औरंगजेब का भय न केवल लाल किले की दीवारों के भीतर अपितु सम्पूर्ण मुगलिया सल्तनत में समाता जा रहा है। हर कोई भयभीत था। यहाँ तक कि दारा शिकोह भी, जहानआरा भी और स्वयं शाहजहाँ भी!
शाहजहां के बड़े पुत्र और मुगलिया सल्तनत के वली ए अहद दारा शिकोह को अपने तीनों छोटे भाइयों की बौद्धिक और सामरिक क्षमताओं की अच्छी जानकारी थी। इसलिए वह उनकी हर चाल पर पूरी दृष्टि रखता था। तीनों भाइयों से उसे अलग-अलग तरह के खतरे थे।
शाहजहाँ का दूसरे नम्बर का पुत्र शाहशुजा इस समय बंगाल का सूबेदार था। वह बुद्धिमान, साहसी तथा कुशल सैनिक था परन्तु विलासी और अयोग्य होने के कारण उसमें इतनी विशाल मुगलिया सल्तनत को सँभालने की योग्यता नहीं थी। इस कारण राज्य के मुल्ला-मौलवी, अमीर तथा हिन्दू राजा उसके पक्ष में नहीं थे। इसलिए दारा उसकी तरफ से कम आशंकित रहता था।
शाहजहाँ का चौथे नम्बर का पुत्र मुराद, गुजरात और मालवा का सूबेदार था। वह भावुक तथा जल्दबाज युवक था। विलासी प्रवृत्ति का होने से उसमें दूरदृष्टि का अभाव था। वह जिद्दी तथा झगड़ालू प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसमें प्रशासकीय प्रतिभा और सैनिक प्रतिभा की कमी होने पर भी बादशाह बनने की इच्छा अत्यधिक थी। दिल्ली के अमीर-उमराव उसे बिगड़ैल शहजादा समझ कर उसके प्रति उदासीन रहा करते थे। इसलिए दारा भी उसकी ओर से अधिक चिंतित नहीं रहता था।
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शाहजहाँ का तीसरा पुत्र औरंगजेब, कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वह अत्यंत असहिष्णु तथा संकीर्ण विचारों का स्वामी था इस कारण उसे सल्तनत के कट्टर मुसलमानों, अमीरों, उलेमाओं और मौलवियों का भारी समर्थन प्राप्त था जिनकी संख्या, सहिष्णु मुसलमानों से बहुत अधिक थी। उसने कुरान का गहन अध्ययन किया था तथा वह टोपी सिलकर अपना खर्चा चलाता था। इस कारण पूरी सल्तनत में उसकी विद्वता और सादगी के किस्से विख्यात थे। इस कारण मुसलमान रियाया में उसे लोकप्रियता प्राप्त थी।
दारा ने कई बार कट्टर मुल्ला-मौलवियों, अमीर-उमरावों तथा सूबेदारों को दण्डित किया था इसलिए वे दारा शिकोह से दुश्मनी रखते थे और औरंगजेब के प्रति जबर्दस्त समर्थन रखते थे। दारा और औरंगजेब दोनों ही उन मुल्ला-मौलवियों, अमीर-उमरावों तथा सूबेदारों के रुख के बारे में अच्छी तरह जानते थे।
राजधानी से दूर रहने तथा हर समय युद्ध में व्यस्त रहने के कारण औरंगज़ेब को प्रान्तीय शासन तथा युद्धों का अच्छा अनुभव था। क्रूरता और मक्कारी उसकी शक्ल से ही टपकती थी। जब वह किसी को देखने के लिए आँखें उठाता था तो सामने वाले को लगता था जैसे उसने दो जलते हुए अंगारे देख लिए हों। इस कारण हर कोई औरंगजेब को देखते ही भयभीत हो जाता था।
धूर्त तथा कुटिल होने के कारण औरंगज़ेब अपनी बड़ी से बड़ी पराजय को विजय में बदलना जानता था किंतु दारा के राजधानी में रहने तथा बादशाह का चहेता होने के कारण औरंगजेब, दारा के सामने स्वयं को असहाय अनुभव करता था।
दारा शिकोह यद्यपि अपने तीनों भाइयों तथा उनके पक्ष की शहजादियों की ओर से सतर्क रहता था तथापि औरंगज़ेब के नापाक इरादों से सर्वाधिक भयभीत रहता था। इसलिए दारा, औरंगज़ेब को किसी एक स्थान अथवा किसी एक मोर्चे पर टिके नहीं रहने देता था। वह औरंगज़ेब को कभी अफगानिस्तान के मोर्चे पर, कभी दक्षिण के मोर्चे पर तो कभी बंगाल के मोर्चे पर भेज देता था।
औरंगजेब का भय इतना अधिक था कि दारा किसी भी अभियान के लिए औरंगज़ेब को पर्याप्त सेना और पर्याप्त धन नहीं देता था ताकि औरंगज़ेब को सैनिक सफलताएं न मिल सकें और न ही कभी औरंगज़ेब उन सेनाओं को लेकर राजधानी में घुस सके।
औरंगज़ेब के साथ जो हिन्दू सेना होती थी, उसका आकार अपेक्षाकृत बड़ा रखा जाता था ताकि बगावत की स्थिति में औरंगज़ेब पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके। दारा ने एक व्यवस्था और की थी, उसने औरंगजेब के साथ नियुक्त रहने वाले हिन्दू राजाओं को आदेश दे रखे थे कि औरंगजेब की सेनाएं दुश्मन के मुल्कों से कितना धन लूटती हैं, उस धन की सूची नियमित रूप से राजधानी में भिजवाएं।
औरंगजेब का भय व्यर्थ नहीं था किंतु इन विषम परिस्थितियों में औरंगजेब के लिए सबसे अधिक तसल्ली देने योग्य बात यह थी कि आम्बेर का मिर्जाराजा जयसिंह औरंगजेब से मित्रता मानता था। इसलिए औरंगज़ेब चाहता था कि मिर्जा राजा जयसिंह की नियुक्ति हर समय औरंगज़ेब के साथ की जाए किंतु दारा अपनी तरफ से प्रयास करके मिर्जा राजा जयसिंह की बजाय, मारवाड़ के राठौड़ राजा जसवंतसिंह की नियुक्ति औरंगज़ेब के साथ करता था। महाराजा जसवंतसिंह के सामने औरंगज़ेब की एक नहीं चलती थी और दोनों ही एक दूसरे को नापसंद करते थे।
जिस तरह औरंगजेब चाहता था कि आम्बेर के राजा उसके साथ रहें, उसी तरह आम्बेर का मिर्जा राजा जयसिंह भी चाहता था कि उसकी नियुक्ति औरंगजेब के साथ रहे क्योंकि आम्बेर के राजा को मुगलिया राजनीति की जितनी अधिक समझ थी, उतनी अन्य हिन्दू राजाओं को नहीं थी। मिर्जा राजा जयसिंह अच्छी तरह समझता था कि दारा भले ही कितने मंसूबे क्यों न बांध ले, औरंगजेब एक न एक दिन मुगलों के तख्त पर जरूर बैठेगा। यही कारण था कि दारा कभी भी मिर्जा राजा जयसिंह और औरंगजेब के गठजोड़ को पक्का नहीं होने देना चाहता था।
–डॉ. मोहनलाल गुप्ता