दिल्ली के दक्षिण पश्चिम में स्थित रेवाड़ी, अलवर और तिजारा परगनों में सैंकड़ों सालों से मेव जाति बड़ी संख्या में रहती आयी है। ये लोग बड़ी ही विद्रोही प्रकृति के थे और सैंकड़ों साल से दिल्ली के शासकों की नाक में दम करते आये थे। इनके अत्याचारों से तंग आकर बलबन ने बुरी तरह से इनका दमन किया। उसने दिल्ली के चारों ओर फैले हुए सैंकड़ों मील के क्षेत्र में जंगल कटवा दिये और मेवों के सैंकड़ों गाँव उजाड़ दिये। हजारों मेवों को उसने जान से मार डाला। उसके बाद पूरे सौ साल तक ये लोग शांत रहे।
जब तैमूर लंग ने भारत पर आक्रमण किया था तब नाहर बहादुर इन लोगों का नेता था। नाहर बहादुर के पूर्वज पिछले दो सौ साल से मेवों का नेतृत्व कर रहे थे। कहा जाता है कि नाहर बहादुर के पूर्वज यदुवंशी हिन्दू हुआ करते थे लेकिन नाहर बहादुर मुसलमान हो गया था। उसने तैमूर को संदेश भिजवाया था कि वह बेशक पूरे हिन्दुस्थान को जलाकर खाक कर दे किंतु मेवों की तरफ मुँह न करे क्योंकि मेव तो पहले से ही कुफ्र को खत्म कर चुके हैं।
जिस समय बाबर ने हिन्दुस्थान पर आक्रमण किया था तब हसनखाँ मेवाती इन लोगों का नेता था। वह इब्राहीम लोदी की तरफ से बाबर से लड़ने के लिये आया था। इब्राहीम लोदी की पराजय के साथ ही हसनखाँ मेवाती को अपने राज्य से हाथ धोना पड़ा। जब राणा सांगा ने खानुआ के मैदान में बाबर को घेरा तो हसनखाँ मेवाती फिर से अपने खोये हुए राज्य को हासिल करने के लिये राणा सांगा की ओर से बाबर के विरुद्ध आ जुटा। जब बाबर को यह मालूम हुआ तो उसने अपने दूतों मुल्ला तुर्क अली और नजफखाँ बेग को हसनखाँ मेवाती की सेवा में भेजकर कहलवाया कि यदि तुझे राज्य चाहिये था तो मेरे पास आता। मैं भी मुसलमान हूँ और दूसरे मुसलमानों की मदद करना मेरा फर्ज है। हसनखाँ मेवाती ने कहा- ‘जो मैं वीर हूँ तो तुझसे लड़कर ही राज्य लूंगा।’
हसनखाँ की यह हसरत मन में ही रह गयी। वह खानुआ के मैदान में अपने दस हजार सिपाहियों के साथ मारा गया। हसनखाँ के बेटे नाहरखा ने अलवर दुर्ग का सारा खजाना बाबर को समर्पित करके बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली। बाबर ने उसे एक छोटी सी जागीर जीवन यापन के लिये प्रदान की।
जब हुमायूँ फिर से दिल्ली का बादशाह हुआ तो हसनखाँ मेवाती का चचेरा भाई जमालखाँ हुमायूँ के पास आया। उसने हुमायूँ से प्रार्थना की- ‘मैं अपनी बड़ी बेटी का विवाह आपसे करना चाहता हूँ।’
हुमायूँ इस प्रस्ताव से बड़ा प्रसन्न हुआ। वैसे भी उसे कोई नया विवाह किये हुए काफी समय हो चला था। उसने जमालखाँ से पूछा- ‘तेरे कितनी बेटियाँ हैं?’
जमालखाँ ने कहा- ‘विवाह योग्य दो हैं।’
हुमायूँ जमालखाँ की बात सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने जमालखाँ को आदेश दिया- ‘बड़ी बेटी का निकाह हम से कर दे और छोटी बेटी हमारे खानखाना बैरामखाँ को दे दे।’
इस प्रकार मेवों की एक बेटी चंगेज और तैमूरलंग के खानदान में और एक बेटी तुर्कों की कराकूयलू शाखा के बहारलू खानदान में ब्याह दी गयी। आगे चलकर इसी छोटी मेव कन्या से 17 दिसम्बर 1556 को लाहौर में बैरामखाँ के पुत्र अब्दुर्रहीम का जन्म हुआ।