंकारी इन्द्र ने महर्षि की बात समझने के स्थान पर इसे अपना घोर अपमान माना तथा ऋषि से कहा- ‘आप मुझे यह विद्या नहीं दे रहे हैं तो न सही, किंतु किसी और व्यक्ति को भी मत देना। यदि आपने किसी और व्यक्ति को यह विद्या सिखाई तो मैं आपका सिर आपके धड़ से अलग कर दूंगा।’
इस पर महर्षि ने कहा- ‘यदि कोई योग्य व्यक्ति ब्रह्मविद्या लेने के लिए मेरे पास आएगा तो मैं यह विद्या उसे अवश्य ही प्रदान करूंगा।’
कुछ समय पश्चात् इन्द्रलोक में निवास करने वाले अश्विनी कुमारों ने महर्षि दधीचि के पास पहुंचकर ब्रह्मविद्या देने की याचना की। ऋषि दधीचि ने विनम्रता से युक्त अश्विनी कुमारों को ब्रह्मविद्या के उपयुक्त पात्र पाया। इसलिए महर्षि दधीचि ने अश्विनी कुमारों को ब्रह्मविद्या देने का निर्णय लिया तथा अश्विनी कुमारों को इन्द्र द्वारा दी गई धमकी के बारे में भी बता दिया।
इस पर अश्विनी कुमारों ने एक योजना बनाई तथा महर्षि दधीचि का सिर उनके धड़ से अलग करके उसके स्थान पर अश्व का सिर लगा दिया। महर्षि ने अश्विनी कुमारों को ब्रह्मविद्या प्रदान कर दी। जब इन्द्र को इस बात की जानकारी हुई तो वह धरती पर आया तथा उसने महर्षि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर दिया।
इस पर अश्विनी कुमारों ने महर्षि का वास्तविक सिर दधीचि के धड़ पर लगा दिया। इससे कुपित होकर इन्द्र ने अश्विनी कुमारों को इन्द्रलोक से निकाल दिया किंतु ब्रह्मज्ञानी हो जाने के कारण अश्विनी कुमारों को इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ा।
इसलिए जब ब्रह्माजी ने इन्द्र से कहा कि वृत्रासुर को मारने हेतु वज्र का निर्माण करने के लिए वह दधीचि ऋषि की अस्थियां प्राप्त करे तो इन्द्र दधीचि के पास नहीं जा सका।
उधर देवलोक पर वृत्रासुर के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे थे। इसलिए देवराज इन्द्र को इन्द्रलोक की रक्षा करने एवं देवताओं की भलाई के लिए देवताओं सहित महर्षि दधीचि की शरण में जाना पड़ा। ब्रह्मज्ञानी महर्षि दधीचि को इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता था कि एक दिन इसी इन्द्र ने उनका घनघोर अपमान किया था। इसलिए महर्षि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा उससे पूछा- ‘मैं देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हूँ?’
इन्द्र आदि देवताओं ने ऋषि को ब्रह्माजी द्वारा कही गई बात बताई तथा महर्षि की अस्थियों का दान माँगा। महर्षि दधीचि ने जगत् के कल्याण के लिए तुरंत अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। उन्होंने समाधि लगाई और अपनी देह त्याग दी।
उस समय उनकी पत्नी आश्रम में नहीं थी। अब देवताओं के समक्ष यह समस्या आई कि महर्षि दधीचि के शरीर से माँस हटाकर अस्थियां कौन निकाले? कोई भी देवता इस कार्य को करने में सक्षम नहीं था। तब इन्द्र ने कामधेनु गाय को बुलाया और उसे महर्षि के शरीर से मांस उतारने को कहा। कामधेनु ने अपने योगबल से महर्षि के शरीर का माँस उतार दिया। अब वहाँ केवल अस्थियों का पिंजर रह गया।
जब महर्षि दधीचि की पत्नी गभस्तिनी आश्रम में आई तो अपने पति की मृत-देह को देखकर विलाप करने लगी तथा सती होने का हठ करने लगी। देवताओं ने ऋषि-पत्नी को बहुत समझाया कि वह सती नहीं हो। ऋषि-पत्नी उस समय गर्भवती थी। देवताओं ने उन्हें अपने वंश के लिए सती न होने की सलाह दी किंतु गभस्तिनी ने जीवित रहना स्वीकार नहीं किया तथा अपना गर्भ देवताओं को सौंपकर सती हो गई।
देवताओं ने गभस्तिनी के गर्भ को बचाने के लिए एक पीपल वृक्ष को उसका लालन-पालन करने का दायित्व सौंपा। कुछ समय बाद वह गर्भ शिशु बन गया। पीपल द्वारा पालन-पोषण किए जाने के कारण उस बालक का नाम पिप्पलाद रखा गया। पिप्पलाद भी अपने पिता की तरह महाज्ञानी हुए।
दधीचि के वंशज आज भी धरती पर मौजूद हैं तथा दाधीच कहलाते हैं। मानव कल्याण के लिए अपनी जीवित देह का दान करने वाले एकमात्र महर्षि दधीचि ही हुए हैं, उनके जैसा लोक-कल्याणकारी व्यक्ति इस धरती पर और कोई दूसरा नहीं हुआ।