पिछले कुछ समय से दिल्ली की जनता ब्रिगेडियर जॉन निकल्सन के बारे में डरावने किस्से सुन रही थी। निकल्सन के बारे में कहा जा रहा था कि अफगानिस्तान से आया ब्रिगेडियर जॉन निकल्सन दिल्ली वालों को कठोर दण्ड देगा। इस कारण दिल्ली में दहशत फैल गई। अंग्रेजी सेनाओं और गुण्डों के डर से दिल्ली खाली हो गई!
जब दिल्ली वालों ने सुना कि निकल्सन भारतीयों द्वारा मेरठ, कानुपर एवं दिल्ली आदि स्थानों में किए गए अंग्रेजों के खून का बदला भारतीयों के खून से लेगा तो दिल्ली में दहशत फैल जाना स्वाभाविक ही था। बदले की आग में जल रहे इस अंग्रेज अधिकारी के मस्तिष्क में भारतीयों का रक्त पी जाने के बहुत से तरीके मौजूद थे। इसलिए दिल्ली के नागरिकों ने दिल्ली से बाहर भाग आना आरम्भ कर दिया।
दिल्ली वालों के लिए अंग्रेजी सेनाओं से भयभीत होकर दिल्ली से भाग जाने का निर्णय पूरी तरह गलत भी नहीं था। यद्यपि ईस्वी 1803 से 1857 तक की अवधि में दिल्ली के अंग्रेज अधिकाारियों ने स्वयं को निष्पक्ष एवं न्यायप्रिय दिखाया था तथापि अनुशासन के नाम पर उन्होंने दिल्ली के लोगों पर जो अत्याचार किए थे, उन्हें दिल्ली की जनता कैसे भूल सकती थी!
किसी भी भारतीय के घर में आग लगा देना, सरे आम कोड़ों से पिटवाना और किसी भी भारतीय को फांसी के फंदे से लटका देना अंग्रेजों के लिए आम बात थी।
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एक ओर तो दिल्ली में दहशत फैली हुई थी और दूसरी ओर अंग्रेजी सेना दो दिन से शराब के नशे में धुत्त होकर पड़ी थी, उस समय क्रांतिकारी सैनिक चाहते तो अंग्रेजों के चरण चूम रही विजयश्री को फिर से अपने पक्ष में कर सकते थे किंतु इस समय तक क्रांतिकारी सैनिकों की हालत भी बहुत बुरी हो चुकी थी। उनके बहुत से साथी या तो मारे जा चुके थे या बुरी तरह घायल होकर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें भोजन, पानी और दवा देने का कोई प्रबंध नहीं था।
ऐसी स्थिति में उन मुजाहिदों ने मोर्चा संभाला जो भूखे-प्यासे रहकर भी अपनी अंतिम सांस तक लड़ते हुए बहादुरशाह जफर को फिर से हिन्दुस्तान का बादशाह बनाने आए थे किंतु उन्हें युद्ध करने का न तो कोई प्रशिक्षण था और न कोई अनुभव!
जब आर्कडेल विल्सन ने देखा कि उसकी सेना केवल शराब पीने में व्यस्त हैं तो विल्सन ने समस्त शराब को नष्ट करने के आदेश दिए। इससे अंग्रेजी सेना में फिर से अनुशासन स्थापित हो गया। अंग्रेजी सेना ने फिर से क्रांतिकारी सैनिकों पर धावा बोला। क्रांतिकारी सैनिकों ने मोर्चे छोड़ दिए, अब या तो सड़कों पर उनके शव पड़े हुए दिखाई दे रहे थे, या फिर उन्होंने अंग्रेजों की संगीनों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। बहुत से क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली छोड़कर भाग गए। अब तो दिल्ली में दहशत का कोई अंत नहीं रहा।
जब अंग्रेजों की सेना दिल्ली में घुसी तब दिल्ली के हजारों नागरिक दिल्ली खाली करके अपने सम्बन्धियों के पास निकटवर्ती गांवों और कस्बों में भाग गए। दिल्ली में जनजीवन अस्त-व्यस्त हो चुका था और अनाज, दूध एवं सब्जियां मिलना बिल्कुल असंभव हो गया था। हालांकि दिल्ली में अधिकांश लोगों के घरों में लूटे जाने के लिए कुछ नहीं बचा था किंतु जब अंग्रेजों ने क्रांतिकारी सैनिकों का बिल्कुल सफाया कर दिया तब गुण्डे और लुटेरे फिर से अपने घरों से निकल आए और उन्होंने दिल्ली के बंद घरों को तोड़कर उनमें से सामान निकालना आरम्भ कर दिया।
अंग्रेज सेनाएं जीत की खुशी में पेट भरकर शराब पी रही थीं। इस कारण पूरे चार दिनों तक दिल्ली पर गुण्डों और बदमाशों का कब्जा रहा। इन गुण्डों के भय से भी बहुत से लोग दिल्ली खाली करके चले गए क्योंकि जब गुण्डे लूटपाट करने के लिए घरों में घुसते थे तो औरतों के साथ गुण्डागर्दी करने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे। गुण्डों के कारण दिल्ली में जो दहशत थी, उसका कुछ वर्णन उर्दू के प्रसिद्ध कवि मिर्जा गालिब ने लिखा है।
मिर्जा गालिब इन घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी थे। गालिब के लिए यह बगावत अंग्रेजों से इंतकाम लेने से अधिक निचले वर्ग के लोगों की सरकशी का संकेत था। इससे भी अधिक खतरनाक बात यह थी कि उनके अपने मुल्क के लोग उन जाहिल और बदनसीब गुण्डों के सामने बेबस थे।
गालिब ने लिखा है- ‘जो गुमनाम लोग जिनका कोई नामो-नसब था न कोई मालो-जर! अब वे बेहिसाब दौलत और इज्जत के हकदार हो गए हैं। वह जो सड़कों पर धूलो-खाक से भरे फिरते थे जैसे हवा का कोई आवारा झौंका उन्हें यहाँ फैंक गया हो, अपनी आस्ताना में हवा रखने का दावा करते हैं।
यह आवारागर्द बेशर्मी से तलवारें हाथ में लिए एक गिराहे से दूसरे में मिलते चले गए। सारे दिन इन बलवाइयों ने शहर को लूटा और शाम को मखमली बिस्तरों में जाकर सो गए। दिल्ली का पूरा शहर अपने हाकिमों से खाली हो गया और उसकी जगह खुदा के ऐसे बंदे यहां बस गए जो किसी खुदा को भी नहीं मानते।
जैसे यह कोई माल का बाग हो जो फूलों के दरख्तों से भरा हो। बादशाह उनको रोकने से बेबस थे। उनकी फौजें बादशाह के गिर्द जमा हो गईं और वह उनके दबाव में ऐसे ढक गए जैसे चांद ग्रहण लगने से ढक जाता है।’
बहुत से लोग अंग्रेजी सेना में दूसरे प्रांतों से आए अंग्रेज, सिक्ख, पख्तून एवं गोरखा सैनिकों से डरकर दिल्ली से बाहर चले गए क्योंकि ये लोग दिल्ली के नागरिकों के साथ बहुत कठोर व्यवहार कर रहे थे। हालांकि ऐसा कतई नहीं था कि अंग्रेजी सेना में शामिल समस्त भारतीय सैनिक एक तरह का व्यवहार कर रहे थे। बहुत से सिपाहियों ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को इन परिस्थितियों में भुलाया नहीं था।
एक अंग्रेज अधिकारी की डायरी के संदर्भ से विलियम डैलरिम्पल ने लिखा है- ‘बहुत से भारतीय सिपाहियों ने अपने अधिकारियों का अपमान किए बिना, खामोशी से लेकिन दृढ़तापूर्वक घोषणा कर दी कि उन्होंने स्वयं को कम्पनी की नौकरी से स्वतंत्र कर लिया है और अब वे दिल्ली के बादशाह की प्रजा बनने और उनकी सेवा करने जा रहे हैं।
बहुत से सिपाहियों ने अपनी अधिकारियों को सलाम किया और बहुत इज्जत और तमीज से अपने मुंह बगावत के केन्द्र अर्थात् दिल्ली की तरफ फेर लिए ताकि उन लोगों में सम्मिलित हो सकें और उनकी संख्या बढ़ा सकें जो कि हिन्दुस्तान की मुसलमान राजधानी में हमसे लड़ने वाले थे।’
इस अंग्रेज अधिकारी की डायरी के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सभी भारतीय सैनिक अनपढ़ एवं असभ्य नहीं थे।
जब कम्पनी सरकार से विद्रोह करने वाले बहुत से भारतीय सिपाही अपने पुराने स्वामियों अर्थात् अंग्रेजों के विरुद्ध तमीज से पेश आए थे तो निश्चित ही उन सिपाहियों की संख्या भी कम नहीं रही होगी जो अब भी कम्पनी सरकार की तरफ से लड़ रहे थे और उन्होंने अब भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पल्लू थाम रखा था किंतु दिल्ली वालों के मन में अंग्रेजी सेनाओं का भय घर कर चुका था। वे दूध से जले हुए थे और अब छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीना चाहते थे।
तिलंगों के साथ दिल्ली वासियों का अब तक का अनुभव बहुत बुरा था इसलिए अब वे फिर दिल्ली में घुस रही अंग्रेजी सेनाओं के हाथों और जलील नहीं होना चाहते थे। यही कारण था कि दिल्ली के बहुत से संभ्रांत लोगों ने अंग्रेजी सेनाओं के भय से दिल्ली खाली करके भाग जाना ही उचित समझा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता