भारत के अन्य प्रांतों की तरह बंगाल पर भी अनादि काल से हिन्दू राजाओं का शासन रहा। जिस समय सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया था, उस समय बंगाल में गंगारिदयी नामक राजवंश का शासन करता था। यहाँ के लोग आरम्भ से ही स्वातंत्र्य प्रकृति के रहे हैं, इस कारण यह क्षेत्र पाटलिपुत्र के मौर्यों के प्रभाव से मुक्त रहा।
सातवीं शताब्दी ईस्वी में शशांक ने बंगाल में गौड़ राज्य की स्थापना की जिसने कन्नौज के मौखरी राजा ग्रहवर्मन को मारा था जो कि थानेश्वर के राजा राज्यवर्द्धन का बहनोई था। जब शशांक ने राज्यवर्द्धन को भी मार डाला तो हर्षवर्द्धन थानेश्वर का राजा हुआ और उसने शशांक को मारकर अपने बहनोई तथा बड़े भाई की हत्या का बदला लिया।
चूंकि शशांक का राजवंश हिन्दू था इसलिए उस काल के बौद्धधर्म से प्रभावित बिहार एवं बंगाल के राजाओं ने मिलकर शशांक को मार दिया तथा बंगाल में एक नवीन राजवंश की स्थापना हुई जो गौड़ राजवंश कहलाता था। गौड़ राजवंश ने बंगाल में बौद्धधर्म का प्रसार किया। गौड़ों के बांद बंगाल में पालवंश तथा पालवंश के बाद सेनवंश ने दीर्घकाल तक शासन किया।
उस काल में बंगाल की जनसंख्या इतनी अधिक नहीं थी जितनी कि आज है। तब का बंगाल भारत के अत्यधिक समृद्ध प्रदेशों में से एक था। ई.1205 में इख्तियारूद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने बंगाल को जीतकर दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित किया था। यद्यपि वह कुतुबुद्दीन ऐबक के अधीन नहीं था तथापि उसने स्वयं को कुतुबुद्दीन के प्रति विश्वसनीय बनाए रखा। उसके बाद बंगाल पर फिर कभी हिन्दुओं का शासन नहीं हो सका।
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दिल्ली से अत्यधिक दूर होने के कारण बंगाल के अधिकांश सूबेदारों ने केन्द्रीय सत्ता से सम्बन्ध विच्छेद करके अपनी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना के प्रयास किये। बंगाल के किसी भी सूबेदार के निर्बल होने की स्थिति में अन्य कोई भी शक्तिशाली व्यक्ति उसे पदच्युत करके बंगाल की सत्ता हथिया लेता था।
बाबर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ‘बंगाल की यह बड़ी विचित्र प्रथा है कि राज्य वंशागत अधिकार से बहुत कम प्राप्त होता है। बादशाह का अर्थ उसके राजतख्त से समझा जाता है। बंगाल वाले केवल तख्त तथा पद का सम्मान करते हैं …… जो कोई भी योद्धा, बंगाल के शासक की हत्या करके तख्त हथिया लेता है, वही बंगाल का बादशाह हो जाता है। बंगाल वालों का कथन है कि हम राजतख्त के भक्त हैं। जो कोई राजतख्त पर आरूढ़ होता है, हम उसके आज्ञाकारी बन जाते हैं।’
इख्तियारूद्दीन खिलजी की मृत्यु के उपरान्त बंगाल तथा बिहार ने दिल्ली से सम्बन्ध विच्छेद करने का प्रयत्न किया। अलीमर्दा खाँ ने लखनौती में स्वतंत्रता पूर्वक शासन करना आरम्भ कर दिया परन्तु स्थानीय खिलजी सरदारों ने उसे कैद करके कारागार में डाल दिया और उसके स्थान पर मुहम्मद शेख को शासक बना दिया। अलीमर्दा खाँ कारगार से निकल भागा और दिल्ली पहुँच गया। उसने दिल्ली के सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक से, बंगाल में हस्तक्षेप करने के लिए कहा।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने बंगाल पहुंचकर विद्रोहियों को मार डाला तथा अलीमर्दा खाँ को बंगाल का गवर्नर बना दिया। अलीमर्दा खाँ ने कुतुबुद्दीन ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे वार्षिक कर देने को तैयार हो गया। अलीमर्दा खाँ ने बंगाल पर बड़ी निर्दयता तथा निरंकुशता से शासन किया और कुतुबुद्दीन ऐबक के मरते ही अल्लाउद्दीन का विरुद धारण करके बंगाल का स्वतन्त्र सुल्तान बन गया।
दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश के समय में हिसामुद्दीन इवाज, सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी की उपाधि धारण करके बंगाल में शासन कर रहा था। ई.1225 में इल्तुतमिश ने बंगाल पर आक्रमण किया। गयासुद्दीन ने इल्तुतमिश का आधिपत्य स्वीकार कर लिया और बिहार पर अपने अधिकार को त्याग दिया। इल्तुतमिश संतुष्ट होकर लौट गया परन्तु उसके दिल्ली पहुँचते ही गयासुद्दीन ने पुनः स्वयं को बंगाल का स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और बिहार पर अधिकार कर लिया।
इस पर इल्तुतमिश ने ई.1226 में अपने पुत्र नासिरुद्दीन महमूद को जो उन दिनों अवध का गवर्नर था, बंगाल पर आक्रमण करने भेजा। नासिरुद्दीन ने लखनौती पर अधिकार स्थापित करके गयासुद्दीन को मरवा डाला। इल्तुतमिश ने नासिरुद्दीन महमूद को बंगाल का गवर्नर नियुक्त कर दिया। नासिरुद्दीन ने बंगाल में शान्ति तथा व्यवस्था स्थापित करने का काफी प्रयास किया किंतु जब नासिरुद्दीन दिल्ली चला आया तो बंगाल में पुनः अशांति फैल गई।
इल्तुतमिश ने ई.1230 में पुनः बंगाल पर आक्रमण किया और फिर से बंगाल पर अधिकार करके अल्लाउद्दीन जैनी को वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया। आगे चलकर जब नासिरुद्दीन महमूद दिल्ली के तख्त पर बैठा तो उसके पूरे शासन काल में लखनौती में गड़बड़ी व्याप्त रही। उसके बीस वर्षीय शासन में लखनौती में सात-आठ शासक हुए। सुल्तान नासिरुद्दीन दिल्ली की समस्याओं में उलझे रहने से बंगाल में फिर से अपना शासन स्थापित नहीं कर सका।
ई.1243 में जाजनगर के हिन्दू राय ने बंगाल पर आक्रमण कर दिया। उसने बंगाल पर अधिकार करके उसे दिल्ली से स्वतंत्र कर लिया। कुछ समय बाद बंगाल फिर से दिल्ली के अधीन हो गया।
जब तुगरिल खाँ बंगाल का सूबेदार बना तो उसने दिल्ली से सम्बन्ध विच्छेद करके अवध पर आक्रमण कर दिया। इस पर जाजनगर के हिन्दू राजा ने तुगरिल खाँ को परास्त कर दिया। तुगरिल खाँ ने दिल्ली के सुल्तान बलबन से सहायता मांगी। बलबन ने तुगरिल खाँ पर आक्रमण करके उससे युद्ध का हरजाना मांगा।
तुगरिल खाँ ने अवध की जागीर युद्ध के हर्जाने के रूप में बलबन को दे दी तथा स्वयं दिल्ली के अधीन हो गया। ई.1279 में बलबन बीमार पड़ा। इससे प्रेरित होकर तुगरिल खाँ ने स्वयं को पुनः स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और सुल्तान मुगसुद्दीन की उपाधि धारण कर ली। उसने अपने नाम की मुद्राएं चलाईं और अपने नाम से खुतबा भी पढ़वाया।
तुगरिल खाँ के इस व्यवहार से बलबन को बड़ी चिन्ता हुई, उसने तुगरिल खाँ के विरुद्ध कई बार सेनाएँ भेजीं परन्तु सफलता प्राप्त नहीं हुई। अन्त में बलबन अपने पुत्र बुगरा खाँ को साथ लेकर एक विशाल सेना के साथ बंगाल के लिए चल दिया। तुगरिल खाँ भयभीत होकर अपने कुछ साथियों के साथ जाजनगर के जंगलों में भाग गया।
लखनौती पर बलबन का अधिकार स्थापित हो गया। बड़ी खोज के बाद तुगरिल खाँ पकड़ा गया। उसका सिर काटकर नदी में फेंक दिया गया और स्त्रियों तथा बच्चों को कैद कर लिया गया। सुल्तान ने तुगरिल खाँ के साथियों तथा सम्बन्धियों को भी कठोर दण्ड दिया। लखनौती में तीन दिन तक हत्याकाण्ड चलता रहा।
विद्रोहियों का दमन करने के उपरान्त बलबन ने बंगाल का शासन प्रबन्ध अपने पुत्र बुगरा खाँ को सौंप दिया। उसने शहजादे को चेतावनी दी कि यदि वह दुष्टों के कहने में आकर विद्रोह करेगा तो उसकी वही दशा होगी जो तुगरिल खाँ की हुई थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता