आज 21 अप्रेल को हमें योग्यकार्ता से इण्डोनेशिया की राजधानी जकार्ता के लिए रवाना होना था। हमने एक लक्जरी ट्रेन से रिजर्वेशन करवा रखा था। यह ट्रेन प्रातः 8.57 पर योग्यकार्ता से चलकर सायं 4.52 पर जकार्ता पहुंचने वाली थी। रेलवे स्टेशन हमारे सर्विस अपार्टमेंट से केवल 8-9 किलोमीटर की दूरी पर था। फिर भी हमने टैक्सी ड्राइवर मि. अन्तो के सुझाव पर प्रातः 7 बजे निकलने का समय निर्धारित किया। उसका कहना था कि प्रातः के समय ऑफिस जाने वाले ट्रैफिक की काफी भीड़ होती है, जाम भी लग जाते हैं, इसलिए मार्ग में एक से डेढ़ घण्टा लग सकता है। हम लोग प्रातः चार बजे उठकर ही चलने की तैयारी करने लगे। प्रातः 6 बजे से वर्षा आरम्भ हो गई तथा प्रातः सात बजते-बजते वर्षा काफी तेज हो गई।
ट्रेन का समय प्रातः 8.57 पर था और मुझे आशंका थी कि कहीं ऐसा न हो, मि. अन्तो नहीं आए और हमारी ट्रेन चूक जाए किंतु मिस्टर अन्तो प्रातः 7 बजे से पहले ही आ गया। मुझे उसकी यह अनुशासन-प्रियता देखकर अच्छा लगा। उसने आते ही कहा- मिस्टर मोहन, वर्षा हो रही है और सड़क पर ट्रैफिक काफी है, इसलिए हमें तुरंत निकलना चाहिये। हम तैयार तो थे ही, तुरंत चल पड़े। मैं मि. अन्तो की छतरी लेकर मिस रोजोविता को गुडबाय कहने के लिए सामने के घर तक गया। घर का दरवाजा किसी युवक ने खोला। मैंने कहा- ‘हम जा रहे हैं, आपका घर बहुत आराम देह था।
हमने यहाँ अच्छा समय व्यतीत किया। कृपया घर संभाल लें।’ युवक ने मुस्कुरा कर मुझे धन्यवाद दिया तथा कहा- ‘घर संभालने की कोई आवश्यकता नहीं है। आपकी यात्रा शुभ हो।’ मि. अन्तो ठीक कह रहा था। सड़क पर बहुत ट्रैफिक था, यहाँ कार्यालयों का समय प्रातः शीघ्र ही आरम्भ हो जाता होगा। हमें 7 किलोमीटर की दूरी पार करने में लगभग एक घण्टा लगा।
मि. अन्तो से विदा
हम लगभग 8 बजे जोगजकार्ता स्टेशन पहुंच गए। हल्की बूंदा-बादी अब भी हो रही थी। मि. अन्तो ने छतरी बाहर निकाली किंतु हमने मना कर दिया। हमने जिस समय मि. अन्तो से रेलवे स्टेशन का किराया तय किया था, उस समय हम योग्यकार्ता से लगभग 30 किलोमीटर दूर (मासप्रियो के अपार्टमेंट में) थे किंतु इस समय हम केवल 7 किलोमीटर दूर से आए थे। इसलिए किराया कम ही बनता था किंतु हमने मि. अन्तो से किराया कम करने के लिए नहीं कहा तथा पूरा पेमेंट किया किंतु हमें आश्चर्य हुआ जब उसने 25 हजार इण्डिोनेशियाई रुपए वापस हमारे हाथ में रख दिए। भारत में तो ऐसा होना अत्यंत कठिन है। मि. अन्तो एक पढ़-लिखा, सुशिक्षित, सुसभ्य मुस्लिम युवक है। वह चाहता तो उसे आसानी से कोई व्हाइट कॉलर जॉब भी मिल सकता है किंतु वह जो भी काम कर रहा था, उसे कितने ढंग और प्रेम से कर रहा था, यह सीखने और समझने वाली बात थी। भारत में इतना पढ़ा-लिखा लड़का शायद ही टैक्सी ड्राइवर का काम करे। हालांकि मैंने दिल्ली में उन लड़कों को देखा है जो पार्ट टाइम जॉब के रूप में उबर और ओला की टैक्सियां चलाते हैं और अच्छा खासा कमा लेते हैं। उनका व्यवहार परम्परागत भारतीय ड्राइवरों की तुलना में बेहद शालीन है हालांकि शालीनता के मामले में मि. अन्तो उनसे भी बहुत आगे है।
जोगजकार्ता स्टेस्यन के भीतर
जिस ट्रेन से हमें जोगजकार्ता से जकार्ता जाना था, उसका नाम अरगो लावू था। यह एक लक्जरी ट्रेन थी जिसके एक्जीक्यूटिव क्लास में हमारा रिजर्वेशन था। हम अपनी इस यात्रा को यादगार बनाना चाहते थे। हमें ज्ञात था कि यह ट्रेन पूरे दिन चावल, केले और मक्का के खेतों से भरे हुए हरे मैदानों से होकर गुजरने वाली थी। इसलिए हमने सीटों का चयन खिड़की के पास किया था। इसके लिए इण्डोनेशिया सरकार ने हमसे कुछ अधिक किराया लिया था। ट्रेन आने में अभी एक घण्टे का समय था किंतु इस ट्रेन में जाने वाले यात्रियों के लिए बोर्डिंग खुल चुका था। यह ठीक वैसी ही व्यवस्था थी जैसी कि एयर पोर्ट पर हुआ करती है। हमने अपने बोर्डिंग पास स्टेशन के गेट पर खड़ी लेडी ऑफिसर्स को दिखाए। वे नेवी ब्लू रंग की शानदार यूनीफॉर्म में थीं। इस प्रकार की वर्दी सर्दियों में भारतीय नेवी के अफसर पहनते हैं। लेडी ऑफिसर्स का व्यवहार, उनकी यूनीफॉर्म की ही तरह शानदार था। उन्होंने बड़ी विनम्रता से हमें अपने पासपोर्ट दिखाने के लिए कहा। लेडी ऑफिसर्स ने हमारे पासपोर्ट का हमारे बोर्डिंग पास से मिलान किया और हमें स्टेशन के भीतर जाने का अनुरोध किया। उन्होंने हमें बताया कि हमारी ट्रेन प्लेटफॉर्म नम्बर 2 पर आएगी। हम लोग स्टेशन के मुख्य भवन में से होते हुए एक नम्बर प्लेटफार्म को पार करते हुए दो नम्बर प्लेटफार्म पर जाकर खड़े हो गए। भारतीय होने के नाते हम ऐसा ही करने के अभ्यस्त थे। प्लेटफॉर्म नम्बर 1 से प्लेटफॉर्म नम्बर 2 के बीच जाने के लिए रेल की पटरियां पार करनी पड़ीं। यात्रियों की सुविधा के लिए दोनों प्लेटफार्म्स के बीच एक पतली सी सड़क बनी हुई थी। हमें कोई पुल पार नहीं करना पड़ा। जबकि भारत में किसी भी रेलवे स्टेशन पर बिना पुल पार किए, एक प्लेटफॉर्म से दूसरे प्लेटफॉर्म पर जाया ही नहीं जा सकता।
प्लेटफॉर्म नम्बर दो बहुत ही संकरा था। कठिनाई से 10 फुट चौड़ा। इसके दोनों ओर पटरियां बनी हुई थीं और इसके दूसरी ओर एक ट्रेन लगी हुई थी। हमें अनुमान था कि यह हमारी ट्रेन नहीं है। हमें खड़े हुए अभी दो मिनट हुए होंगे कि एक रेलवे कर्मचारी हमारे पास आया। इसने भी अन्य अधिकारियों की तरह पी कैप से लेकर ब्लैक शू तक पूरी वर्दी बहुत सलीके से पहन रखी थी। उसने हमारे निकट आकर विनम्रता से पूछा- ‘व्हिच ट्रेन प्लीज!’ जब हमने ‘अर्गो लावू’ कहा तो उसने कहा- ‘दिस इज नॉत (नॉट) अरगो लावू। कम विद मी प्लीज।’ हम अपना सामान लेकर उसके पीछे चल दिए। वह हमें फिर से प्लेटफार्म नम्बर एक पर ले गया और हमसे वहाँ रखीं शानदार कुर्सियों पर बैठने का अनुरोध किया। हमें यह बहुत सुविधा जनक भी लगा क्योंकि प्लेटफॉर्म नम्बर 2 पर खड़े होने के लिए समुचित स्थान नहीं था। इस समय सवा आठ बज चुके थे। हमने वहीं पर नाश्ता करने का निश्चय किया। हम नाश्ता करके चुके ही थे कि वही कर्मचारी पुनः हमारे पास आया और बोला- ‘योअर त्रेन इज कमिंग, यू मे कम दीयर, ऑन प्लेतफॉर्म नम्बर तू।’ हमने उसका अनुसरण किया।
अरगो लावू
अरगो लावू एक शानदार चमचमाती हुई ट्रेन है। जिस एसी चेयर कार में हमारा रिजर्वेशन था, उसमें दोनों तरफ दो-दो आरामदेह कुर्सियां लगी हुई थीं। कोच की सफाई देखते ही बनती थी। इसके कांच पूरी तरह साफ और पारदर्शी थे जिनसे बाहर का दृश्य बहुत साफ दिखाई देता था। कोच में सामने की ओर लगे टीवी स्क्रीन पर ट्रेन की स्पीड, ट्रेन के चालक तथा ट्रेन के सिक्योरिट ऑफिसर के नाम एवं सैलफोन नम्बर डिस्पले हो रहे थे। सिक्योरिटी ऑफिसर की तस्वीर भी इस स्क्रीन पर डिस्प्ले हो रही थी। पूरे मार्ग में ट्रेन संभवतः तीन-चार स्टेशनों पर ही रुकी थी किंतु जब भी ट्रेन किसी स्टेशन से गुजर रही होती थी तो उसका नाम भी स्क्रीन पर डिस्पले होता था। थोड़ी देर में एक ट्रेन हॉस्टेस अपनी ट्रॉली के साथ आई। यह एयर हॉस्टेस जैसी ही वर्दी पहने हुए थी और जिस प्रकार हवाई जहाज की एयर हॉस्टेस, यात्रियों को चाय-बिस्कुट बेचती हैं, यह भी बेच रही थी।
हमने अुनमान लगाया कि भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी संभवतः इसी प्रकार की ट्रेन हॉस्टेस भारत की ट्रेनों में नियुक्त करना चाहते हैं। वे ट्रेन हॉस्टेस तो नियुक्त कर सकते हैं किंतु भारत की ट्रेनों में तो यात्रियों के चलने भर के लिए भी जगह नहीं होती, ये ट्रेन हॉस्टेस कहाँ होकर निकलेंगी। भारत के लोग कंधा छीले बिना तो दो कदम आगे नहीं बढ़ सकते। इन ट्रेन हॉस्टेसों के कंधे छिल-छिलकर लहू-लुहान हो जाया करेंगे। भारत के एक रेलमंत्री ने तो स्लीपर कोच में साइड अपर और साइड लोअर के बीच साइड मिडिल बर्थ भी लगा दी थी। इसके बाद तो कंधों के साथ-साथ घुटने भी छिलने लग गए थे। पूरा दिन अरगो लावू चावल और मक्का के खेतों से होकर गुजरती रही। नारियल और केले के झुरमुट भी दिखाई देते रहे। शाम सवा चार बजे यह गंबीरी जकार्ता स्टेशन पर पहुंची।