सलीमा बेगम को पाकर बैरामखाँ दूने जोश से अकबर के शत्रुओं पर टूट पड़ा। इस समय हिन्दुस्थान की स्थिति ऐसी थी कि आगरा से मालवा तथा जौनपुर की सीमाओं तक आदिलशाह की सत्ता थी। काबुल जाने वाले मार्ग पर दिल्ली से लेकर छोटे रोहतास तक सिकंदर सूर का शासन था तथा पहाड़ियों के किनारे से गुजरात की सीमा तक इब्राहीमखाँ के थाने लगते थे। ये तीनों ही व्यक्ति अपने आप को दिल्ली का अधिपति समझते थे। इनके सिपाही आये दिन किसी न किसी गाँव में घुस जाते और जनता से राजस्व की मांग करते। जनता तीन-तीन बादशाहों को पालने में समर्थ नहीं थी। ये सिपाही निरीह लोगों पर तरह-तरह का अत्याचार करते। जबर्दस्ती उनके घरों में घुस जाते और उनका माल-असबाब उठा कर भाग जाते। बिना कोई धन चुकाये जानवरों को पकड़ लेते और उन्हें मार कर खा जाते। शायद ही कोई घर ऐसा रह गया था जिसमें स्त्रियों की इज्जत आबरू सुरक्षित बची थी। जनता इन जुल्मों की चक्की में पिस कर त्राहि-त्राहि कर रही थी लेकिन किसी ओर कोई सुनने वाला नहीं था।
बैरामखाँ जानता था कि सिकंदर सूर, आदिलशाह और इब्राहीम से निबटे बिना दिल्ली तक पहुंच पाना संभव नहीं था लेकिन इन सब शत्रुओं से प्रबल एक और शत्रु था जो बैरामखाँ को सबसे ज्यादा सता रहा था। वह था देश व्यापी महाअकाल। जिसके चलते राजकोष जुटाना और सेना बढ़ाना संभव नहीं था। बैरामखाँ के पास अब तक जो भी कोष था वह उसने हरहाने[1] में नसीबखाँ की सेना से लूटा था। इसमें से काफी सारा धन उसने हुमायूँ को दे दिया था और हुमायूँ ने वह सारा धन अमीरों की दावतें करने पर तथा मुजरा करने वाली औरतों पर लुटा दिया था। बचे-खुचे धन से वह सेना को किसी तरह वेतन देकर टिकाये हुए था।
अकाल की स्थिति यह थी कि उत्तरी भारत में उस साल कहीं भी बरसात नहीं हुई थी। दिल्ली और आगरे के जिलों में तो अकाल ने बड़ा ही उग्र रूप धारण कर लिया था और हजारों आदमी भूख से मर रहे थे। राजधानी दिल्ली बिल्कुल बरबाद हो चुकी थी। थोड़े से मकानों के सिवा अब वहाँ कुछ भी नहीं था। अच्छे-अच्छे घरों के लोग दर-दर के भिखारी होकर निचले इलाकों में भाग गये थे जहाँ वे भीख मांगकर गुजारा कर सकते थे। रोजगार की आशा करने से अच्छा तो मौत की आशा करना था क्योंकि मौत फिर भी मिल जाती थी लेकिन रोजगार नहीं मिलता था। जब खाली हवेलियों में भूखे नंगे लोग लूटमार के लिये घुसते तो उन्हें सोना चांदी और रुपया पैसा मिल जाता था किंतु अनाज का दाना भी देखना नसीब नहीं होता था जिसके अभाव में सोना-चांदी और रुपए-पैसे का कोई मूल्य नहीं था।
संभ्रांत लोगों की यह हालत थी तो निर्धनों और नीचे तबके के लोगों की तकलीफों का तो अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता। औरतें वेश्यावृत्ति करके पेट पालने लगीं। लाखों बच्चे भूख और बीमारी से तड़प-तड़प कर मर गये। अकाल के साथ ही महामारी प्लेग का भी प्रकोप हुआ। प्लेग ने हिन्दुस्तान के बहुत से शहरों को अपनी चपेट में ले लिया। शहर के शहर खाली हो गये। लोगों ने भाग कर जंगलों और पहाड़ों में शरण ली। फिर भी असंख्य आदमी मर गये। अंत में ऐसी स्थिति आयी कि जब खाने को कहीं कुछ न रहा तो आदमी आदमी का भक्षण करने लगा। इक्के-दुक्के आदमी को अकेला पाकर पकड़ लेने के लिये नरभक्षियों के दल संगठित हो गये। पूरे देश में हा-हा कार मचा हुआ था।
एक ओर तो जनता की यह दुर्दशा थी दूसरी ओर सिकन्दर सूर, आदिलशाह, इब्राहीम लोदी और बैरामखाँ की सेनाओं में हिन्दुस्थान पर अधिकार करने के लिये घमासान मचा हुआ था।
भारत वर्ष की एसी स्थिति देखकर काशी में बैठे गुसांई तुलसीदास ने लिखा-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि
बनिक को न बनिज न चाकर को चाकरी
जीविका विहीन लो सीद्यमान सोच बस
कहै एक एकन सौं, कहाँ जाय का करी।
[1] पंजाब के होशियार पुर जिले में स्थित है।