अपने भाईयों से मुक्ति पाकर हुमायूँ ने फिर से दिल्ली और आगरा पर अधिकार करने की ठानी। 1540 ईस्वी में उसने दिल्ली और आगरा छोड़े थे और दर-दर की ठोकरें खाते हुए चौदह साल हो चले थे। वह काबुल से चलकर पेशावर आया और सिंधु नदी पार करके कालानौर तक चला आया। यहाँ उसने अपनी सेना के तीन हिस्से किये। एक हिस्सा शिहाबुद्दीन के नेतृत्व में लाहौर पर चढ़ाई करने के लिये भेजा गया। दूसरा हिस्सा बैरामखाँ के नेतृत्व में हरियाणा पर चढ़ाई करने के लिये भेजा गया और तीसरा हिस्सा स्वयं हुमायूँ के पास रहा जो कालानौर[1] में बना रहा। जब शिहबुद्दीन ने लाहौर पर अधिकार कर लिया तो हुमायूँ लाहौर चला गया।
उधर बैरामखाँ ने हरितान प्रदेश[2] पर अधिकार कर लिया और सतलज के तट पर आ डटा। वह माछीवारा में अफगानों से दो-दो हाथ करना चाहता था। उस समय सतलज में बाढ़ आ रही थी इसलिये तरुद्दीबेगखाँ के नेतृत्व में जो मुगल सेना थी उसने सतलज पार करने से मना कर दिया। तरुद्दीबेगखाँ ने अपनी सेना को पड़ाव डालने के आदेश दे दिये। बैरामखाँ को यह स्वीकार नहीं हुआ। उसने अपने आदमियों को अपने पीछे आने के लिये कहा और अपना घोड़ा सतलुज में उतार दिया। देखते ही देखते बैरामखाँ की सेना पार हो गयी। न चाहते हुए भी तरुद्दीबेग को बैरामखाँ के पीछे जाना पड़ा।
यहाँ पर अफगानों ने फिर से मुगलों के खिलाफ बड़ा मोर्चा बांधा। दिल्ली का बादशाह सिकन्दर सूर[3] अस्सी हजार सिपाहियों को लेकर बैरामखाँ के मुकाबले में आया। उसके पास हाथियों की विशाल सेना थी जिसे देखकर मुगलसेना के हाथ-पाँव फूल गये लेकिन बैरामखाँ जानता था कि हिंदुस्थान का ताज हाथियों की इस विशाल दीवार के दूसरी तरफ ही स्थित है जिसे हर हालत में पार करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।
15 मई 1955 को शाम के समय बैरामखाँ ने अफगानों पर हमला किया। उसने हमले की योजना इस प्रकार बनाई कि रात होने पर भी लड़ाई चलती रहे। जैसे ही रात हुई और अंधेरे में कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया, बैरामखाँ के आदमियों ने योजनानुसार अफगानों के ठीक पीछे जाकर भयंकर आग लगा दी। इस आग के उजाले में मुगलों को अफगानों की स्थिति और गतिविधि का पूरा ज्ञान होता रहा और वे तक-तक कर तीर चलाते रहे किंतु मुगलों की तरफ अंधेरा होने के कारण अफगान उनकी स्थिति के बारे में कुछ भी नहीं जान पाते थे। परिणाम स्वरूप अफगानों की भारी क्षति हुई और उनके पैर उखड़ गये। इसके बाद बैरामखाँ ने सिकन्दर सूर को खदेड़ना आरंभ कर दिया। सरहिंद में एक बार पुनः पराजित होकर सिकन्दर सूर पहाड़ों में भाग गया।
बैरामखाँ की मुट्ठी भर सेना ने अफगानों की सेना के विशाल अजगर को निगल लिया और लूट में मिले हाथी हूमायूँ को भिजवा दिये। बहुत से साधारण सिपाही बंदी बना लिये गये। इनमें से जो खुदा के बंदे थे उन्हें बादशाह के आदेश के मुताबिक छोड़ दिया गया तथा काफिरों को गुलाम बनाकर बेचने के लिये मध्य एशियाई मुल्कों में भेज दिया गया। नसीबखाँ और उसके पठानों की बहुत सी जोरू और बच्चे भी बैरामखाँ के हाथ लगे जिन्हें बैरामखाँ खुद हाथी पर सवार होकर, युद्ध के मैदान से जान बचाकर भाग रहे नसीबखाँ के पास छोड़ आया।
तरुद्दीबेग ने फिर बैरामखाँ का विरोध किया। वह भागते हुए पठानों को जान से मारना चाहता था किंतु बैरामखाँ का कहना था कि खुदा के बंदों का खून बहाना ठीक नहीं है। यह झगड़ा इतना बढ़ा कि भागते हुए पठानों को भी इसकी खबर लग गयी। मुगलों की सेना में परस्पर विरोध देखकर पठान लौट आये और उन्होंने मुगलों के डेरों पर आक्रमण कर दिया। मजबूर होकर बैरामखाँ को पठानों पर तलवार उठानी पड़ी।
जीत का संदेश पाकर हुमायूँ भी सरहिंद आ गया। बैरामखाँ ने बड़े भारी जलसे के साथ उसका स्वागत किया और वहीं दरबार लगवाकर हुमायूँ को फिर से हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया।
इस अवसर पर हुमायूँ ने अमीरों से पूछा कि यह जीत किस के नाम लिखी जाये? कुछ अमीरों ने बैरामखाँ का और कुछ ने अब्दुलमाली का नाम लिया। जब बैरामखाँ और अब्दुलमाली से पूछा गया तो उन्होंने भी अपना-अपना नाम लिया। हुमायूँ ने यह जीत अकबर के नाम लिखी और उसे लाहौर का सूबेदार बनाकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। साथ ही बैरामखाँ को एक बार फिर अकबर का संरक्षक बनाया।
बैरामखाँ का बढ़ता हुआ रुतबा तरुद्दीबेगखाँ को अच्छा नहीं लगा। वह हुमायूँ का मुँह लगा विश्वसनीय सिपहसालार था। माछीवारा के मैदान में बैरामखाँ ने उसे नीचा दिखाया था और उसकी वरिष्ठता की परवाह किये बिना अपनी मरजी से ही युद्ध की गतिविधियाँ संचालित की थीं। तरुद्दीबेग ने हुमायूँ से बैरामखाँ की बहुत शिकायतें कीं किंतु हुमायूँ ने तरुद्दीबेग की एक नहीं सुनी। अब बैरामखाँ ने हुमायूँ को सलाह दी कि बिना कोई समय गंवाये दिल्ली के लिये कूच कर देना चाहिये।
हुमायूँ अपनी सारी सेना बटोरकर एक बार फिर से दिल्ली के लिये चल पड़ा। 20 जुलाई 1555 को हूमायूँ ने दिल्ली में प्रवेश किया और 23 जुलाई को अच्छा दिन जानकर वह दिल्ली के तख्त पर बैठा। उसकी खूनी ताकत एक बार फिर रंग ले आई थी।
[1] पूर्व पंजाब के गुरुदासपुर जिले में स्थित है।
[2] अब इसे हरियाणा कहते हैं।
[3] हुमायूँ के भारत से भाग जाने के बाद शेरशाह सूरी ने आगरा और दिल्ली सहित हिन्दुस्थान के बहुत बड़े भाग पर अधिकार कर लिया था। मई 1545 में एक आकस्मिक दुर्घटना में वह मारा गया और उसका बेटा इस्लामशाह हिन्दुस्थान का बादशाह हुआ। अक्टूबर 1553 में उसकी भी मृत्यु हो गयी। उसके बाद इस्लामशाह का 12 वर्षीय बेटा दिल्ली के तख्त पर बैठा। बारह वर्षीय सुल्तान अपने मामा मुहम्मद आदिलशाह के हाथों मार डाला गया। आदिलअली शाह को अदली भी कहा जाता है। अदली ने शासन का सारा भार अपने हिन्दू वजीर हेमू को सौंप दिया और स्वयं चुनार में जाकर भोग विलास करने लगा। इस बीच इब्राहीमशाह और सिकन्दरशाह नाम के दो व्यक्तियों ने अपने आप को सूर साम्राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। ये दोनों दुष्ट आपस में भी लड़ते रहते थे। मौका पाकर सिकन्दर सूर ने दिल्ली हथिया ली थी।