दिल्ली सल्तनत का शाही-तख्त इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद से ही सुल्तानी खून का प्यासा हो चुका था। इस तख्त ने इल्तुतमिश के लगभग पूरे खानदान को ही निगल लिया था। सुल्तान रुकनुद्दीन फीरोजशह, रजिया सुल्तान, बहरामशाह तथा अल्लाउद्दीन मसूद शाही-तख्त की रक्त-पिपासा की भेंट चढ़ चुके थे।
बलबन ने किसी तरह स्थितियों को संभाला तथा अपने स्वामी नासिरुद्दीन और स्वयं अपने जीवन की पूरी तरह से रक्षा की किंतु जैसे ही बलबन की आँखें बंद हुईं, दिल्ली के शाही-तख्त ने फिर से सुल्तानों का रक्त पीना
आरम्भ कर दिया था। बलबन ने अपने पुत्र बुगरा खाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था किंतु वह शाही तख्त की खूनी तबियत को अच्छी तरह समझ चुका था, इसलिए तख्त पर बैठने की बजाय बंगाल भाग गया था।
इसके बाद बलबन ने अपने पोते कैखुसरो को अगला सुल्तान बनाने की घोषणा की किंतु दिल्ली के तुर्की अमीरों ने कैखुसरो को मारकर उसके स्थान पर कैकुबाद को सुल्तान बना दिया। हर समय दयालुता एवं दरियादिली का प्रदर्शन करने वाले जलालुद्दीन खिलजी ने न केवल लकवाग्रस्त सुल्तान कैकुबाद को लातों से मारकर यमुनाजी में फैंक दिया अपितु शिशु सुल्तान क्यूमर्स को भी गला घोंटकर मार डाला था और स्वयं दिल्ली के तख्त पर बैठा था।
सुल्तानों के खून में भीगा हुआ दिल्ली का शापित शाही-तख्त जलालुद्दीन को भी जीवित कैसे छोड़ देता! आखिर वह दिन भी बहुत जल्दी आ गया जब अल्लाउद्दीन ने अपने चाचा को धोखे से मारकर धरती पर गिरा दिया तथा उसका सिर कटवा कर और भाले पर टंगवाकर कड़ा, मानिकपुर एवं अवध के शहरों में घुमवाया।
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जियाउद्दीन बरनी का ग्रंथ ‘तारीखे-फीरोजशाही’ एकमात्र उपलब्ध समकालीन ऐतिहासिक स्रोत है जिसके माध्यम से जलालुद्दीन खिलजी के शासनकाल की घटनाओं की जानकारी मिलती है। जियाउद्दीन बरनी, जलालुद्दीन खिलजी का घनघोर आलोचक था क्योंकि उसकी दृष्टि में जलालुद्दीन खिलजी एक उदार शासक था। इसलिए जियाउद्दीन बरनी ने उन्हीं घटनाओं को अपने ग्रंथ में लिखने का प्रयास किया जो जलालुद्दीन खिलजी की नीतियों को असफल घोषित करने के लिए पर्याप्त थीं।
जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने ‘उदार-निरंकुशवाद’ के आदर्श को अपनाया। वह सफल सेनानायक था और एक शक्तिशाली सेना उसके अधिकार में थी। फिर भी उसने सैनिकवादी नीति को त्याग दिया। इस पर भी उसने डेढ़ लाख मंगोलों की सेना को परास्त करके अपनी सामरिक क्षमता का परिचय दिया।
जलालुद्दीन खिलजी अपनी उदार नीति के माध्यम से दरबार तथा राज्य के समस्त वर्गों के लोगों को संतुष्ट रखना चाहता था। उसने बलबन तथा उसके वंशजों के अनुयायी तुर्क अमीरों को महत्त्वपूर्ण पदों पर बने रहने दिया। उसने पूर्ववर्ती सुल्तानों के प्रति सम्मान का प्रदर्शन करते हुए बलबन के महल के चौक में घोड़े पर सवार होने से मना कर दिया। उसने सुल्तान के पुराने सिंहासन पर बैठने से भी इसलिए मना कर दिया क्योंकि वह अनेक बार सेवक के रूप में इस सिंहासन के सम्मुख खड़ा हो चुका था। जलालुद्दीन खिलजी ने जब विद्रोही मलिक छज्जू को बेड़ियों में बंधे हुए देखा तो जलालुद्दीन खिलजी रो पड़ा।
जहाँ एक ओर जलालुद्दीन खिलजी मुसलमानों के प्रति अत्यंत उदार था वहीं दूसरी ओर हिन्दुओं के प्रति अत्यंत अनुदार था। उसने झाइन में मंदिरों को तोड़ा तथा अपवित्र किया और देव-मूर्तियों को नष्ट किया। जलालुद्दीन ने रणथंभौर सहित किसी भी बड़े हिन्दू शासक के विरुद्ध इसलिए कोई विशेष कार्यवाही नहीं की क्योंकि वह मुसलमान सैनिकों का रक्तपात होते हुए नहीं देखना चाहता था।
चार वर्ष के संक्षिप्त शासन काल में जलालुद्दीन खिलजी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने जीर्ण हो चले इल्बरी तुर्कों के शासन को नष्ट करके दिल्ली सल्तनत में नये राजवंश की नींव रखी। उसकी दूसरी उपलब्धि यह कही जा सकती है कि उसने शासन में उदारवादी तत्वों का समावेश करके खिलजियों, तुर्कों तथा पठानों सहित विभिन्न मुस्लिम कबीलों को राहत देने का प्रयास किया। उसकी तीसरी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने मंगालों के एक बड़े समूह को इस्लाम का अनुयायी बनाकर उन्हें अपनी सेवा में रख लिया।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जलालुद्दीन खिलजी इस्लामिक संसार का पहला सुल्तान था जिसने मंगोलों को सबसे पहले इस्लाम में लाने का सफल प्रयास किया था।
दिल्ली सल्तनत के इतिहास को आगे बढ़ाने से पहले हमें जलालुद्दीन की इस सफलता पर थोड़ी चर्चा करनी चाहिए। तेरहवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक मंगोल लड़ाके किसी भी धर्म को नहीं मानते थे तथा मुसलमानों के बड़े दुश्मन थे। इस बात का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जब चंगेज खाँ के पोते हलाकू ने बगदाद पर आक्रमण किया तो उस हमले का आँखों देखा विवरण लिखते हुए बगदाद के लेखक अब्दुल्ला वस्साफ़ शिराज़ी ने लिखा है- ‘मंगोल बगदाद शहर में भूखे गधों की तरह घुस गए और जिस तरह भूखे भेड़िये, भेड़ों पर हमला करते हैं, वैसा करने लगे। बिस्तर और तकिए चाकूओं से फाड़ दिए गए…. महल की औरतें गलियों में घसीटी गईं और उनमें से हर एक तातरियों का खिलौना बनकर रह गई।’
ई.1252 में हलाकू का छोटा भाई मंगू खाँ अथवा मोंगके खान मंगोलों का नेता हुआ, उसे मंगोलों के इतिहास में ‘खान महान’ कहा जाता है। वह अपने भाई की अपेक्षा थोड़ा उदार था। इसलिए मुसलमानों, ईसाइयों तथा बौद्धों में होड़ मची कि किसी तरह मंगू खाँ को प्रसन्न करके उसे अपने धर्म में सम्मिलित कर लिया जाए। पोप ने भी रोम से अपने एलची मंगू खाँ के पास भेजे। नस्तोरियन ईसाई भी पूरी तैयारी के साथ मंगू खाँ के चारों ओर मण्डराने लगे।
मुसलमान और बौद्ध प्रचारक भी तेजी से अपने काम में जुट गए किंतु मंगू खाँ को धर्म जैसी चीज में अधिक रुचि नहीं थी, फिर भी वह ईसाई बनने को तैयार हो गया। जब रोम के एलचियों ने मंगू खाँ को पोप तथा उसके चमत्कारों की कहानियां सुनाईं तो मंगू खाँ भड़क गया और उसने कोई भी धर्म स्वीकार करने से मना कर दिया।
जब कुछ समय बाद मंगू खाँ मर गया तब जो मंगोल सरदार जिस क्षेत्र में राज्य करता था, उसने वहीं के लोगों का धर्म अपना लिया। चीन और मंगोलिया के मंगोल बौद्ध हो गए, रूस और हंगरी में रह रहे मंगोल ईसाई हो गए, जबकि मध्यएशिया के मंगोलों ने अब तक कोई धर्म स्वीकार नहीं किया था। ऐसी स्थिति में जलालुद्दीन खिलजी द्वारा चंगेज खाँ के परिवार के मंगोलों को मुसलमान बना लेना एक बड़ी उपलब्धि थी।
मंगोलों को मुसलमान बनाने के उत्साह में उसने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल मंगेालों को दिल्ली लाकर बसाने के रूप में की। कालांतर में ये मंगोल, दिल्ली सल्तनत में षड़यंत्रों एवं कुचक्रों का केन्द्र बन गए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता